29-04-2019, 09:15 PM
“कोई खास रंग...?”
“नहीं...हाँ...नीले रंग का हो, तो ज़्यादा अच्छा है।” कहकर प्रकाश को थोड़ा अफ़सोस हुआ। उसे पता था बीना को नीले रंग पसन्द नहीं हैं।
बच्चा उछलता हुआ बालकनी से लौट आया और बीना का हाथ पकडक़र बोला, “अब चलो।”
“पापा से प्यार तो किया नहीं और आते ही चल भी दिया?” प्रकाश ने उसे बाँहों में ले लिया। बच्चे ने उसके होंठों से होंठ मिलाकर एक बार अच्छी तरह उसे चूम लिया और फिर झट से उसकी बाँहों से निकलकर माँ से बोला, “अब चलो।”
बीना चारपाई से उठ खड़ी हुई। बच्चा उसका हाथ पकडक़र उसे बाहर की तरफ़ खींचने लगा। “तलो न ममी देल हो लही है,” वह फिर तुतलाने लगा और बीना को साथ खींचता हुआ दहलीज़ पार कर गया।
“तू जाकर पापा को चिट्ठी लिखेगा न?” प्रकाश ने पीछे से आवाज़ दी।
“लिथूंदा।” मगर उसने पीछे मुडक़र नहीं देखा। पीछे मुडक़र देखा एक बार बीना ने, और जल्दी से आँखें हटा लीं। आँखों की कोरों में अटके आँसू उसने बहने नहीं दिए। “तूने पापा को टा-टा नहीं किया,” उसने बच्चे के कन्धे पर हाथ रखे हुए कहा।
“टा-टा पापा!” बच्चे ने बिना पीछे की तरफ़ देखे हाथ हिलाया और ज़ीने से बीना उतरने लगी। आधे ज़ीने से फिर उसकी आवाज़ सुनाई दी, “पापा का धल अच्छा है ममी, हमाला धल अच्छा है। पापा ते धल में तो कुछ छामान ही नहीं है...!”
“तू अब चुप करेगा कि नहीं!” बीना ने उसे झिडक़ दिया, “जो मुँह में आता है बोलता जाता है।”
“नहीं तुप तलूँदा, नहीं तलूँदा तुप...,” बच्चे का स्वर फिर रुआँसा हो गया और वह तेज़-तेज़ नीचे उतरने लगा। “पापा का धल दन्दा! पापा का धल थू...!”
रात होते-होते आकाश फिर घिर गया। प्रकाश क्लब के बाथरूम में बैठा एक के बाद एक बियर की बोतलें खाली करता रहा। बारमैन अब्दुल्ला लोगों के लिए रम और ह्विïस्की के पेग ढालता हुआ बार-बार कनखियों से उसकी तरफ़ देख लेता। इतने दिनों में पहली बार वह प्रकाश को इस तरह पीते देख रहा था। “लगता है आज साहब ने कहीं से बड़ा माल मारा है,” उसने एकाध बार शेर मोहम्मद से कहा, “आगे कभी एक बोतल से ज़्यादा नहीं पीता था, और आज चार-चार बोलतें पीकर भी बस करने का नाम नहीं ले रहा।”
शेर मोहम्मद ने सिर्फ़ मुँह बिचका दिया और अपने काम में लगा रहा।
प्रकाश की आँखें अब्दुल्ला से मिलीं, तो अब्दुल्ला मुस्करा दिया। प्रकाश कुछ क्षण इस तरह उसे देखता रहा जैसे वह आदमी न होकर एक धुँधला-सा साया हो, और सामने का गिलास परे सरकाकर उठ खड़ा हुआ। काउंटर के पास जाकर उसने दस-दस के दो नोट अब्दुल्ला के सामने रख दिए। अब्दुल्ला बाकी पैसे गिनता हुआ खुशामदी स्वर में बोला, “आज साहब बहुत खुश नज़र आता है।”
“हाँ।” प्रकाश इस तरह उसे देखता रहा जैसे उसके सामने से वह साया धुँधला होकर बादलों में गुम हुआ जा रहा हो। वह चलने को हुआ, तो अब्दुल्ला ने पहले सलाम किया, फिर आहिस्ता से पूछ लिया, “क्यों साहब, वह कौन बच्चा था उस दिन आपके साथ? किसका लडक़ा है वह?”
प्रकाश को लगा जैसे साया अब बिलकुल गुम हो गया हो और सामने सिर्फ़ बादल ही बादल घिरा रह गया हो। उसने जैसे बादल को चीरकर देखने की चेष्टा करते हुए कहा, “कौन लडक़ा?”
“अब्दुल्ला पल-भर भौचक्का-सा हो रहा। फिर खिलखिलाकर हँस पड़ा। “तब तो मैंने शेर मोहम्मद से ठीक ही कहा था...” वह बोला।
“क्या?”
