03-11-2021, 03:56 PM
कभी नरेन्द्र और नयना का जीवन एक सुखी जीवन था, वे दोनों अपना समय अपने कार्यक्षेत्र में उनमुक्त भाव से देते थे, दिमाग पर कोई बोझ न होता, न घर की जिम्मेदारियों से दिल परेशान रहता। अपनी कामयाबी को देख कर दोनों ने फैसला लिया था कि वे ऊंची शिक्षा के लिये बच्चों को बाहर भेजेंगे। दोनों लडक़े गज़ब के जहीन थे। स्कॉलरशिप मिली और उमंग से भरे वे अमेरिका पहूँचे। उनके जाने के बाद डॉक्टर नरेन्द्र की रुचि अपने काम में और बढ ग़ई। तरक्की मिली तो व्यस्तता का बढना लाजमी था। नरेन्द्र का उलट नयना के साथ हुआ। उसका काम में दिल कम लगने लगा। मन भटका भटका सा लडक़ों के ख्याल में डूबा रहता। घर सूना लगता। खाना पीना अच्छा न लगता। कुछ माह बाद वह संभल गयी। शायद अस्पताल के नए प्रोजेक्ट ने उसका ध्यान बंटा दिया, मगर एक उदासी जरूर हरदम उसके मन पर छाई रहती थी। जिसको रविभूषण ने दूर कर दिया था।
वह बम्बई जाने की तैयारी करने लगी। नरेन्द्र को बम्बई जाना प्रोफेशनल टूर लगा। इसमें क्या खास बात थी। दोनों ही समय समय पर एक दूसरे से दूर घर से बाहर जाते थे, सो नरेन्द्र ने सुबह नयना को सेफ जर्नी कह बाय बाय किया और नयना ने हमेशा की तरह उसको कुछ हिदायतें दीं और फिर वह पैकिंग में लग गई।
नयना जब नए खरीदे कपडे पहन कर आईने के सामने खडी हुई, तो उसको लगा कि उम्र का साया अभी उसके चेहरे पर नहीं आया है। खुशी ने उसके चेहरे पर चमक ला दी है। इस खयाल से उसकी उत्तेजना बढी क़ि यदि रविभूषण ने उसको रोका और अपने साथ रहने का आग्रह किया तो वह क्या फैसला लेगी? रविभूषण तो साफ शब्दों में कह चुका है कि, तुम बेकार में समय नष्ट कर रही हो, वहां तुम्हारा कोई इंतजार नहीं कर रहा है। यहां मैं हूँ, आओ न - मैं फोन रखता हूँ। तब तक तुम फैसला लो। मैं दस मिनट बाद फोन करुंगा। उसकी इस तरह की बातें छोटी छोटी शिकायतों के जख्म ताजा कर देती और उसको महसूस होता कि उसने अपनी जिन्दगी जी ही कहाँ? कभी बच्चे, कभी पति कभी ससुरालवालेअब मैं अपनी जिन्दगी जी सकती हूँ। रविभूषण वास्तुविद् हैं, जो इमारत बनने से पहले उसका नक्शा खींच, मॉडल के रूप में पूरी इमारत सामने लाने की क्षमता रखता है। वह जिन्दगी का नक्शा भी बडा मजबूत बनायेगा। जिसमें वह अपनी महबूबा के लिये ताजमहल न सही, एक छोटा सा घर तो बना सकता है। जिसको वह अपनी मर्जी से सजा सकती है। नयना ने पूरे विश्वास से होंठों पर लिपस्टिक लगाई और गहरी नजरों से अपने सरापे को ताका। उडान का समय हो गया था।
दिल्ली से बम्बई उडान बहुत कम समय की थी। नयना का मन तेजी से धडक़ रहा था। दो मुलाकातों के बाद घटनायें सम्वेदना के स्तर पर जिस तरह घटीं थीं, सारी मौखिक थीं मगर उसमें जादू था, जो नयना के सर चढ क़र बोल रहा था। कल रात रविभूषण की खुशी का कोई ठिकाना न था, जब उसको पता चला कि नयना ने बम्बई आना तय कर लिया है। उसके स्वर में जो धडक़न थी, उसने नयना को विश्वास दिलाया कि जीवन का अंतिम पहर जैसे रविभूषण के साथ गुजरने वाला है, वही मेरा अंत होगा धीरे से नयना ने कहा और बैग उठा हवाई जहाज़ की सीढियां उतरने लगी। उसको डर था कि रवि को देख कर वह इतनी भावुक न हो उठे कि वहीं हवाई अड्डे पर उससे लिपट जाये। या फिर रवि वहीं सबके सामने उसका चुंबन न ले ले। नयना किसी किशोरी की तरह शर्माई शर्माई सी थी। प्यार किसी भी उम्र में हो उसका अपना तर्क होता है। जो उम्र, जात पात, धर्म, भाषा की सारी दीवारों को गिरा देने की शक्ति अपने में रखता है।
नयना की बेकरार आंखें भीड में रविभूषण को ढूंढ रही थीं। जब वह बाहर निकली तो रवि धुंये में घिरा अपनी तरफ उसको आता दिखा। वह व्याकुलता से आगे बढी, मगररविभूषण का ठहरा हुआ चेहरा देख कर ठिठक गई। वहां पर अहसास की कोई लकीर न थी, बस औपचारिकतापूर्ण मुस्कान। एक ठण्डा सहाज अन्दाज नयना को परेशान कर गया। सुस्त कदमों से चल वह कार में बैठ गई। जिसको स्वयं रविभूषण चला रहा था। नयना के दिल में कुछ टूटा। मन भटक कर कहीं दूर चला गया। दिमाग रवि के गंभीर चेहरे को देख कर बार बार प्रश्न करने लगा कि क्या यह वही आदमी है जो रात के आखिरी पहर और कभी भोर तक बडी ललक से बातें करता है और दिलो दिमाग़ को उमंगों से भर देता है?
