14-10-2021, 01:05 PM
(This post was last modified: 14-10-2021, 01:19 PM by avsji. Edited 2 times in total. Edited 2 times in total.)
“तुम इससे सूसू कैसे करती हो?” छुन्नी की जगह एक चीरे को देखते हुए मैंने अविश्वसनीय रूप से पूछा।
“बैठ कर... ऐसे।” उसने बैठ कर मुझे दिखाया।
मैंने दिलचस्पी से यह देखा। बात तो समझ में आ गई, लेकिन फिर भी, मुझे ऐसा लगा जैसे उसे एक महान अनुभव से वंचित कर दिया गया हो। मेरा मतलब, हम लड़कों को देखो - कहीं भी अपनी गन निकाल कर गोली चला देते हैं! उस सुख का मुकाबला इस चीरे से तो मिलने से रहा! और तो और, आप अपने छुन्नू से सूसू करते हुए दीवार पर चित्र भी बना सकते हैं। काश, लड़कियों को इस तरह का मजा मिल पाता - मैंने सोचा। लेकिन एक बात तो थी - रचना की योनि का दृश्य मंत्रमुग्ध कर देने वाला था। उसके स्तनों की ही भाँति उसकी योनि को देखने के लिए मैं उसके पास आ गया। रचना बैठी हुई थी, और मैं उसकी योनि के सामने आ कर लेट गया। उसकी योनि पर हल्के हल्के, कोमल, रोएँदार बाल थे। मैं उसके इतना करीब था कि मैं व्यावहारिक रूप से उसके बाल गिन सकता था। मुझे बड़ी नाइंसाफी लगी - रचना के बाल थे और मेरे नहीं! उसकी योनि की होंठनुमा संरचना इतनी आकर्षक लग रही थी कि मेरा मन हुआ कि उसको चूम लूँ। लेकिन सूसू करने वाली जगह को चूमा थोड़े ही जाता है!
“इसको क्या कहते हैं?”
“उम्म्म, योनि?”
“हम्म! लण्ड जैसा कोई वर्ड नहीं है इसके लिए?”
“है। लेकिन सुन कर बहुत ख़राब लगता है।”
“क्या है? मुझे बताओ न, प्लीज!”
“चूत कहते हैं!”
“ओह!”
“लेकिन तुम अच्छे लड़के हो। तुम यह वर्ड मत यूज़ करना।”
“ठीक है!”
मैंने देखा कि रचना की योनि के ऊपर वाले हिस्से पर ही बाल थे, उसकी चूत के दोनों होंठों पर कोई बाल नहीं थे। मैं और करीब आ गया। एक गहरी साँस भरने पर मुझे उसके साबुन की महक आने लगी। मन तो बहुत था, लेकिन मैंने उसके गुप्तांगों को छुआ नहीं, क्योंकि मेरे पास ऐसा करने की हिम्मत नहीं हुई। खैर - यह एक बड़ा दिन था मेरे लिए। आज स्त्री और पुरुष के लिंगों के बीच के अंतर का मेरा पहला परिचय था!
“क्या तुमको मालूम है कि छुन्नी किस काम आती है?” उसने पूछा।
“सूसू करने के लिए! और क्या?”
“नहीं, तुम बेवक़ूफ़ हो! केवल सूसू करना ही इसका काम नहीं है!” कह कर वो ठठाकर हँसने लगी।
उसकी हँसी सुन कर अगर माँ आ जातीं, तो न जाने क्या क्या हो जाता! मैं उस उम्र में खुद को सर्वज्ञाता समझता था। इसलिए कोई मुझे ‘बेवक़ूफ़’ कहे, तो मुझे गुस्सा आना तो लाज़मी है!
“अच्छा! तो बुद्धिमान जी, आप ही मुझे बताएं कि इसका क्या काम है?”
“ज़रूर! तुम्हारी छुन्नी यहाँ जाती है…” उसने अपनी योनि के चीरे की तरफ़ इशारा किया।
“क्या? क्या सच में? क्यों?”
“हाँ। बिलकुल! जब ये यहाँ जाता है, तो बच्चे पैदा होते हैं।”
“क्या? बच्चे इस तरह से पैदा होते हैं?”
“हाँ! आदमी अपना बीज अपनी छुन्नी के रास्ते से औरत की योनि में बो देता है। औरत उस बीज को नौ महीने अपनी कोख में सम्हाल कर रखती है। और नौ महीने बाद बच्चा पैदा करती है। तुमको क्या लगा कि और किस तरह से पैदा होते हैं?”
मुझे क्या लगता? मुझको तो इस बारे में कोई भी ज्ञान नहीं था। लेकिन रचना से अपनी हार कैसे मान लूँ?
“तुम को कैसे मालूम?”
“मैंने मम्मी डैडी को ऐसा करते हुए देखा है।”
“वे दोनों ऐसा करते हैं?”
“हाँ!”
“मतलब तुम्हारे डैडी तुम्हारी मम्मी की कोख में अपना बीज बोते हैं?”
“हाँ!”
