28-10-2021, 04:31 PM
(मैं ज्योति)
मैं अपनी यादों में खोई हुई थी तभी दरवाजा खुला
रश्मि मेरे कमरे में आई और बोली
" तू आज क्या पहन कर जा रही है?"
मैंने उस समय तक कुछ भी नहीं सोचा था मैंने कहा
"तू ही बता ना क्या पहनना चाहिए"
"देख कायदे से तो आज कपड़ों की कोई जरूरत तो है नहीं"
" तो क्या नंगी चली जाऊं"
"हम दोनों हंसने लगे"
रश्मि, राहुल की गर्लफ्रेंड थी और मेरी अच्छी सहेली. मैंने अपनी अटैची खोली और एक सुंदर सा लहंगा चोली निकाल कर उसे दिखाया.
"अरे मेरी लाडो रानी इस ड्रेस में तो दुल्हन के जैसी लगेगी. जीवन तो तुझे इस ड्रेस में देखकर आज ही तेरी मांग में सिंदूर और योनि में वीर्य दोनों भर देगा"
मैं उसे मारने के लिए दौड़ी पर वह कमरे से भाग गयी पर जाते-जाते मेरी जांघों के जोड़ पर एक सिहरन छोड़ गयी.
घड़ी पर नजर पढ़ते ही मैं घबरा गई. दोपहर के 1:00 बज चुके थे. मैंने अपने जरूरी सामान बाल्टी में भरे और भागती हुई बाथरूम की तरफ चली गई. आज नहाते समय मैं अपने स्तनों को महसूस कर रही थी. आज उन्हें भी जीवन के नग्न और मजबूत हथेलियों का स्पर्श मिलना था. अपनी मुनिया के होठों पर आए प्रेम रस को साफ करते समय मुझे अपने कौमार्य का एहसास हुआ. मेरी उंगलियां आज तक जिस मुनिया के अंदर प्रवेश नहीं कर पायीं थी उसे जीवन के मजबूत राजकुमार(लिंग) को अपने आगोश में लेना था. मेरी उंगलियां हमेशा से उसके होठों पर ही अपना कमाल दिखातीं तथा उसके मुकुट को सहला कर मुनिया को स्खलित कर देतीं पर आज का दिन विशेष था. मेरी मुनिया को बहादुरी से अपना कौमार्य त्याग करना था उसके पश्चात आनंद ही आनंद था यह मैं और मेरी मुनिया दोनों जानते थे. हम दोनों ने आज अपना मन बना लिया था.
कुदरत की दी हुई अद्भुत काया में मुनिया को छोड़ कहीं पर भी बाल नहीं थे. मुझे मुनिया के बाल हटाने में थोड़ा ही वक्त लगा. मेरी जाँघे, पैर तथा कोमल हाथ भगवान ने ही वैक्सिंग करके भेजे थे. उनपर एक रोवाँ तक न था.
कमरे में आने के बाद मैंने अपनी अटैची फिर खोली मां की दी हुई पायल और अंगूठी मैंने निकाल ली. आज मैं जीवन के लिए सजना चाहती थी.. मेरे पास गले की चैन के अलावा हॉस्टल में यही दो आभूषण थे. मेरी मां ने मेरे 18 वें जन्मदिन पर अपने गले से चैन उतार कर मेरे गले में डाल दी थी. इस सोने की चैन में हाथी दांत से बना हुआ एक सुंदर लॉकेट था. यह लॉकेट अत्यंत खूबसूरत था. मुझे यह शुरू से ही पसंद था . बचपन में जब भी मैं मां के साथ बाथरूम में नहाती उनका लाकेट छीनने की कोशिश करती . वो कहतीं
"बेटी पहले बड़ी हो जा मैं यह तुझे ही दूंगी तू मेरी जान है" वह पेंडेंट आधे दिल के आकार का था. जब भी वह किसी की नजर में आता अपना ध्यान जरूर खींचता था. मैंने उन्हें पहन लिया. मुझे मां की बात याद आई वह अक्सर त्यौहार के दिन अपने पैरों में आलता लगाया करती थी. मैंने उनसे पूछा था
"मां, यह आलता क्यों लगाती हो? उन्होंने मुझे चूमते हुए बताया
"बेटा, यह अपने सुहाग के लिए लगाया जाता है आलता लगे हुए पैर सुहाग का प्रतीक होते हैं पति को यह अच्छा लगता है"
मेरे मन में आलता को लेकर संवेदना थी. मैं भी अपने पैरों में आज आज आलता लगाना चाहती थी. पर यहां हॉस्टल में आलता मिलना संभव नहीं था. मैंने मन ही मन कोई उपाय निकालने की कोशिश की पर विफल रही. अचानक मेरी नजर मेरे रूम पार्टनर की टेबल पर पड़ी. उसकी टेबल पर लाल स्याही देखकर मेरी नजरों में चमक आ गई. मैंने उसे ही का प्रयोग कर अपने पैर रंग लिए मैं मन ही मन अपनी रचनात्मकता पर खुश होने लगी.
