30-08-2021, 08:02 AM
मेरी पहली अक्षतयोनि
मै अब 60 वर्ष के ऊपर का हो गया हूँ और भगवान की बड़ी कृपा रही है कि मुझे अभी तक कामुकता आकर्षित करती है। 21 वी शताब्दी के नए खुले वातावरण के भारत मे आज भी संभोग परमानंद देता है और काम क्रीड़ा के विविध आयामों का अनुभव प्राप्त होता रहता हूँ। मुझे,आज इस चोदन जीवन मे प्रवेश किये करीब 45 वर्ष हो गये है और विभिन्न उम्र की 70 से ज्यादा स्त्रियां(षोडशी से लेकर नानी दादी) इस सुखद व रमणीय यात्रा में मेरी सहयात्री रही है। मैं आज भी इन सबको नमन करता हूँ और उनके प्रति अनुग्रह का भाव रखता हूँ। मैं मूलतः किन्ही अन्य विषयों का लेखक हूँ लेकिन मैंने जब भी मैने वासना, कामुक जीवनशैली व यौन क्रीड़ा पर लिखा है, वह अपने जीवन और मेरे वातावरण में हुई सत्य घटनाओं को ही लिपिबद्ध किया है। वैसे तो एक लेखक को कल्पनाशील माना जाता है और वह अपनी कल्पना से कुछ भी चरित्र और घटना लिख सकता है लेकिन इस विषय मे कल्पना कर लिखने की क्षमता से मैं दरिद्र हूँ। आज जो लेखन प्रस्तुत कर रहा हूँ वह मेरे जीवन का पहला था। जैसे कोई अपना प्रथम प्रेम नही भूलता वैसे ही कोई अपनी पहली चुदाई नही भूलता है। मेरे जीवन की पहली स्त्री और पहली बार चुदाई के बारे में फिर कभी मन आया तो लिखूंगा लेकिन आज जिसके बारे में लिख रहा हूँ वह मेरी पहली अक्षतयोनि थी वह मेरी पहली कुंवारी थी। वह मेरी पहली कुंवारी लड़की थी जिसका कौमार्य मैंने भंग किया था। जैसा कि ऐसे आत्मकथ्यात्मक लेखन में होता है, पात्र व स्थान के नाम, दोनो ही काल्पनिक है।
यह घटना 1970 दशक के आखरी वर्षों कि है, जब मै ग्रेजुएशन कर रहा था। मेरे यूनिवर्सिटी पहुंचते पहुंचते, मुझे स्त्री समागम व काम क्रीड़ा का अनुभव पहले से ही हो चुका था इसलिए एक छूटे सांड की तरह लड़कियों को पटाने व उनको चोदने की मानसिकता अंदर घर कर गई थी। मेरे अंदर यह वासनात्मक इच्छा तो थी लेकिन एक व्यवहारिक दिक्कत भी थी। मैं जिस शहर में रह रहा और पढ़ाई कर रहा था, वह कोई बड़ा शहर नही था। मै और मेरा परिवार, शहर में काफी जाना पहचाना हुआ था, इसलिए बिना पूरा भरोसा किये किसी से प्रणय संवाद या रोमांस के प्रति लालायित करना बड़ा टेढ़ी खीर था।
ऐसे में, मेरे ऐसे लड़को को अपनी लालसा के लिए अपने वातावरण के परिवेश में ही प्रयास करना पड़ता है। हम लोग जिस घर मे रहते थे उससे लगे हुए घर मे एक परिवार रहता था। परिवार में केवल पति पत्नी व एक छोटा बच्चा था और उनकी कुछ वर्षों पूर्व ही शादी हुई थी। वे लोग बहुत बढ़िया व मिलनसार लोग थे। इसी कारण, हमारे दोनों परिवार के बीच काफी घनिष्ठता थी। मै उन लोगो को भईया और भाभी कह कर संबोधन करता था। मेरे इन भाई साहब का ससुराल भी उसी शहर में ही था इसलिए उनके ससुराल के सारे सदस्यो का निरंतर आना जाना लगा रहता था। कालांतर में, उनके ससुराल के सदस्यों के साथ मेरे परिवार का भी काफी घुलना मिलना हो गया था। उनमे से एक लड़की थी, जिसका नाम