29-04-2019, 09:09 PM
बीना समझती थी कि इस तरह जान-बूझकर उसे फँसा दिया गया है। प्रकाश सोचता था कि अनजाने में ही उससे एक कसूर हो गया है।
साल-भर बच्चा माँ के ही पास रहा था। बीच में बच्चे की दादी छ:-सात महीने उसके पास रह आयी थी।
पहली वर्षगाँठ पर बीना ने लिखा था कि वह बच्चे को लेकर अपने पिता के पास लखनऊ जा रही है। वहीं पर बच्चे के जन्म-दिन की पार्टी देगी।
प्रकाश ने उसे तार दिया था कि वह भी उस दिन लखनऊ आएगा। अपने एक मित्र के यहाँ हज़रतगंज में ठहरेगा। अच्छा होगा कि पार्टी वहीं दी जाए। लखनऊ के कुछ मित्रों को भी उसने सूचित कर दिया था कि बच्चे की वर्षगाँठ के अवसर पर वे उसके साथ चाय पीने के लिए आएँ।
उसने सोचा था कि बीना उसे स्टेशन पर मिल जाएगी, परन्तु वह नहीं मिली। हज़रतगंज पहुँचकर नहा-धो चुकने के बाद उसने बीना के पास सन्देश भेजा कि वह वहाँ पहुँच गया है, कुछ लोग साढ़े चार-पाँच बजे चाय पीने आएँगे, इससे पहले वह बच्चे को लेकर ज़रूर वहाँ आ जाए। मगर पाँच बजे, छ: बजे, सात बज गये—बीना बच्चे को लेकर नहीं आयी। दूसरी बार सन्देश भेजने पर पता चला कि वहाँ उन लोगों की पार्टी चल रही है। बीना ने कहला भेजा कि बच्चा आठ बजे तक खाली नहीं होगा, इसलिए वह अभी उसे लेकर नहीं आ सकती। प्रकाश ने अपने मित्रों को चाय पिलाकर विदा कर दिया। बच्चे के लिए ख़रीदे हुए उपहार बीना के पिता के यहाँ भेज दिये। साथ में यह सन्देश भेजा कि बच्चा जब भी खाली हो, उसे थोड़ी देर के लिए उसके पास ले आया जाए।
मगर आठ के बाद नौ बजे, दस बजे, बारह बज गये, पर बीना न तो खुद बच्चे को लेकर आयी, और न ही उसने उसे किसी और के साथ भेजा।
वह रात-भर सोया नहीं। उसके दिमाग़ की जैसे कोई छैनी से छीलता रहा।
सुबह उसने फिर बीना के पास सन्देश भेजा। इस बार बीना बच्चे को लेकर आ गयी। उसने बताया कि रात को पार्टी देर तक चलती रही, इसलिए उसका आना सम्भव नहीं हुआ। अगर सचमुच उसे बच्चे से प्यार था, तो उसे चाहिए था कि उपहार लेकर ख़ुद उनके यहाँ पार्टी में चला आता...।
उस दिन सुबह से शुरू हुई बातचीत आधी रात तक चलती रही। प्रकाश बार-बार कहता रहा, “बीना, मैं इसका पिता हूँ। उस नाते मुझे इतना अधिकार तो है ही कि मैं इसे अपने पास बुला सकूँ।”
परन्तु बीना का उत्तर था, “आपके पास पिता का दिल होता, तो आप पार्टी में न आ जाते? यह तो एक आकस्मिक घटना ही है कि आप इसके पिता हैं।”
“बीना!” वह फटी-फटी आँखों से उसके चेहरे की तरफ़ देखता रह गया, “मैं नहीं समझ पा रहा कि तुम दरअसल चाहती क्या हो!”
“मैं कुछ भी नहीं चाहती। आपसे मैं क्या चाहूँगी?”
“तुमने सोचा है कि तुम्हारे इस तरह व्यवहार करने से बच्चे का क्या होगा?”