“लेकिन फिर तुम उनकी इकलौती संतान कैसे हो? अभी तक उनको कोई और बच्चे क्यों नहीं हुए?”
बात तो मेरी सही थी। मेरे तार्किक बयान ने रचना को पूरी तरह से निहत्था कर दिया। यह सच था - रचना अपने घर में इकलौती संतान थी। और अगर उसने जो कहा वह सही था, तो उसके और भाई-बहन होने चाहिए। इसलिए, मेरे हिसाब से बच्चे रचना के बताए तरीके से तो नहीं पैदा होने वाले! मुझे यह असंभव लग रहा था। वैसे भी उसकी योनि के चीरे में कोई जगह ही नहीं दिख रही थी, और न ही कुछ अंदर जाने की जगह! मुझे कोई ऐसा रास्ता नहीं दिख रहा था कि जिसमें से उसकी छोटी उंगली भी अंदर जा सके। छुन्नी तो बहुत दूर की बात है।
मुझ अनाड़ी को यह नहीं मालूम था कि योनि भेदन के लिए लिंग का स्तंभित होना आवश्यक है। बेशक, रचना को मुझसे कहीं अधिक ज्ञान था, लेकिन उसके खुद के ज्ञान और समझ की सीमा थी। इसलिए, जैसा कि अक्सर होता है, अच्छी तरह से जानने के बावजूद, रचना मेरे तर्कों का विरोध नहीं कर सकी। मैं मूर्ख था - मुझे चाहिए था कि मैं रचना से कहूँ कि मैं उसकी योनि में प्रवेश करना चाहता हूँ। लेकिन अपनी खुद की मूर्खता में मैंने इतना बढ़िया मौका गँवा दिया। फिर भी, रचना के यौवन की मासूमियत की अपनी ही खूबी और अपनी ही मस्ती थी, और उसके दर्शन कर के मुझे बहुत ख़ुशी मिली।
बहरहाल, हमारी छोटी सी बहस ने हम दोनों को फिर से होश के धरातल पर ला खड़ा किया, और हमने झट से अपने अपने कपड़े पहन लिए। फिर उसने अपनी किताबें उठाईं और अपने घर चली गई। रास्ते में उसकी मुलाकात मेरी माँ से हुई।
“आंटी, मैंने अमर को दूध पिला दिया है।” उसने जाते जाते माँ से कहा।
मैंने जब उसको यह कहते सुना, तो मुझे अपने कानों पर विश्वास ही नहीं हुआ! क्या उसने सच में ऐसा कहा! रचना की हिम्मत का कोई अंत नहीं था!
“ठीक है बेटा, बाय!” मेरी माँ ने कहा और उसे विदा किया।
***
to be contd.
“बैठ कर... ऐसे।” उसने बैठ कर मुझे दिखाया।
मैंने दिलचस्पी से यह देखा। बात तो समझ में आ गई, लेकिन फिर भी, मुझे ऐसा लगा जैसे उसे एक महान अनुभव से वंचित कर दिया गया हो। मेरा मतलब, हम लड़कों को देखो - कहीं भी अपनी गन निकाल कर गोली चला देते हैं! उस सुख का मुकाबला इस चीरे से तो मिलने से रहा! और तो और, आप अपने छुन्नू से सूसू करते हुए दीवार पर चित्र भी बना सकते हैं। काश, लड़कियों को इस तरह का मजा मिल पाता - मैंने सोचा। लेकिन एक बात तो थी - रचना की योनि का दृश्य मंत्रमुग्ध कर देने वाला था। उसके स्तनों की ही भाँति उसकी योनि को देखने के लिए मैं उसके पास आ गया। रचना बैठी हुई थी, और मैं उसकी योनि के सामने आ कर लेट गया। उसकी योनि पर हल्के हल्के, कोमल, रोएँदार बाल थे। मैं उसके इतना करीब था कि मैं व्यावहारिक रूप से उसके बाल गिन सकता था। मुझे बड़ी नाइंसाफी लगी - रचना के बाल थे और मेरे नहीं! उसकी योनि की होंठनुमा संरचना इतनी आकर्षक लग रही थी कि मेरा मन हुआ कि उसको चूम लूँ। लेकिन सूसू करने वाली जगह को चूमा थोड़े ही जाता है!
“इसको क्या कहते हैं?”
“उम्म्म, योनि?”
“हम्म! लण्ड जैसा कोई वर्ड नहीं है इसके लिए?”
“है। लेकिन सुन कर बहुत ख़राब लगता है।”
“क्या है? मुझे बताओ न, प्लीज!”
“चूत कहते हैं!”
“ओह!”
“लेकिन तुम अच्छे लड़के हो। तुम यह वर्ड मत यूज़ करना।”
“ठीक है!”