सारिका था। वह भईया कि साली थी। भईया भाभी, सारिका के जीजा, दीदी थे। वह मेरी छोटी बहनो के साथ कि ही थी लेकिन कॉलेज अलग था। जैसा कि उस काल के सामाजिक परिवेश होता था, दोनो ही घर में काफी आना जाना था और बाते भी होती थी। सारिका, मुझे भईया कहती और रक्षा बंधन में राखी भी बांधती थी। आज भी, मैं बड़ी सत्यनिष्ठा से कह सकता हूँ कि मेरे अंदर सारिका को लेकर कभी कोई वासनात्मक विचार नही रहा था। लेकिन जीवन में कुछ ऐसे क्षण सामने आजाते है, जहां व्यक्ति उस मार्ग पर चल पड़ता है जिस पर चलने की उसने कभी सोची भी नहीं होती है।
मेरे उस क्षण का प्रारम्भ होली के दिन से हुआ था। मै अपने दोस्तों के साथ होली खेलने के लिए अपने घर तैयार बैठा था और उन सबके आने की प्रतीक्षा कर रहा था कि तभी भईया के ससुराल वाले आगये। वे लोग भईया के यहाँ होली खेलने लगे और मेरे माता पिता व बहने भी, उन्ही के यहाँ, उन लोगो के साथ होली खेलने चले गए। वहां हुड़दंग होता देख कर, मैं भी औपचारिकता निभाने के लिए वहां चला गया। वहां देखा तो सब गीली होली खेल रहे थे तो मैं वहां से खिसक कर, बाहर बरामदे में आ गया क्यों कि मुझे अभी इतनी जल्दी भीगने का बिलकुल भी मन नहीं था। मै वही बरामदे में खड़े, बाहर गेट कि तरफ टकटकी लगाये हुये, अपने दोस्त का इंतज़ार कर रहा था कि तभी मेरे ऊपर किसी ने पीछे से रंग कि पूरी बाल्टी डाल दी। अचानक हुई इस घृष्टता से मै अचकचा गया और क्रोध से पीछे मुड़ कर देखा तो सारिका खी खी खी कर के हंस रही थी और चिल्ला रही थी, 'भईया होली है! बुरा न मनो होली है'! मेरा बहुत तेज़ दिमाग ख़राब हुआ लेकिन खिसिया कर हंस भी दिया, आखिर होली है, कब तक मै सजा धजा बचा रहूंगा! मैंने हंसते हुए कहाँ,
''सारिका यह तो बदमाशी है, थोडा रंग लगा देती, मुझे पूरा गीला कर दिया और अभी ठीक से दिन भी नहीं शुरू हुआ है! चल अब तेरी खैर नहीं"
सारिका मुझे चिढ़ाती हुई, हंसते हुए अंदर भाग गयी। उसके जाने के बाद, मैं अपने हांथो में बैगनी रंग लगा कर उसके पीछे गया। मै बदला लेना चाहता था, उसको गंदी तरह पोतना चाहता था। मुझे आता देख, सारिका मेरा मनमंतुर समझ गई और इधर उधर भाग कर, छिपी जारही थी। आखिर में, मैंने उसको ड्राइंग रूम के बाहर वाले आंगन में दबोच लिया। वह न न न करती रही लेकिन फिर भी मैंने उसको जकड़ कर, उसके चेहरे पर रंग पोत दिया। मैंने जब उसको छोड़ा तो वह पक्की भूतनी लग रही थी। मैं उसकी दशा देख कर हंसने लगा और पलट कर चल दिया। तभी पता नही कहाँ से उसने रंग निकाला और पीछे से आकर मेरे मुँह पर रंग लगाने के लिए उचकी। वो ठीक से रंग लगा भी नही पाई थी की इससे पहले ही मैंने उसको पकड़ लिया और उसके ही हाथो से उसका चेहरा रंग दिया। इस छीना झपटी में वह जब कसमसाने लगी तो मैंने उसको दीवार के सहारे सटा दिया। उसी क्षण कुछ ऐसा हुआ की मैंने अपने शरीर का भार उस पर ड़ाल कर उसे दीवार पर पूरी तरह से चिपका दिया और उसकी चुचिया मेरे सीने से लग कर, दब गई। तभी