“जब हम अपने ही बारे में कुछ नहीं सोच सके, तो इसके बारे में क्या सोचेंगे!”
“क्या तुम पसन्द करोगी कि बच्चे को मुझे सौंप दो और खुद स्वतन्त्र हो जाओ?”
“इसे आपको सौंप दूँ?” बीना के स्वर में वितृष्णा गहरी हो गयी, “किस चीज़ के भरोसे? कल को आपकी ज़िन्दगी क्या होगी, यह कौन कह सकता है? बच्चे को उस अनिश्चित ज़िन्दगी के भरोसे छोड़ दूँ—इतनी मूर्ख मैं नहीं हूँ।”
“तो क्या तुम यही चाहोगी कि इसका फ़ैसला करने के लिए अदालत में जाया जाए?”
“आप अदालत में जाना चाहें, तो मुझे कोई एतराज़ नहीं है। ज़रूरत पडऩे पर मैं सुप्रीम कोर्ट तक आपसे लड़ूँगी। आपका बच्चे पर कोई हक नहीं है।”
बच्चे को पिता से ज़्यादा माँ की ज़रूरत होती है—कई दिन, कई सप्ताह वह मन ही मन संघर्ष करता रहा। जहाँ उसे दोनों न मिल सकें वहाँ माँ तो उसे मिलनी ही चाहिए। अच्छा है, मैं बच्चे की बात भूल जाऊँ और नए सिरे से अपनी ज़िन्दगी शुरू करने की कोशिश करूँ...।”
मगर...।
“फि$जूल की भावुकता में कुछ नहीं रखा है। बच्चे-अच्चे तो होते ही रहते हैं। सम्बन्ध-विच्छेद करके फिर से ब्याह कर लिया जाए, तो घर में और बच्चे हो जाएँगे। मन में इतना ही सोच लेना होगा कि इस बच्चे के साथ कोई दुर्घटना हो गयी थी...।”
सोचने-सोचने में दिन, सप्ताह और महीने निकलते गये। मन में आशंका उठती—क्या सचमुच पहले की ज़िन्दगी को मिटाकर इन्सान नए सिरे से ज़िन्दगी शुरू कर सकता है? ज़िन्दगी के कुछ वर्षों को वह एक दु:स्वप्न की तरह भूलने का प्रयत्न कर सकता है? कितने इन्सान हैं जिनकी ज़िन्दगी कहीं न कहीं, किसी न किसी दोराहे से ग़लत दिशा की तरफ़ भटक जाती है। क्या उचित यह नहीं कि इन्सान उस रास्ते को बदलकर अपने को सही दिशा में ले आये? आख़िर आदमी के पास एक ही तो ज़िन्दगी होती है—प्रयोग के लिए भी और जीने के लिए भी। तो क्यों आदमी एक प्रयोग की असफलता को ज़िन्दगी की असफलता मान ले? कोर्ट में काग़ज़ पर हस्ताक्षर करते समय छत के पंखे से टकराकर एक चिडिय़ा का बच्चा नीचे आ गिरा।
“हाय, चिडिय़ा मर गयी,” किसी ने कहा।
“मरी नहीं, अभी ज़िन्दा है,” कोई और बोला।
“चिडिय़ा नहीं है, चिडिय़ा का बच्चा है,” किसी तीसरे ने कहा।
“नहीं चिडिय़ा है।”
“नहीं, चिडिय़ा का बच्चा है।”
“इसे उठाकर बाहर हवा में छोड़ दो।”
“नहीं, यहीं पड़ा रहने दो। बाहर इसे कोई बिल्ली-विल्ली खा जाएगी।”
“पर यह यहाँ आया किस तरह?”
“जाने किस तरह? रोशनदान के रास्ते आ गया होगा।”
“बेचारा कैसे तड़प रहा है!”
“शुक्र है,पंखे ने इसे काट नहीं दिया।”
“काट दिया होता, तो बल्कि अच्छा था। अब इस तरह लुंजे पंखों से बेचारा क्या जिएगा!”
