22-04-2019, 11:04 AM
उसके इस वाक्य पर तो सुमन पानी-पानी हो गई...लाज से मुंह फेरकर उसने भाग जाना चाहा किंतु गिरीश के घेरे सख्त थे। अतः उसने गिरीश के सीने में ही मुखड़ा छुपा लिया।
इस प्रकार–कुछ प्रेम वार्तालाप के पश्चात अचानक सुमन बोली–‘‘अच्छा...गिरीश, अब मैं चलूं।’’
‘‘क्यों?’’
‘‘सब इंतजार कर रहे होंगे।’’
‘‘कौन सब?’’
‘‘मम्मी, पापा, जीजी, जीजाजी–सभी।’’
‘‘एक बात कहूं...सुमन, बुरा-तो नहीं मानोगी?’’
कुछ साहस करके बोला गिरीश।
‘‘तुम्हारी बात का मैं और बुरा मानूंगी...मुझे तो दुख है कि तुमने ऐसा सोचा भी कैसे?’’ कितना आत्म-विश्वास था सुमन के शब्दों में।
‘‘न जाने क्यों मुझे तुम्हारे संजय जीजाजी अच्छे नहीं लगते।’’
न जाने क्यों गिरीश के मुख से उपरोक्त वाक्य सुनकर सुमन को एक धक्का लगा उसके मुखड़े पर एक विचित्र-सी घबराहट उत्पन्न हो गई। वह घबराहट को छुपाने का प्रयास करती हुई बोली–‘‘क्यों भला? तुमसे तो अच्छे ही हैं...लेकिन बस अच्छे नहीं लगते।’’
‘‘सच...बताऊं तो गिरीश...मुझे भी नफरत है।’’
सुमन कुछ गंभीर होकर बोली।
‘‘क्यों, तुम्हें क्यों...?’’ गिरीश थोड़ा चौंका।
‘‘ये मैं भी नहीं जानती।’’ सुमन बात हमेशा ही इस प्रकार गोल करती थी।
‘‘विचित्र हो तुम भी।’’ गिरीश हंसकर बोला।
‘‘अच्छा अब मैं चलूं गिरीश!’’ सुमन गंभीर स्वर में बोली।
गिरीश महसूस कर रहा था कि जब से उसने सुमन से संजय के विषय में कुछ कहा है तभी से सुमन कुछ गंभीर हो गई है। उसने कई बार प्रयास किया कि सुमन की इस गंभीरता का कारण जाने, किंतु वह सफल न हो सका। उसके लाख प्रयास करने पर भी सुमन एक बार भी नहीं हंसी। न जाने क्या हो गया था उसे?...गिरीश न जान सका।
इसी तरह उदास-उदास-सी वह विदाई लेकर चली गई। किंतु गिरीश स्वयं को ही गाली देने लगा कि क्यों उसने बेकार में संजय की बात छेड़ी? किंतु यह गुत्थी भी एक रहस्य थी कि सुमन संजय के लिए उसके मुख से एक शब्द सुनकर इतनी गभीर क्यों हो गई? क्या गिरीश ने ऐसा कहकर सुमन की निगाहों में भूल की। गिरीश विचित्र-सी गुत्थी में उलझ गया। लेकिन एक लम्बे समय तक यह गुत्थी गुत्थी ही रही।
इस प्रकार–कुछ प्रेम वार्तालाप के पश्चात अचानक सुमन बोली–‘‘अच्छा...गिरीश, अब मैं चलूं।’’
‘‘क्यों?’’
‘‘सब इंतजार कर रहे होंगे।’’
‘‘कौन सब?’’
‘‘मम्मी, पापा, जीजी, जीजाजी–सभी।’’
‘‘एक बात कहूं...सुमन, बुरा-तो नहीं मानोगी?’’
कुछ साहस करके बोला गिरीश।
‘‘तुम्हारी बात का मैं और बुरा मानूंगी...मुझे तो दुख है कि तुमने ऐसा सोचा भी कैसे?’’ कितना आत्म-विश्वास था सुमन के शब्दों में।
‘‘न जाने क्यों मुझे तुम्हारे संजय जीजाजी अच्छे नहीं लगते।’’
न जाने क्यों गिरीश के मुख से उपरोक्त वाक्य सुनकर सुमन को एक धक्का लगा उसके मुखड़े पर एक विचित्र-सी घबराहट उत्पन्न हो गई। वह घबराहट को छुपाने का प्रयास करती हुई बोली–‘‘क्यों भला? तुमसे तो अच्छे ही हैं...लेकिन बस अच्छे नहीं लगते।’’
‘‘सच...बताऊं तो गिरीश...मुझे भी नफरत है।’’
सुमन कुछ गंभीर होकर बोली।
‘‘क्यों, तुम्हें क्यों...?’’ गिरीश थोड़ा चौंका।
‘‘ये मैं भी नहीं जानती।’’ सुमन बात हमेशा ही इस प्रकार गोल करती थी।
‘‘विचित्र हो तुम भी।’’ गिरीश हंसकर बोला।
‘‘अच्छा अब मैं चलूं गिरीश!’’ सुमन गंभीर स्वर में बोली।
गिरीश महसूस कर रहा था कि जब से उसने सुमन से संजय के विषय में कुछ कहा है तभी से सुमन कुछ गंभीर हो गई है। उसने कई बार प्रयास किया कि सुमन की इस गंभीरता का कारण जाने, किंतु वह सफल न हो सका। उसके लाख प्रयास करने पर भी सुमन एक बार भी नहीं हंसी। न जाने क्या हो गया था उसे?...गिरीश न जान सका।
इसी तरह उदास-उदास-सी वह विदाई लेकर चली गई। किंतु गिरीश स्वयं को ही गाली देने लगा कि क्यों उसने बेकार में संजय की बात छेड़ी? किंतु यह गुत्थी भी एक रहस्य थी कि सुमन संजय के लिए उसके मुख से एक शब्द सुनकर इतनी गभीर क्यों हो गई? क्या गिरीश ने ऐसा कहकर सुमन की निगाहों में भूल की। गिरीश विचित्र-सी गुत्थी में उलझ गया। लेकिन एक लम्बे समय तक यह गुत्थी गुत्थी ही रही।
जिंदगी की राहों में रंजो गम के मेले हैं.
भीड़ है क़यामत की फिर भी हम अकेले हैं.