मैंने देखा कि रचना की योनि के ऊपर वाले हिस्से पर ही बाल थे, उसकी चूत के दोनों होंठों पर कोई बाल नहीं थे। मैं और करीब आ गया। एक गहरी साँस भरने पर मुझे उसके साबुन की महक आने लगी। मन तो बहुत था, लेकिन मैंने उसके गुप्तांगों को छुआ नहीं, क्योंकि मेरे पास ऐसा करने की हिम्मत नहीं हुई। खैर - यह एक बड़ा दिन था मेरे लिए। आज स्त्री और पुरुष के लिंगों के बीच के अंतर का मेरा पहला परिचय था!
“क्या तुमको मालूम है कि छुन्नी किस काम आती है?” उसने पूछा।
“सूसू करने के लिए! और क्या?”
“नहीं, तुम बेवक़ूफ़ हो! केवल सूसू करना ही इसका काम नहीं है!” कह कर वो ठठाकर हँसने लगी।
उसकी हँसी सुन कर अगर माँ आ जातीं, तो न जाने क्या क्या हो जाता! मैं उस उम्र में खुद को सर्वज्ञाता समझता था। इसलिए कोई मुझे ‘बेवक़ूफ़’ कहे, तो मुझे गुस्सा आना तो लाज़मी है!
“अच्छा! तो बुद्धिमान जी, आप ही मुझे बताएं कि इसका क्या काम है?”
“ज़रूर! तुम्हारी छुन्नी यहाँ जाती है…” उसने अपनी योनि के चीरे की तरफ़ इशारा किया।
“क्या? क्या सच में? क्यों?”
“हाँ। बिलकुल! जब ये यहाँ जाता है, तो बच्चे पैदा होते हैं।”
“क्या? बच्चे इस तरह से पैदा होते हैं?”
“हाँ! आदमी अपना बीज अपनी छुन्नी के रास्ते से औरत की योनि में बो देता है। औरत उस बीज को नौ महीने अपनी कोख में सम्हाल कर रखती है। और नौ महीने बाद बच्चा पैदा करती है। तुमको क्या लगा कि और किस तरह से पैदा होते हैं?”
मुझे क्या लगता? मुझको तो इस बारे में कोई भी ज्ञान नहीं था। लेकिन रचना से अपनी हार कैसे मान लूँ?
“तुम को कैसे मालूम?”
“मैंने मम्मी डैडी को ऐसा करते हुए देखा है।”
“वे दोनों ऐसा करते हैं?”
“हाँ!”
“मतलब तुम्हारे डैडी तुम्हारी मम्मी की कोख में अपना बीज बोते हैं?”
“हाँ!”
“लेकिन फिर तुम उनकी इकलौती संतान कैसे हो? अभी तक उनको कोई और बच्चे क्यों नहीं हुए?”
बात तो मेरी सही थी। मेरे तार्किक बयान ने रचना को पूरी तरह से निहत्था कर दिया। यह सच था - रचना अपने घर में इकलौती संतान थी। और अगर उसने जो कहा वह सही था, तो उसके और भाई-बहन होने चाहिए। इसलिए, मेरे हिसाब से बच्चे रचना के बताए तरीके से तो नहीं पैदा होने वाले! मुझे यह असंभव लग रहा था। वैसे भी उसकी योनि के चीरे में कोई जगह ही नहीं दिख रही थी, और न ही कुछ अंदर जाने की जगह! मुझे कोई ऐसा रास्ता नहीं दिख रहा था कि जिसमें से उसकी छोटी उंगली भी अंदर जा सके। छुन्नी तो बहुत दूर की बात है।
मुझ अनाड़ी को यह नहीं मालूम था कि योनि भेदन के लिए लिंग का स्तंभित होना आवश्यक है। बेशक, रचना को मुझसे कहीं अधिक ज्ञान था, लेकिन उसके खुद के ज्ञान और समझ की सीमा थी। इसलिए, जैसा कि अक्सर होता है, अच्छी तरह से जानने के बावजूद, रचना मेरे तर्कों का विरोध नहीं कर सकी। मैं मूर्ख था - मुझे चाहिए था कि मैं रचना से कहूँ कि मैं उसकी योनि में प्रवेश करना चाहता हूँ। लेकिन अपनी खुद की मूर्खता में मैंने इतना बढ़िया मौका गँवा दिया। फिर भी, रचना के यौवन की मासूमियत की अपनी ही खूबी और अपनी ही मस्ती थी, और उसके दर्शन कर के मुझे बहुत ख़ुशी मिली।
बहरहाल, हमारी छोटी सी बहस ने हम दोनों को फिर से होश के धरातल पर ला खड़ा किया, और हमने झट से अपने अपने कपड़े पहन लिए। फिर उसने अपनी किताबें उठाईं और अपने घर चली गई। रास्ते में उसकी मुलाकात मेरी माँ से हुई।
“आंटी, मैंने अमर को दूध पिला दिया है।” उसने जाते जाते माँ से कहा।
मैंने जब उसको यह कहते सुना, तो मुझे अपने कानों पर विश्वास ही नहीं हुआ! क्या उसने सच में ऐसा कहा! रचना की हिम्मत का कोई अंत नहीं था!
“ठीक है बेटा, बाय!” मेरी माँ ने कहा और उसे विदा किया।
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to be contd.