मैं अपनी यादों में खोई हुई थी तभी दरवाजा खुला
रश्मि मेरे कमरे में आई और बोली
" तू आज क्या पहन कर जा रही है?"
मैंने उस समय तक कुछ भी नहीं सोचा था मैंने कहा
"तू ही बता ना क्या पहनना चाहिए"
"देख कायदे से तो आज कपड़ों की कोई जरूरत तो है नहीं"
" तो क्या नंगी चली जाऊं"
"हम दोनों हंसने लगे"
रश्मि, राहुल की गर्लफ्रेंड थी और मेरी अच्छी सहेली. मैंने अपनी अटैची खोली और एक सुंदर सा लहंगा चोली निकाल कर उसे दिखाया.
"अरे मेरी लाडो रानी इस ड्रेस में तो दुल्हन के जैसी लगेगी. जीवन तो तुझे इस ड्रेस में देखकर आज ही तेरी मांग में सिंदूर और योनि में वीर्य दोनों भर देगा"
मैं उसे मारने के लिए दौड़ी पर वह कमरे से भाग गयी पर जाते-जाते मेरी जांघों के जोड़ पर एक सिहरन छोड़ गयी.
घड़ी पर नजर पढ़ते ही मैं घबरा गई. दोपहर के 1:00 बज चुके थे. मैंने अपने जरूरी सामान बाल्टी में भरे और भागती हुई बाथरूम की तरफ चली गई. आज नहाते समय मैं अपने स्तनों को महसूस कर रही थी. आज उन्हें भी जीवन के नग्न और मजबूत हथेलियों का स्पर्श मिलना था. अपनी मुनिया के होठों पर आए प्रेम रस को साफ करते समय मुझे अपने कौमार्य का एहसास हुआ. मेरी उंगलियां आज तक जिस मुनिया के अंदर प्रवेश नहीं कर पायीं थी उसे जीवन के मजबूत राजकुमार(लिंग) को अपने आगोश में लेना था. मेरी उंगलियां हमेशा से उसके होठों पर ही अपना कमाल दिखातीं तथा उसके मुकुट को सहला कर मुनिया को स्खलित कर देतीं पर आज का दिन विशेष था. मेरी मुनिया को बहादुरी से अपना कौमार्य त्याग करना था उसके पश्चात आनंद ही आनंद था यह मैं और मेरी मुनिया दोनों जानते थे. हम दोनों ने आज अपना मन बना लिया था.
कुदरत की दी हुई अद्भुत काया में मुनिया को छोड़ कहीं पर भी बाल नहीं थे. मुझे मुनिया के बाल हटाने में थोड़ा ही वक्त लगा. मेरी जाँघे, पैर तथा कोमल हाथ भगवान ने ही वैक्सिंग करके भेजे थे. उनपर एक रोवाँ तक न था.
कमरे में आने के बाद मैंने अपनी अटैची फिर खोली मां की दी हुई पायल और अंगूठी मैंने निकाल ली. आज मैं जीवन के लिए सजना चाहती थी.. मेरे पास गले की चैन के अलावा हॉस्टल में यही दो आभूषण थे. मेरी मां ने मेरे 18 वें जन्मदिन पर अपने गले से चैन उतार कर मेरे गले में डाल दी थी. इस सोने की चैन में हाथी दांत से बना हुआ एक सुंदर लॉकेट था. यह लॉकेट अत्यंत खूबसूरत था. मुझे यह शुरू से ही पसंद था . बचपन में जब भी मैं मां के साथ बाथरूम में नहाती उनका लाकेट छीनने की कोशिश करती . वो कहतीं
"बेटी पहले बड़ी हो जा मैं यह तुझे ही दूंगी तू मेरी जान है" वह पेंडेंट आधे दिल के आकार का था. जब भी वह किसी की नजर में आता अपना ध्यान जरूर खींचता था. मैंने उन्हें पहन लिया. मुझे मां की बात याद आई वह अक्सर त्यौहार के दिन अपने पैरों में आलता लगाया करती थी. मैंने उनसे पूछा था
"मां, यह आलता क्यों लगाती हो? उन्होंने मुझे चूमते हुए बताया
"बेटा, यह अपने सुहाग के लिए लगाया जाता है आलता लगे हुए पैर सुहाग का प्रतीक होते हैं पति को यह अच्छा लगता है"
मेरे मन में आलता को लेकर संवेदना थी. मैं भी अपने पैरों में आज आज आलता लगाना चाहती थी. पर यहां हॉस्टल में आलता मिलना संभव नहीं था. मैंने मन ही मन कोई उपाय निकालने की कोशिश की पर विफल रही. अचानक मेरी नजर मेरे रूम पार्टनर की टेबल पर पड़ी. उसकी टेबल पर लाल स्याही देखकर मेरी नजरों में चमक आ गई. मैंने उसे ही का प्रयोग कर अपने पैर रंग लिए मैं मन ही मन अपनी रचनात्मकता पर खुश होने लगी.


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