29-04-2019, 08:40 PM
घर से सिर्फ एक हजार स्र्पये मिलते थे। बहन एम स़ी ए़ कर रही थी, वह बी ई़ । कॉलेज की वार्षिक फीस घर देता था, इसलिए मासिक खर्च के लिए एक हजार से जियाद: की न औकात थी, न गुंजाइश। पिता बिल्कुल नहीं चाहते थे। किटकिट करते थे। इतने पैसों में दोनों बहनों के हाथ पीले कर सकते थे। छोटी आय। कस्बे का माहौल। हर कोई चोंच चलाता, अरे! शहर में अकेली रह कर पढ़ रही हैं। पढ़ाई के नाम पर आजकल लोग धंधा करवाते हैं! गैंग के गैंग पक़डे जाते हैं शहरों में कॉलगर्लों के। कॉलेज-यूनिवर्सिटी की लड़कियाँ और अच्छी-अच्छी मॉडल और हीरोइनें तक धंधा अपनाए हुए हैं। थोड़ी सी फिगर ठीक हो- आगे-पीछे के पहाड़, अच्छी हाइट, फेयर कलर, अठारह से बाईस की एज और अधकचरी हिंदी-अंग्रेजी।।। फिर देखो कैसा नामा चीरती हैं आजकल लड़कियाँ शहरों में!
माँ दोनों ओर के क्लेश उठाती। पर बेटियों की आँखों में संघर्ष की चमक देख उसका आत्म विश्वास पुख्ता हो जाता हर बार। वह किसी बात पर कान न देती। पति से जिद करती, पढ़ने दो। हाथ तो पीले हो ही जायेंगे एक दिन। लड़की किसी की कुँआरी रही है? करने दो अपने मन की।।।। अपने भले के लिए कर रही हैं। अड़ंंगा नहीं डालो। तुम पे जितना बने दो, बाद बाकी का टयूशन-ब्यूसन करके खुद कर लेंेगी।।।।
और बाद बाकी का खुद कर रही थीं वे। नमिता मैथ पढ़ाती थी एक कोचिंग इंस्टीटयूट में, नीति इंग्लिश। नीति एम।सी।ए। कर रही थी। एक पुराना कम्प्यूटर सिस्टम अरेंज कर लिया था।
कमरे में ही खाना बनाती थीं। एक पलंग, एक टेबिल-कुर्सी और गैस सिलेण्डर-स्टोव्ह के अलावा किताबें, जूते-चप्पल तमाम अटरम-शटरम भी वहीं मौजूद रहता। लेट-बॉथ कॉमन। नीचे का रहना। आजू-बाजू और सामने पढ़ने-पढ़ाने वाले लड़के रहते। सब उन्हीं की तरह संघर्षरत्। कोई पी।ई।टी।, पी।एम।ई। की तैयारी करते टयूशन पढ़ाते। कोई बी।ई। के बाद प्राइवेट इंजीनियरिंग कॉलेज में प्राध्यापकी करते गैट वगैरह की तैयारी करते।।।। सभी अपने लक्ष्य के लिए समर्पित। औसत वक़्त किताबों में मशगूल। अपने सपनों में विचरते। ।।।कस्बे के लोग आकर देखते तो बहुत से भ्रम मिट जाते जो सिनेमा, टीवी फैलाते हैं।।।।
नीति का एम।सी।ए। हो गया। उसे लौटना पड़ा। उसी साल हाथ पीले हुए। नमिता की बीई का आखिरी साल था। नीति के बॉयफ्रेंड की एमसीए रह गई। बीच में घर से फीस नहीं मिली। अब वह नमिता का बॉयफ्रेंड था। हैल्प बतौर वह कभी सब्जी दे देती। कभी साथ खिला लेती सुबह या शाम। कभी वह उसे पढ़ने देता और खुद बना देता। ज़िंदगी लगभग सांझे चूल्हे में ढल गई थी।
उसके दोस्त बहुत थे। बरसों सेे रह रहा था-न! एक था श्रीकांत। वह तो नीति-नमिता का भी फेमिली फ्रेंड था। अब सहारा सिटी होम्स भीलवाड़ा में मुलाज़िम है। उसने आश्वासन दे रखा है कि जगह होते ही बुला लेगा सोमेश को भी। तब तक डिग्री कम्पलीट करले। ।।।और एक था सोनू, जो बी।एम।ई। कर चुका था। कभी-कभार अपनी गर्लफ्रेंड को लेकर उसके रूम पर आ जाता। तब वह नमिता के कमरे में जाकर पढ़ने लगता। वह कॉलेज गई होती। नहीं गई होती तब भी कोई एतराज नहीं जताती। लेकिन मक़ान मालकिन जो कि ऊपर रहती थी, उसने हर बार डांटा सोमेश को। वह बहुत पैनी नज़र रखती थी। वह बाक़ायदा गिना देती कि कब-कब लड़की, कितने-कितने घंटे के लिए लेकर आया उसका दोस्त! और कब-कब बदल कर लाया!