'' आपकी तबियत ठीक है? ''
'' हाँ।''
'' बहुत चुपचुप हैं?''
'' दरअसल दिन को काम में उलझा रहता हूँ सो बात करने का मन नहीं होता ! ''
वह बम्बई जाने की तैयारी करने लगी। नरेन्द्र को बम्बई जाना प्रोफेशनल टूर लगा। इसमें क्या खास बात थी। दोनों ही समय समय पर एक दूसरे से दूर घर से बाहर जाते थे, सो नरेन्द्र ने सुबह नयना को सेफ जर्नी कह बाय बाय किया और नयना ने हमेशा की तरह उसको कुछ हिदायतें दीं और फिर वह पैकिंग में लग गई।
नयना जब नए खरीदे कपडे पहन कर आईने के सामने खडी हुई, तो उसको लगा कि उम्र का साया अभी उसके चेहरे पर नहीं आया है। खुशी ने उसके चेहरे पर चमक ला दी है। इस खयाल से उसकी उत्तेजना बढी क़ि यदि रविभूषण ने उसको रोका और अपने साथ रहने का आग्रह किया तो वह क्या फैसला लेगी? रविभूषण तो साफ शब्दों में कह चुका है कि, तुम बेकार में समय नष्ट कर रही हो, वहां तुम्हारा कोई इंतजार नहीं कर रहा है। यहां मैं हूँ, आओ न - मैं फोन रखता हूँ। तब तक तुम फैसला लो। मैं दस मिनट बाद फोन करुंगा। उसकी इस तरह की बातें छोटी छोटी शिकायतों के जख्म ताजा कर देती और उसको महसूस होता कि उसने अपनी जिन्दगी जी ही कहाँ? कभी बच्चे, कभी पति कभी ससुरालवालेअब मैं अपनी जिन्दगी जी सकती हूँ। रविभूषण वास्तुविद् हैं, जो इमारत बनने से पहले उसका नक्शा खींच, मॉडल के रूप में पूरी इमारत सामने लाने की क्षमता रखता है। वह जिन्दगी का नक्शा भी बडा मजबूत बनायेगा। जिसमें वह अपनी महबूबा के लिये ताजमहल न सही, एक छोटा सा घर तो बना सकता है। जिसको वह अपनी मर्जी से सजा सकती है। नयना ने पूरे विश्वास से होंठों पर लिपस्टिक लगाई और गहरी नजरों से अपने सरापे को ताका। उडान का समय हो गया था।
दिल्ली से बम्बई उडान बहुत कम समय की थी। नयना का मन तेजी से धडक़ रहा था। दो मुलाकातों के बाद घटनायें सम्वेदना के स्तर पर जिस तरह घटीं थीं, सारी मौखिक थीं मगर उसमें जादू था, जो नयना के सर चढ क़र बोल रहा था। कल रात रविभूषण की खुशी का कोई ठिकाना न था, जब उसको पता चला कि नयना ने बम्बई आना तय कर लिया है। उसके स्वर में जो धडक़न थी, उसने नयना को विश्वास दिलाया कि जीवन का अंतिम पहर जैसे रविभूषण के साथ गुजरने वाला है, वही मेरा अंत होगा धीरे से नयना ने कहा और बैग उठा हवाई जहाज़ की सीढियां उतरने लगी। उसको डर था कि रवि को देख कर वह इतनी भावुक न हो उठे कि वहीं हवाई अड्डे पर उससे लिपट जाये। या फिर रवि वहीं सबके सामने उसका चुंबन न ले ले। नयना किसी किशोरी की तरह शर्माई शर्माई सी थी। प्यार किसी भी उम्र में हो उसका अपना तर्क होता है। जो उम्र, जात पात, धर्म, भाषा की सारी दीवारों को गिरा देने की शक्ति अपने में रखता है।
नयना की बेकरार आंखें भीड में रविभूषण को ढूंढ रही थीं। जब वह बाहर निकली तो रवि धुंये में घिरा अपनी तरफ उसको आता दिखा। वह व्याकुलता से आगे बढी, मगररविभूषण का ठहरा हुआ चेहरा देख कर ठिठक गई। वहां पर अहसास की कोई लकीर न थी, बस औपचारिकतापूर्ण मुस्कान। एक ठण्डा सहाज अन्दाज नयना को परेशान कर गया। सुस्त कदमों से चल वह कार में बैठ गई। जिसको स्वयं रविभूषण चला रहा था। नयना के दिल में कुछ टूटा। मन भटक कर कहीं दूर चला गया। दिमाग रवि के गंभीर चेहरे को देख कर बार बार प्रश्न करने लगा कि क्या यह वही आदमी है जो रात के आखिरी पहर और कभी भोर तक बडी ललक से बातें करता है और दिलो दिमाग़ को उमंगों से भर देता है?
'' आपकी तबियत ठीक है? ''
'' हाँ।''
'' बहुत चुपचुप हैं?''
'' दरअसल दिन को काम में उलझा रहता हूँ सो बात करने का मन नहीं होता ! ''
जिंदगी की राहों में रंजो गम के मेले हैं.
भीड़ है क़यामत की फिर भी हम अकेले हैं.