29-04-2019, 08:58 PM
बम्बई की बरसात भी बस ! मुसीबत ही है। कहां तो सोचा था कि इन दो-तीन दिनों में पूरी बम्बई घूमूंगा। इस मायानगरी को खुद अपनी पहुंचने से देखूंगा, जानूंगा और कहां फंसा पडा हूं इस गेस्ट रूम में। जब से यहां आया हूं, यह झडी ज़ो लगी है, रूकने का नाम ही नहीं ले रही। इस कमरे में चहल-कदमी करते-करते थक गया हूं। लेटने की कई बार कोशिश की है परन्तु इतना नरम बिस्तर होते हुए भी तुरन्त उठ बैठता हूं। कमरे की एक-एक चीज को कई-कई बार देख चुका हूं। सारी पत्रिकाएं तो कल ही देख ली थीं,लेकिन मन में जो एक अजीब-सी कडवाहट घर कर रही है - गुस्से की, बेचैनी की, उससे वक्त काटना और भी मुश्किल हो रहा है।और ऊपर से यह बरसात, मेरे भीतर उठते तूफान को और तेज कर रही है। पता नहीं, कब तक इस कैद में रहना होगा।
मैं इसे कैद क्यों कह रहा हूं ! यह इतना बढिया गुदगुदे मैट्रेस वाला डबल-बैड, आरामकुर्सियां, किताबों से अटी पडी अल्मारियां, शो-केस, अटैच्ड बाथरूम, जिसमें ठण्डे-गर्म पानी की सुविधा है। सब कुछ साफ-सुथरा। सब कुछ तो यहां है! क्या हुआ जो इस कमरे में समुद्र की ओर खुलने वाली कोई खिडक़ी नहीं है। और तो कोई कमी नहीं। फिर बम्बई जैसे महंगे शहर में तीन-चार दिनों के लिए इतनी अच्छी तरह से रहने और साथ में खाने-पीने की सुविधा को मैं कैद कह रहा हूं? जिसे मैं कैद कह रहा हूं कभी सपने में भी कफ परेड जैसे पॉश इलाके में 20 वीं मंजिल पर इतने आलीशान फ्लैट के गेस्ट रूम में रहने के बारे में सोच सकता था। क्या मेरी इतनी औकात है कि मैं इतनी खूबसूरत जगह में आराम से पसरा रहूं और चाय, नाश्ता सब कुछ मेरे कमरे में पहुंचा दिया आए और यह सब सेवा एक ऐसी नौकरानी करे जो मुझसे भी अच्छी अंग्रेजी बोलती है, और स्मार्ट तो इतनी है कि कल जब मैं दिन में यहां पहुंचा था और दरवाजा उसी ने खोला था तो मैं उसे खन्ना अंकल की लडक़ी रितु ही समझा था और उसे विश भी उसी के हिसाब से किया था।
कल शाम को तैयार होकर जब कमरे से बाहर निकला तो उस वक्त आंटी ड्राइंग रूम में फोन पर किसी से बात कर रही थीं। मैं यही चाह रहा था कि कोई-न-कोई ड्राइंग रूम में मिल जाए, नहीं तो फिर किसी को बुलवाने के लिए या तो आवाज देनी पडती या फिर रूबी को ढूंढना पडता। आंटी जब तक फोन पर बात करती रहीं, मैं वहीं सोफे की टेक लगाए खडा रहा। फोन रखते ही जब वे मुडीं तो मुझ पर नजर पडी। चेहरा एकदम तुनक नया। अभी तो फोन पर हंस-हंसकर बातें कर रही थीं !