वह जानता था। लेकिन यह मानने को तैयार न था कि वे उसके बिस्तर पर हम-बिस्तर होते हैं। जैसा सोनू ने उसे समझाया कि पिछली लड़की दगा दे गई। वह कितना रोया, उदास रहा! पता है सोमेश को- दोस्ती और लव का मानी ़़फकत बॉडी रिलेसनशिप नहीं होता। मगर ज्यादातर लोगों कोे दोस्ती और लव में सेक्स के सिवा कुछ दिखता नहीं। नई लड़की उसके घाव भर रही थी कि तभी पुरानी फिर आ गई।।।। सोनू के लिए वह बेवफ़ा होकर भी बहुत अहम थी। सोमेश नहीं समझता कि इतनी उलझनों के बीच प्रेमालाप और सेक्स कूद पड़ेगा।।।। उसे मकान मालकिन अव्वल दर्जे की मूर्ख नज़र आती थी।
मगर एक रोज़ पापा का फोन आया तो उसने सोमेश को बुलाने से पहले कह दिया, उसका रूम तोे अव बन गया है। रोज़ बदल-बदल कर लड़कियाँ आ रही हैं! हम तो इसे निकाल रहे हैं।।।।
उस दिन से पापा ने उससे बात करना बंद कर दी। हालांकि उसने मक़ान मालकिन को समझा लिया। पर क्या फायदा, मासिक खर्च मिलना बंद हो गया। अब वह बैंक वगैरह में इंट्रीज करके खर्च निकाल रहा है। शेेष बचे सेमिस्टर हेतु फीस का अकाल दिख रहा है। एमसीए होता दिखता नहीं। तमाम समय तो जॉब में सिर मारते निकल जाता है। पढ़ाई हो कैसे?
माँ दोनों ओर के क्लेश उठाती। पर बेटियों की आँखों में संघर्ष की चमक देख उसका आत्म विश्वास पुख्ता हो जाता हर बार। वह किसी बात पर कान न देती। पति से जिद करती, पढ़ने दो। हाथ तो पीले हो ही जायेंगे एक दिन। लड़की किसी की कुँआरी रही है? करने दो अपने मन की।।।। अपने भले के लिए कर रही हैं। अड़ंंगा नहीं डालो। तुम पे जितना बने दो, बाद बाकी का टयूशन-ब्यूसन करके खुद कर लेंेगी।।।।
और बाद बाकी का खुद कर रही थीं वे। नमिता मैथ पढ़ाती थी एक कोचिंग इंस्टीटयूट में, नीति इंग्लिश। नीति एम।सी।ए। कर रही थी। एक पुराना कम्प्यूटर सिस्टम अरेंज कर लिया था।
कमरे में ही खाना बनाती थीं। एक पलंग, एक टेबिल-कुर्सी और गैस सिलेण्डर-स्टोव्ह के अलावा किताबें, जूते-चप्पल तमाम अटरम-शटरम भी वहीं मौजूद रहता। लेट-बॉथ कॉमन। नीचे का रहना। आजू-बाजू और सामने पढ़ने-पढ़ाने वाले लड़के रहते। सब उन्हीं की तरह संघर्षरत्। कोई पी।ई।टी।, पी।एम।ई। की तैयारी करते टयूशन पढ़ाते। कोई बी।ई। के बाद प्राइवेट इंजीनियरिंग कॉलेज में प्राध्यापकी करते गैट वगैरह की तैयारी करते।।।। सभी अपने लक्ष्य के लिए समर्पित। औसत वक़्त किताबों में मशगूल। अपने सपनों में विचरते। ।।।कस्बे के लोग आकर देखते तो बहुत से भ्रम मिट जाते जो सिनेमा, टीवी फैलाते हैं।।।।