साल-भर बच्चा माँ के ही पास रहा था। बीच में बच्चे की दादी छ:-सात महीने उसके पास रह आयी थी।
पहली वर्षगाँठ पर बीना ने लिखा था कि वह बच्चे को लेकर अपने पिता के पास लखनऊ जा रही है। वहीं पर बच्चे के जन्म-दिन की पार्टी देगी।
प्रकाश ने उसे तार दिया था कि वह भी उस दिन लखनऊ आएगा। अपने एक मित्र के यहाँ हज़रतगंज में ठहरेगा। अच्छा होगा कि पार्टी वहीं दी जाए। लखनऊ के कुछ मित्रों को भी उसने सूचित कर दिया था कि बच्चे की वर्षगाँठ के अवसर पर वे उसके साथ चाय पीने के लिए आएँ।
उसने सोचा था कि बीना उसे स्टेशन पर मिल जाएगी, परन्तु वह नहीं मिली। हज़रतगंज पहुँचकर नहा-धो चुकने के बाद उसने बीना के पास सन्देश भेजा कि वह वहाँ पहुँच गया है, कुछ लोग साढ़े चार-पाँच बजे चाय पीने आएँगे, इससे पहले वह बच्चे को लेकर ज़रूर वहाँ आ जाए। मगर पाँच बजे, छ: बजे, सात बज गये—बीना बच्चे को लेकर नहीं आयी। दूसरी बार सन्देश भेजने पर पता चला कि वहाँ उन लोगों की पार्टी चल रही है। बीना ने कहला भेजा कि बच्चा आठ बजे तक खाली नहीं होगा, इसलिए वह अभी उसे लेकर नहीं आ सकती। प्रकाश ने अपने मित्रों को चाय पिलाकर विदा कर दिया। बच्चे के लिए ख़रीदे हुए उपहार बीना के पिता के यहाँ भेज दिये। साथ में यह सन्देश भेजा कि बच्चा जब भी खाली हो, उसे थोड़ी देर के लिए उसके पास ले आया जाए।
मगर आठ के बाद नौ बजे, दस बजे, बारह बज गये, पर बीना न तो खुद बच्चे को लेकर आयी, और न ही उसने उसे किसी और के साथ भेजा।
वह रात-भर सोया नहीं। उसके दिमाग़ की जैसे कोई छैनी से छीलता रहा।
सुबह उसने फिर बीना के पास सन्देश भेजा। इस बार बीना बच्चे को लेकर आ गयी। उसने बताया कि रात को पार्टी देर तक चलती रही, इसलिए उसका आना सम्भव नहीं हुआ। अगर सचमुच उसे बच्चे से प्यार था, तो उसे चाहिए था कि उपहार लेकर ख़ुद उनके यहाँ पार्टी में चला आता...।
उस दिन सुबह से शुरू हुई बातचीत आधी रात तक चलती रही। प्रकाश बार-बार कहता रहा, “बीना, मैं इसका पिता हूँ। उस नाते मुझे इतना अधिकार तो है ही कि मैं इसे अपने पास बुला सकूँ।”
परन्तु बीना का उत्तर था, “आपके पास पिता का दिल होता, तो आप पार्टी में न आ जाते? यह तो एक आकस्मिक घटना ही है कि आप इसके पिता हैं।”
“बीना!” वह फटी-फटी आँखों से उसके चेहरे की तरफ़ देखता रह गया, “मैं नहीं समझ पा रहा कि तुम दरअसल चाहती क्या हो!”
“मैं कुछ भी नहीं चाहती। आपसे मैं क्या चाहूँगी?”
“तुमने सोचा है कि तुम्हारे इस तरह व्यवहार करने से बच्चे का क्या होगा?”
“जब हम अपने ही बारे में कुछ नहीं सोच सके, तो इसके बारे में क्या सोचेंगे!”
“क्या तुम पसन्द करोगी कि बच्चे को मुझे सौंप दो और खुद स्वतन्त्र हो जाओ?”