- क्या बात है मनीश ! कहीं जा रहे हो क्या! उन्होंने चेहरे की तुनक कम किए बिना साडी क़ी प्लीट्स ठीक करते हुए पूछा था। मैं एकदम सकपका गया था, फिर भी हिम्मत जुटाकर बोला था - वो सुबह से कमरे में बैठा-बैठा बोर हो रहा हूं। इस समय शायद बरसात रूकी हुई है, सोच रहा था, कहीं घूम आऊं।
मैंने जानबूझकर कार और ड्राइवर की बात नहीं की थी। हल्की-सी उम्मीद थी कि शायद वे खुद ही ड्राइवर को बुलाकर मुझे घुमा लाने के लिए कह दें। वैसे भी तो आज दोनों गाडियां घर पर हैं। सुबह अंकल ही तो बता रहे थे। आंटी भीतर के कमरे की तरफ मुडते हुए बोली थीं - भई! यहां बरसात का कोई भरोसा नहीं होता। फिर भी जाना चाहो तो बिल्डिंग के सामने ही बस स्टॉप है। मैरीन ड्राइव या फाउंटेन वगैरह घूम आओ, लेकिन डिनर के वक्त तक लौट आना। रूबी को घर जाना होता है। बाहर जाने का मेरा सारा उत्साह खत्म हो गया था। लेकिन कमरे में बैठे-बैठे कुढते रहने से तो यही अच्छा था कि बरसात में ही घूमता भीगता रहूं, यही सोचकर - अच्छा आंटी कहकर मैं बाहर आ गया था।
लिफ्ट का बटन दबाने के बाद मैं आँखें मूंदे दीवार के सहारे खडा हो गया था। मुझे बाउजी पर गुस्सा आने लगा था - क्यों भेजा उन्होंने मुझे यहां अपने वन-टाइम लंगोटिया यार और इस समय एक बहुत बडे आदमी - कृष्ण गोपाल खन्ना के घर पर ठहरने के लिए? मैं कहीं भी दस-बीस रूपये वाले होटल वगैरह में ठहर जाता। वहां कम-से-कम मुझे हर वक्त ज़लील तो न होना पडता। मुझे अपने आउटसाइडर होने का या मेरे छोटेपन का अहसास तो न कराया जाता और फिर उस हालत में मैं चार दिन के लिए थोडे ही आता। इन्टरव्यू वाला दिन और उससे एक दिन पहले यानी दो दिन की बात होती और फिर मैं सेकेण्ड क्लास से आया हूं और वापसी की टिकट भी तो सेकेण्ड क्लास का बुक करवाया है, जबकि कम्पनी मुझे दोनों तरफ का फर्स्ट क्लास का किराया दे रही है।उससे जो पैसा बचता, वह रहने-खाने के काम आ जाता।
लिफ्ट आ गई थी। मैं नीचे आ गया। सडक़ पर आने के बाद मैंने आस-पास देखा, पानी थमा हुआ था लेकिन लोग तेजी से आ-जा रहे थे। मैंने यह बात सुबह भी नोट की थी, अब भी देख रहा था कि यहां पर लोग और शहरों की तुलना में ज्यादा तेज चलते हैं,कहीं देखते नहीं, बस लपकते से रहते हैं। सुबह चर्चगेट के बाहर तो मैंने कई औरतों को भागते हुए देखा था। औरतों को इस तरह भागते देखना सचमुच मेरे लिए एक नया दृश्य था। एक बहुत मोटी औरत, जिसने स्कर्ट पहना था, भागते हुए बहुत ही अजीब लग रही थी।
मैं इसे कैद क्यों कह रहा हूं ! यह इतना बढिया गुदगुदे मैट्रेस वाला डबल-बैड, आरामकुर्सियां, किताबों से अटी पडी अल्मारियां, शो-केस, अटैच्ड बाथरूम, जिसमें ठण्डे-गर्म पानी की सुविधा है। सब कुछ साफ-सुथरा। सब कुछ तो यहां है! क्या हुआ जो इस कमरे में समुद्र की ओर खुलने वाली कोई खिडक़ी नहीं है। और तो कोई कमी नहीं। फिर बम्बई जैसे महंगे शहर में तीन-चार दिनों के लिए इतनी अच्छी तरह से रहने और साथ में खाने-पीने की सुविधा को मैं कैद कह रहा हूं? जिसे मैं कैद कह रहा हूं कभी सपने में भी कफ परेड जैसे पॉश इलाके में 20 वीं मंजिल पर इतने आलीशान फ्लैट के गेस्ट रूम में रहने के बारे में सोच सकता था। क्या मेरी इतनी औकात है कि मैं इतनी खूबसूरत जगह में आराम से पसरा रहूं और चाय, नाश्ता सब कुछ मेरे कमरे में पहुंचा दिया आए और यह सब सेवा एक ऐसी नौकरानी करे जो मुझसे भी अच्छी अंग्रेजी बोलती है, और स्मार्ट तो इतनी है कि कल जब मैं दिन में यहां पहुंचा था और दरवाजा उसी ने खोला था तो मैं उसे खन्ना अंकल की लडक़ी रितु ही समझा था और उसे विश भी उसी के हिसाब से किया था।
कल शाम को तैयार होकर जब कमरे से बाहर निकला तो उस वक्त आंटी ड्राइंग रूम में फोन पर किसी से बात कर रही थीं। मैं यही चाह रहा था कि कोई-न-कोई ड्राइंग रूम में मिल जाए, नहीं तो फिर किसी को बुलवाने के लिए या तो आवाज देनी पडती या फिर रूबी को ढूंढना पडता। आंटी जब तक फोन पर बात करती रहीं, मैं वहीं सोफे की टेक लगाए खडा रहा। फोन रखते ही जब वे मुडीं तो मुझ पर नजर पडी। चेहरा एकदम तुनक नया। अभी तो फोन पर हंस-हंसकर बातें कर रही थीं !
