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Adultery नयना
#4
नयना को दूसरे दिन दिल्ली लौटना था। वह लौट आई। सप्ताह भर बाद उसको रविभूषण का फोन मिला। बस यूं ही हालचाल पूछने की नीयत से और नयना को उसका बात करना बुरा नहीं लगा। पांच मिनट की यह बात अगले सप्ताह दस मिनट में बदली तो नयना को कुछ अटपटा सा लगा, बात में वही दोहराव था। औपचारिकता के अतिरिक्त कोई और स्वर की गुंजाईश नहीं थी, क्योंकि वह एक इंटीरियर डेकारेटर जरूर थी, मगर रविभूषण जैसे आर्किटैक्ट से वह क्या बात कर सकती थी? जब तीसरा, चौथा फोन आया, तो नयना सोच में पड ग़ई कि आखिर बिना किसी योजना पर बात किये यह बार बार क्यों फोन कर रहा है! फिर ख्याल गुजरा, शायद उसको कोई बडा प्रोजेक्ट दिल्ली में मिला हो और उस सिलसिले से वह सम्वाद की भूमिका बना रहा हो। आखिर बंबई शहर का मामला है, दो शहर के बीच दूरियां काफी हैं मगर एक प्रोफेशनल को तो साफ साफ बात करना ज्यादा पसन्द आता है, फिर? इस फिर का जवाब नयना के पास नहीं था। वह फोन करने के लिये मना भी नहीं कर सकती थी, आखिर वह देश का सम्मानित वास्तुविद् था और बेहद शालीन स्वर में बातचीत करता था। स्वयं नयना सारे दिन अपने ऑफिस में नए नए लोगों से प्रोजेक्ट को लेकर मिलती थी। आखिर उसका काम ही ऐसा था मगर बिना काम के फोन का मौसम तो कब का बीत चुका है, वह कॉलेज के दिन जब दोस्तों से बातें ही खत्म नहीं होती थीं, उन दिनों के मुकाबले में आज कम्प्यूटर का दौर है, जहां सम्वेदनाओं के लिये समय ही नहीं बचा है।
वह अगस्त का उमस भरा महीना था, जब रविभूषण किसी मीटिंग के सिलसिले में उसके शहर आया था। पता नहीं क्यों नयना ने महसूस किया कि रविभूषण काम का बहाना बना केवल उससे मिलने आया है। दिमाग के इस शक को यह कह कर उसने झटक दिया कि यह बेवकूफी का खयाल उसको टेलीफोन पर होती बातों के कारण आया है, वरना एक व्यस्त आदमी बिना कारण यात्राएं नहीं करता है। मगर वह आँखे उनकी भाषा क्या अलग सी इबारत की तरफ इशारा नहीं कर रही थी? शाम की चाय पीकर जब रविभूषण उसके बंगले से निकला तो पोर्टिको में आन खडी हुई। जाते जाते रविभूषण ने उसकी तरफ मुडक़र देखा और उसने हाथ उठा कर बाय कहा, फिर चौंक कर उसने अपने उठे हाथ के नर्म इशारे को ताका और नजर उठा कर जो रविभूषण की तरफ देखा, तो धक् सी रह गई। उन आँखों में सम्मोहन था। गहरा आकर्षण! उसने हाथ नीचे किया और स्वयं से पूछा, कहीं यह तेरा भ्रम तो नहीं है नयना?

एक रंग, जो मौसम बदलने से पहले हवा में फैलने लगता है, कुछ वैसी ही कैफियत से नयना दो चार हुई। एक खुशी जैसे उसको कुछ मिल गया हो, मगर क्या? इसी उधेडबुन में वह तैरती उतरती प्लाजा की तरफ चल पडी, ज़िसकी सारी सजावट उसी को करनी थी। रास्ते के सारे पेड उसको चमकीली पत्तियों से सजे लगे और शाम ज्यादा गुलाबी जिसमें धुंधलका सुरमई रंग की धारियां जहां तहां भर रहा था। घर लौटते हुए उसको सडक़ की बत्तियां चिराग क़ी तरह जलती लगीं, जैसे छतों पर दीवाली की सजावट घरों को दूर तक रोशनी की लकीरों में बांट देती थीं।
जिंदगी की राहों में रंजो गम के मेले हैं.
भीड़ है क़यामत की फिर भी  हम अकेले हैं.



thanks
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नयना - by neerathemall - 01-11-2021, 04:41 PM
RE: नयना - by neerathemall - 01-11-2021, 04:42 PM
RE: नयना - by neerathemall - 01-11-2021, 04:42 PM
RE: नयना - by neerathemall - 03-11-2021, 03:47 PM
RE: नयना - by neerathemall - 03-11-2021, 03:48 PM
RE: नयना - by neerathemall - 03-11-2021, 03:50 PM
RE: नयना - by neerathemall - 03-11-2021, 03:51 PM
RE: नयना - by neerathemall - 03-11-2021, 03:53 PM
RE: नयना - by neerathemall - 03-11-2021, 03:54 PM
RE: नयना - by neerathemall - 03-11-2021, 03:55 PM
RE: नयना - by neerathemall - 03-11-2021, 03:56 PM
RE: नयना - by neerathemall - 03-11-2021, 03:58 PM
RE: नयना - by aamirhydkhan1 - 13-11-2021, 10:31 AM
RE: नयना - by neerathemall - 10-12-2021, 10:02 AM
RE: नयना - by bhavna - 07-11-2021, 06:07 PM
RE: नयना - by neerathemall - 15-11-2021, 06:52 PM



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