नीति का एम।सी।ए। हो गया। उसे लौटना पड़ा। उसी साल हाथ पीले हुए। नमिता की बीई का आखिरी साल था। नीति के बॉयफ्रेंड की एमसीए रह गई। बीच में घर से फीस नहीं मिली। अब वह नमिता का बॉयफ्रेंड था। हैल्प बतौर वह कभी सब्जी दे देती। कभी साथ खिला लेती सुबह या शाम। कभी वह उसे पढ़ने देता और खुद बना देता। ज़िंदगी लगभग सांझे चूल्हे में ढल गई थी।
उसके दोस्त बहुत थे। बरसों सेे रह रहा था-न! एक था श्रीकांत। वह तो नीति-नमिता का भी फेमिली फ्रेंड था। अब सहारा सिटी होम्स भीलवाड़ा में मुलाज़िम है। उसने आश्वासन दे रखा है कि जगह होते ही बुला लेगा सोमेश को भी। तब तक डिग्री कम्पलीट करले। ।।।और एक था सोनू, जो बी।एम।ई। कर चुका था। कभी-कभार अपनी गर्लफ्रेंड को लेकर उसके रूम पर आ जाता। तब वह नमिता के कमरे में जाकर पढ़ने लगता। वह कॉलेज गई होती। नहीं गई होती तब भी कोई एतराज नहीं जताती। लेकिन मक़ान मालकिन जो कि ऊपर रहती थी, उसने हर बार डांटा सोमेश को। वह बहुत पैनी नज़र रखती थी। वह बाक़ायदा गिना देती कि कब-कब लड़की, कितने-कितने घंटे के लिए लेकर आया उसका दोस्त! और कब-कब बदल कर लाया!
वह जानता था। लेकिन यह मानने को तैयार न था कि वे उसके बिस्तर पर हम-बिस्तर होते हैं। जैसा सोनू ने उसे समझाया कि पिछली लड़की दगा दे गई। वह कितना रोया, उदास रहा! पता है सोमेश को- दोस्ती और लव का मानी ़़फकत बॉडी रिलेसनशिप नहीं होता। मगर ज्यादातर लोगों कोे दोस्ती और लव में सेक्स के सिवा कुछ दिखता नहीं। नई लड़की उसके घाव भर रही थी कि तभी पुरानी फिर आ गई।।।। सोनू के लिए वह बेवफ़ा होकर भी बहुत अहम थी। सोमेश नहीं समझता कि इतनी उलझनों के बीच प्रेमालाप और सेक्स कूद पड़ेगा।।।। उसे मकान मालकिन अव्वल दर्जे की मूर्ख नज़र आती थी।
मगर एक रोज़ पापा का फोन आया तो उसने सोमेश को बुलाने से पहले कह दिया, उसका रूम तोे अव बन गया है। रोज़ बदल-बदल कर लड़कियाँ आ रही हैं! हम तो इसे निकाल रहे हैं।।।।
उस दिन से पापा ने उससे बात करना बंद कर दी। हालांकि उसने मक़ान मालकिन को समझा लिया। पर क्या फायदा, मासिक खर्च मिलना बंद हो गया। अब वह बैंक वगैरह में इंट्रीज करके खर्च निकाल रहा है। शेेष बचे सेमिस्टर हेतु फीस का अकाल दिख रहा है। एमसीए होता दिखता नहीं। तमाम समय तो जॉब में सिर मारते निकल जाता है। पढ़ाई हो कैसे?
जिंदगी की राहों में रंजो गम के मेले हैं.
भीड़ है क़यामत की फिर भी हम अकेले हैं.