29-04-2019, 09:11 PM
“तो तुम्हें मैं बड़ी नज़र आती हूँ? एक छोटी-सी बच्ची को बड़ी कहते तुम्हारे दिल को कुछ नहीं होता? इसलिए कि तुम मुझे अपने पास सुलाना नहीं चाहते? मगर मैं यहाँ से नहीं जाऊँगी। तुम्हें मुझे अपने साथ सुलाना पड़ेगा। मैं विधवा हूँ जो अकेली सोऊँगी? मैं सुहागिन स्त्री हूँ। कोई सुहागिन क्या कभी अकेली सोती है? मैं भाँवरें लेकर तुम्हारे घर में आयी हूँ, ऐसे ही उठाकर नहीं लायी गयी। देखती हूँ तुम कैसे मुझे उस कमरे में भेजते हो?” और वह उसके पास लेटकर उससे लिपट जाती।
कुछ देर में जब उसके स्नायु शान्त हो चुकते तो लगातार उसे चूमती हुई कहती, “मेरा सुहाग! मेरा चाँद! मेरे राजा! मैं तुम्हें कभी अपने से अलग रख सकती हूँ? तुम मेरे साथ एक सौ छत्तीस साल की उम्र तक जिओगे। मुझे यह वर मिला है कि मैं एक सौ छत्तीस साल की उम्र तक सुहागिन रहूँगी। जिसकी भी मुझसे शादी होती, वह एक सौ छत्तीस साल की उम्र तक जीता। तुम देख लेना मेरी बात सच निकलती है या नहीं। मैं सती स्त्री हूँ और सती स्त्री के मुँह से निकली बात कभी झूठ नहीं होती...।”
“तुम सुबह मेरे साथ अस्पताल चलोगी?”
“क्यों, मुझे क्या हुआ है जो मैं अस्पताल जाऊँगी? मुझे तो आज तक कभी सिरदर्द भी नहीं हुआ। मैं अस्पताल क्यों जाऊँगी?”
एक दिन प्रकाश उसके लिए कई किताबें ख़रीद लाया। उसने सोचा था कि शायद पढऩे से निर्मला के मन को एक दिशा मिल जाए और वह धीरे-धीरे अपने मन के अँधेरे से बाहर निकलने लगे। मगर निर्मला ने उन किताबों को देखा, तो मुँह बिचकाकर एक तरफ़ हटा दिया।
“ये किताबें मैं तुम्हारे पढऩे के लिए लाया हूँ,” उसने कहा।
“मेरे पढऩे के लिए?” निर्मला हैरानी के साथ बोली, “मैं इन किताबों को पढक़र क्या करूँगी? मैंने तो माक्र्सवाद, मनोविज्ञान और सभी कुछ चौदह साल की उम्र में ही पढ़ लिया था। अब इतनी बड़ी होकर मैं ये किताबें पढऩे लगूँगी?”
और उसके पास से उठकर अँगूठा चूसती हुई वह दूसरे कमरे में चली गयी।
“पापा!”
कोहरे के बादलों में भटका मन सहसा बालकनी पर लौट आया। खिलनमर्ग की सडक़ पर बहुत-से लोग घोड़े दौड़ाते जा रहे थे—एक धुँधले चित्र की बुझी-बुझी आकृतियाँ जैसे कुछ वैसे ही बुझी-बुझी आकृतियाँ क्लब से बाज़ार की तरफ़ आ रही थीं। बायीं तरफ़ बर्फ़ से ढकी पहाड़ी की एक चोटी कोहरे से बाहर निकल आयी थी, और जाने किधर से आती धूप की एक किरण ने जिसे जगमगा दिया था। कोहरे में भटके कुछ पक्षी उड़ते हुए उस चोटी के सामने आ गये, तो सहसा उनके पंख सुनहरे हो उठे—मगर अगले ही क्षण वे फिर धुँधलके में खो गये।”
प्रकाश कुर्सी से उठ खड़ा हुआ और झाँककर नीचे सडक़ की तरफ़ देखने लगा। क्या वह आवाज़ पलाश की नहीं थी? मगर सडक़ पर दूर तक वैसी कोई आकृति दिखाई नहीं दे रही थी। आँखों से टूरिस्ट होटल के गेट तक जाकर वह लौट आया और गले पर हाथ रखकर जैसे निराशा की चुभन को रोके हुए फिर कुर्सी पर बैठ गया। दस के बाद ग्यारह, बारह और फिर एक बज गया था और बच्चा नहीं आया था। क्या बच्चे के पहले जन्मदिन की घटना आज फिर दोहराई जानी थी?
“पापा!”
प्रकाश ने चौंककर सिर उठाया। वही कोहरा और वही धुँधली सुनसान सडक़। दूर घोड़ों की टापें और धीमी चाल से उस तरफ़ को आता एक कश्मीरी मज़दूर! क्या वह आवाज़ उसे अपने कानों के अन्दर से सुनाई दे रही थी?