“इसे आपको सौंप दूँ?” बीना के स्वर में वितृष्णा गहरी हो गयी, “किस चीज़ के भरोसे? कल को आपकी ज़िन्दगी क्या होगी, यह कौन कह सकता है? बच्चे को उस अनिश्चित ज़िन्दगी के भरोसे छोड़ दूँ—इतनी मूर्ख मैं नहीं हूँ।”
“तो क्या तुम यही चाहोगी कि इसका फ़ैसला करने के लिए अदालत में जाया जाए?”
“आप अदालत में जाना चाहें, तो मुझे कोई एतराज़ नहीं है। ज़रूरत पडऩे पर मैं सुप्रीम कोर्ट तक आपसे लड़ूँगी। आपका बच्चे पर कोई हक नहीं है।”
बच्चे को पिता से ज़्यादा माँ की ज़रूरत होती है—कई दिन, कई सप्ताह वह मन ही मन संघर्ष करता रहा। जहाँ उसे दोनों न मिल सकें वहाँ माँ तो उसे मिलनी ही चाहिए। अच्छा है, मैं बच्चे की बात भूल जाऊँ और नए सिरे से अपनी ज़िन्दगी शुरू करने की कोशिश करूँ...।”
मगर...।
“फि$जूल की भावुकता में कुछ नहीं रखा है। बच्चे-अच्चे तो होते ही रहते हैं। सम्बन्ध-विच्छेद करके फिर से ब्याह कर लिया जाए, तो घर में और बच्चे हो जाएँगे। मन में इतना ही सोच लेना होगा कि इस बच्चे के साथ कोई दुर्घटना हो गयी थी...।”
सोचने-सोचने में दिन, सप्ताह और महीने निकलते गये। मन में आशंका उठती—क्या सचमुच पहले की ज़िन्दगी को मिटाकर इन्सान नए सिरे से ज़िन्दगी शुरू कर सकता है? ज़िन्दगी के कुछ वर्षों को वह एक दु:स्वप्न की तरह भूलने का प्रयत्न कर सकता है? कितने इन्सान हैं जिनकी ज़िन्दगी कहीं न कहीं, किसी न किसी दोराहे से ग़लत दिशा की तरफ़ भटक जाती है। क्या उचित यह नहीं कि इन्सान उस रास्ते को बदलकर अपने को सही दिशा में ले आये? आख़िर आदमी के पास एक ही तो ज़िन्दगी होती है—प्रयोग के लिए भी और जीने के लिए भी। तो क्यों आदमी एक प्रयोग की असफलता को ज़िन्दगी की असफलता मान ले? कोर्ट में काग़ज़ पर हस्ताक्षर करते समय छत के पंखे से टकराकर एक चिडिय़ा का बच्चा नीचे आ गिरा।
“हाय, चिडिय़ा मर गयी,” किसी ने कहा।
“मरी नहीं, अभी ज़िन्दा है,” कोई और बोला।
“चिडिय़ा नहीं है, चिडिय़ा का बच्चा है,” किसी तीसरे ने कहा।
“नहीं चिडिय़ा है।”
“नहीं, चिडिय़ा का बच्चा है।”
“इसे उठाकर बाहर हवा में छोड़ दो।”
“नहीं, यहीं पड़ा रहने दो। बाहर इसे कोई बिल्ली-विल्ली खा जाएगी।”
“पर यह यहाँ आया किस तरह?”
“जाने किस तरह? रोशनदान के रास्ते आ गया होगा।”
“बेचारा कैसे तड़प रहा है!”
“शुक्र है,पंखे ने इसे काट नहीं दिया।”
“काट दिया होता, तो बल्कि अच्छा था। अब इस तरह लुंजे पंखों से बेचारा क्या जिएगा!”
जिंदगी की राहों में रंजो गम के मेले हैं.
भीड़ है क़यामत की फिर भी हम अकेले हैं.


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