- क्या बात है मनीश ! कहीं जा रहे हो क्या! उन्होंने चेहरे की तुनक कम किए बिना साडी क़ी प्लीट्स ठीक करते हुए पूछा था। मैं एकदम सकपका गया था, फिर भी हिम्मत जुटाकर बोला था - वो सुबह से कमरे में बैठा-बैठा बोर हो रहा हूं। इस समय शायद बरसात रूकी हुई है, सोच रहा था, कहीं घूम आऊं।
मैंने जानबूझकर कार और ड्राइवर की बात नहीं की थी। हल्की-सी उम्मीद थी कि शायद वे खुद ही ड्राइवर को बुलाकर मुझे घुमा लाने के लिए कह दें। वैसे भी तो आज दोनों गाडियां घर पर हैं। सुबह अंकल ही तो बता रहे थे। आंटी भीतर के कमरे की तरफ मुडते हुए बोली थीं - भई! यहां बरसात का कोई भरोसा नहीं होता। फिर भी जाना चाहो तो बिल्डिंग के सामने ही बस स्टॉप है। मैरीन ड्राइव या फाउंटेन वगैरह घूम आओ, लेकिन डिनर के वक्त तक लौट आना। रूबी को घर जाना होता है। बाहर जाने का मेरा सारा उत्साह खत्म हो गया था। लेकिन कमरे में बैठे-बैठे कुढते रहने से तो यही अच्छा था कि बरसात में ही घूमता भीगता रहूं, यही सोचकर - अच्छा आंटी कहकर मैं बाहर आ गया था।
लिफ्ट का बटन दबाने के बाद मैं आँखें मूंदे दीवार के सहारे खडा हो गया था। मुझे बाउजी पर गुस्सा आने लगा था - क्यों भेजा उन्होंने मुझे यहां अपने वन-टाइम लंगोटिया यार और इस समय एक बहुत बडे आदमी - कृष्ण गोपाल खन्ना के घर पर ठहरने के लिए? मैं कहीं भी दस-बीस रूपये वाले होटल वगैरह में ठहर जाता। वहां कम-से-कम मुझे हर वक्त ज़लील तो न होना पडता। मुझे अपने आउटसाइडर होने का या मेरे छोटेपन का अहसास तो न कराया जाता और फिर उस हालत में मैं चार दिन के लिए थोडे ही आता। इन्टरव्यू वाला दिन और उससे एक दिन पहले यानी दो दिन की बात होती और फिर मैं सेकेण्ड क्लास से आया हूं और वापसी की टिकट भी तो सेकेण्ड क्लास का बुक करवाया है, जबकि कम्पनी मुझे दोनों तरफ का फर्स्ट क्लास का किराया दे रही है।उससे जो पैसा बचता, वह रहने-खाने के काम आ जाता।
लिफ्ट आ गई थी। मैं नीचे आ गया। सडक़ पर आने के बाद मैंने आस-पास देखा, पानी थमा हुआ था लेकिन लोग तेजी से आ-जा रहे थे। मैंने यह बात सुबह भी नोट की थी, अब भी देख रहा था कि यहां पर लोग और शहरों की तुलना में ज्यादा तेज चलते हैं,कहीं देखते नहीं, बस लपकते से रहते हैं। सुबह चर्चगेट के बाहर तो मैंने कई औरतों को भागते हुए देखा था। औरतों को इस तरह भागते देखना सचमुच मेरे लिए एक नया दृश्य था। एक बहुत मोटी औरत, जिसने स्कर्ट पहना था, भागते हुए बहुत ही अजीब लग रही थी।
जिंदगी की राहों में रंजो गम के मेले हैं.
भीड़ है क़यामत की फिर भी हम अकेले हैं.