तभी कानों के अन्दर दो नन्हे पैरों की आवाज़ भी गूँज गयी और उसके बहुत पास बच्चे का स्वर किलक उठा, “पापा!” साथ ही दो नन्हीं बाँहें उसके गले से लिपट गयीं और बच्चे के झंडूले बाल उसके होंठों से छू गये।
प्रकाश ने बच्चे के शरीर को सिर से पैर तक छू लिया। फिर उसके माथे और आँखों को हल्के से चूम लिया।
“तो मैं जाऊँ, पलाश?” एक भूली हुई मगर परिचित आवाज़ ने प्रकाश को फिर चौंका दिया। उसने घूमकर पीछे देखा। कमरे के दरवाज़े के बाहर बीना दायीं तरफ़ न जाने किस चीज़ पर आँखें गड़ाए खड़ी थी।
“आप?...अन्दर आ जाइए आप...!” कहता हुआ वह बच्चे को बाँहों में लिये अस्तव्यस्त-सा कुर्सी से उठ खड़ा हुआ।
कुछ देर में जब उसके स्नायु शान्त हो चुकते तो लगातार उसे चूमती हुई कहती, “मेरा सुहाग! मेरा चाँद! मेरे राजा! मैं तुम्हें कभी अपने से अलग रख सकती हूँ? तुम मेरे साथ एक सौ छत्तीस साल की उम्र तक जिओगे। मुझे यह वर मिला है कि मैं एक सौ छत्तीस साल की उम्र तक सुहागिन रहूँगी। जिसकी भी मुझसे शादी होती, वह एक सौ छत्तीस साल की उम्र तक जीता। तुम देख लेना मेरी बात सच निकलती है या नहीं। मैं सती स्त्री हूँ और सती स्त्री के मुँह से निकली बात कभी झूठ नहीं होती...।”
“तुम सुबह मेरे साथ अस्पताल चलोगी?”
“क्यों, मुझे क्या हुआ है जो मैं अस्पताल जाऊँगी? मुझे तो आज तक कभी सिरदर्द भी नहीं हुआ। मैं अस्पताल क्यों जाऊँगी?”
एक दिन प्रकाश उसके लिए कई किताबें ख़रीद लाया। उसने सोचा था कि शायद पढऩे से निर्मला के मन को एक दिशा मिल जाए और वह धीरे-धीरे अपने मन के अँधेरे से बाहर निकलने लगे। मगर निर्मला ने उन किताबों को देखा, तो मुँह बिचकाकर एक तरफ़ हटा दिया।
“ये किताबें मैं तुम्हारे पढऩे के लिए लाया हूँ,” उसने कहा।
“मेरे पढऩे के लिए?” निर्मला हैरानी के साथ बोली, “मैं इन किताबों को पढक़र क्या करूँगी? मैंने तो माक्र्सवाद, मनोविज्ञान और सभी कुछ चौदह साल की उम्र में ही पढ़ लिया था। अब इतनी बड़ी होकर मैं ये किताबें पढऩे लगूँगी?”
और उसके पास से उठकर अँगूठा चूसती हुई वह दूसरे कमरे में चली गयी।
“पापा!”
कोहरे के बादलों में भटका मन सहसा बालकनी पर लौट आया। खिलनमर्ग की सडक़ पर बहुत-से लोग घोड़े दौड़ाते जा रहे थे—एक धुँधले चित्र की बुझी-बुझी आकृतियाँ जैसे कुछ वैसे ही बुझी-बुझी आकृतियाँ क्लब से बाज़ार की तरफ़ आ रही थीं। बायीं तरफ़ बर्फ़ से ढकी पहाड़ी की एक चोटी कोहरे से बाहर निकल आयी थी, और जाने किधर से आती धूप की एक किरण ने जिसे जगमगा दिया था। कोहरे में भटके कुछ पक्षी उड़ते हुए उस चोटी के सामने आ गये, तो सहसा उनके पंख सुनहरे हो उठे—मगर अगले ही क्षण वे फिर धुँधलके में खो गये।”
प्रकाश कुर्सी से उठ खड़ा हुआ और झाँककर नीचे सडक़ की तरफ़ देखने लगा। क्या वह आवाज़ पलाश की नहीं थी? मगर सडक़ पर दूर तक वैसी कोई आकृति दिखाई नहीं दे रही थी। आँखों से टूरिस्ट होटल के गेट तक जाकर वह लौट आया और गले पर हाथ रखकर जैसे निराशा की चुभन को रोके हुए फिर कुर्सी पर बैठ गया। दस के बाद ग्यारह, बारह और फिर एक बज गया था और बच्चा नहीं आया था। क्या बच्चे के पहले जन्मदिन की घटना आज फिर दोहराई जानी थी?
“पापा!”
प्रकाश ने चौंककर सिर उठाया। वही कोहरा और वही धुँधली सुनसान सडक़। दूर घोड़ों की टापें और धीमी चाल से उस तरफ़ को आता एक कश्मीरी मज़दूर! क्या वह आवाज़ उसे अपने कानों के अन्दर से सुनाई दे रही थी?
तभी कानों के अन्दर दो नन्हे पैरों की आवाज़ भी गूँज गयी और उसके बहुत पास बच्चे का स्वर किलक उठा, “पापा!” साथ ही दो नन्हीं बाँहें उसके गले से लिपट गयीं और बच्चे के झंडूले बाल उसके होंठों से छू गये।
प्रकाश ने बच्चे के शरीर को सिर से पैर तक छू लिया। फिर उसके माथे और आँखों को हल्के से चूम लिया।
“तो मैं जाऊँ, पलाश?” एक भूली हुई मगर परिचित आवाज़ ने प्रकाश को फिर चौंका दिया। उसने घूमकर पीछे देखा। कमरे के दरवाज़े के बाहर बीना दायीं तरफ़ न जाने किस चीज़ पर आँखें गड़ाए खड़ी थी।
“आप?...अन्दर आ जाइए आप...!” कहता हुआ वह बच्चे को बाँहों में लिये अस्तव्यस्त-सा कुर्सी से उठ खड़ा हुआ।
जिंदगी की राहों में रंजो गम के मेले हैं.
भीड़ है क़यामत की फिर भी हम अकेले हैं.