“नहीं...हाँ...नीले रंग का हो, तो ज़्यादा अच्छा है।” कहकर प्रकाश को थोड़ा अफ़सोस हुआ। उसे पता था बीना को नीले रंग पसन्द नहीं हैं।
बच्चा उछलता हुआ बालकनी से लौट आया और बीना का हाथ पकडक़र बोला, “अब चलो।”
“पापा से प्यार तो किया नहीं और आते ही चल भी दिया?” प्रकाश ने उसे बाँहों में ले लिया। बच्चे ने उसके होंठों से होंठ मिलाकर एक बार अच्छी तरह उसे चूम लिया और फिर झट से उसकी बाँहों से निकलकर माँ से बोला, “अब चलो।”
बीना चारपाई से उठ खड़ी हुई। बच्चा उसका हाथ पकडक़र उसे बाहर की तरफ़ खींचने लगा। “तलो न ममी देल हो लही है,” वह फिर तुतलाने लगा और बीना को साथ खींचता हुआ दहलीज़ पार कर गया।
“तू जाकर पापा को चिट्ठी लिखेगा न?” प्रकाश ने पीछे से आवाज़ दी।
“लिथूंदा।” मगर उसने पीछे मुडक़र नहीं देखा। पीछे मुडक़र देखा एक बार बीना ने, और जल्दी से आँखें हटा लीं। आँखों की कोरों में अटके आँसू उसने बहने नहीं दिए। “तूने पापा को टा-टा नहीं किया,” उसने बच्चे के कन्धे पर हाथ रखे हुए कहा।
“टा-टा पापा!” बच्चे ने बिना पीछे की तरफ़ देखे हाथ हिलाया और ज़ीने से बीना उतरने लगी। आधे ज़ीने से फिर उसकी आवाज़ सुनाई दी, “पापा का धल अच्छा है ममी, हमाला धल अच्छा है। पापा ते धल में तो कुछ छामान ही नहीं है...!”
“तू अब चुप करेगा कि नहीं!” बीना ने उसे झिडक़ दिया, “जो मुँह में आता है बोलता जाता है।”
“नहीं तुप तलूँदा, नहीं तलूँदा तुप...,” बच्चे का स्वर फिर रुआँसा हो गया और वह तेज़-तेज़ नीचे उतरने लगा। “पापा का धल दन्दा! पापा का धल थू...!”
रात होते-होते आकाश फिर घिर गया। प्रकाश क्लब के बाथरूम में बैठा एक के बाद एक बियर की बोतलें खाली करता रहा। बारमैन अब्दुल्ला लोगों के लिए रम और ह्विïस्की के पेग ढालता हुआ बार-बार कनखियों से उसकी तरफ़ देख लेता। इतने दिनों में पहली बार वह प्रकाश को इस तरह पीते देख रहा था। “लगता है आज साहब ने कहीं से बड़ा माल मारा है,” उसने एकाध बार शेर मोहम्मद से कहा, “आगे कभी एक बोतल से ज़्यादा नहीं पीता था, और आज चार-चार बोलतें पीकर भी बस करने का नाम नहीं ले रहा।”
शेर मोहम्मद ने सिर्फ़ मुँह बिचका दिया और अपने काम में लगा रहा।
प्रकाश की आँखें अब्दुल्ला से मिलीं, तो अब्दुल्ला मुस्करा दिया। प्रकाश कुछ क्षण इस तरह उसे देखता रहा जैसे वह आदमी न होकर एक धुँधला-सा साया हो, और सामने का गिलास परे सरकाकर उठ खड़ा हुआ। काउंटर के पास जाकर उसने दस-दस के दो नोट अब्दुल्ला के सामने रख दिए। अब्दुल्ला बाकी पैसे गिनता हुआ खुशामदी स्वर में बोला, “आज साहब बहुत खुश नज़र आता है।”
“हाँ।” प्रकाश इस तरह उसे देखता रहा जैसे उसके सामने से वह साया धुँधला होकर बादलों में गुम हुआ जा रहा हो। वह चलने को हुआ, तो अब्दुल्ला ने पहले सलाम किया, फिर आहिस्ता से पूछ लिया, “क्यों साहब, वह कौन बच्चा था उस दिन आपके साथ? किसका लडक़ा है वह?”
प्रकाश को लगा जैसे साया अब बिलकुल गुम हो गया हो और सामने सिर्फ़ बादल ही बादल घिरा रह गया हो। उसने जैसे बादल को चीरकर देखने की चेष्टा करते हुए कहा, “कौन लडक़ा?”
“अब्दुल्ला पल-भर भौचक्का-सा हो रहा। फिर खिलखिलाकर हँस पड़ा। “तब तो मैंने शेर मोहम्मद से ठीक ही कहा था...” वह बोला।
“क्या?”
जिंदगी की राहों में रंजो गम के मेले हैं.
भीड़ है क़यामत की फिर भी हम अकेले हैं.