मेरी आँखें उसकी आँखों से मिली और मैंने हलके से उस पर अपनी पकड़ छोड़ दी। सारिका, वही दीवार के सहारे खड़ी रही और उसने अपनी आंखे झुका ली। मैं, जब उसको ऐसा चुप देख कर अलग हुआ, तो न जाने किस उन्माद में, मैंने उसकी चुचियो को मसल डाला। मेरी इस दुस्साहस पर वह चिहुंक उठी और वहां से भाग, अंदर घर मे चली गई। मैंने सारिका के साथ घृष्टता तो कर तो दी लेकिन जब अपने किये गए कृत का इन्द्रियबोध हुआ तो मेरी हालत ख़राब होगई। मैं डर गया था। सारिका कहीं किसी से मेरी शिकायत न कर दे, यह सोंच कर चिंतित हो उठा था। मैं, उसके बाद घर से ऐसा निकला कि 3 बजे ही लौटा, जब सब नहा धो, खाना खा कर, थक कर सो गए थे।
होली की पूरी शाम मेरे लिए बड़ी यातनापूर्ण थी। जब भी कोई फोन आता या घर आता तो यही खटका लगा रहा कि कोई मेरी शिकायत करने आया है। इसी यंत्रणा में जब 2/3 दिन गुजर गए और किसी ने सारिका के साथ जो मैंने किया था, उस पर कोई बात नही की तो मैं समझ गया की सारिका ने होली वाले दिन में जो हुआ, उसके बारे में किसी को नहीं बताया है। मैं अब सारिका को लेकर आश्वस्त हो गया था और उसके मौन से मेरी हिम्मत खुल गयी थी। सारिका का अपने जीजा और दीदी के आना बराबर बना हुआ था लेकिन एकांत में उससे बात करने का मुझे कोई अवसर नही मिल रहा था। कुछ दिनों के बाद, सारिका मुझे अकेले में मिल गई। वह अपनी दीदी से मिलने, सीधे कॉलेज से चली आयी थी लेकिन भाभी घर पर नही थी। सारिका, घर मे ताला पड़ा देख कर मेरी छोटी बहन से मिलने मेरे घर चली आई थी। उस वक्त मेरी बहन, कॉलेज से आकर, बाथरूम में मुँह हाथ धो, कपडे बदल रही थी। सारिका मुझे कमरे में अकेले खड़ी हुई मिल गई। मैंने पीछे से आकर उसकी पीठ पर अपना हाथ रक्खा और पीछे से ही उसकी गर्दन पर ओंठ रख, चूम लिया। मेरे पीछे से आकर ऐसा करने से उसके मुंह से चीख निकल गई। उसने हड़बड़ा कर पीछे देखा और मुझ को वहां खड़ा पाकर कहा,
"भैया क्या है! यह सब म़त करिए, क्या कर रहे है! कोई देख लेता तो?'
मैंने वही पर, उसका मुंह अपनी तरफ पूरा मोड़ कर, उसके ओठों पर अपने ओंठ रख दिये और एक हाथ से उसकी कॉलेज ड्रेस वाली ब्लाउज के उपर से, उसकी बड़ी हो रही कड़ी कड़ी चुंचियो को दबाने लगा और साथ में, 'आई लव यू' 'आई लव यू' बोलने लगा। वह एक दम से घबड़ा गई और उसकी आंखें फैल गई। वो छटपटा रही थी और उसकी चौड़ी होती हुई आंखे, बराबर मेरी बहन की आहट में, दरवाजे की तरह बार बार देख रही थी। मैं करीब1 मिनट तक उसके ओंठो और गालों को चूमता रहा और उसकी चुंचियो को ऊपर से ही सहलाता रहा। मेरा शरीर पीछे से उससे सटा हुआ था। मेरा पैंट के अंदर खडा होता हुआ लंड, उसकी स्कर्ट के ऊपर से उसके चूतड़ों पर रगड़ रहा था। मैने ज़ब उसके ब्लाउज के अंदर हाथ डाल कर उसकी चुंचियो को छूने की कोशिश की तो वो मुझसे अपने आप को छुड़ा कर भाग गई।
इसी तरह मुझे ज़ब भी मौका मिलता, मैं उसको एकांत में छेड़ देता और अवसर मिलने पर, उसके ओंठो को चूम लेता और वयस्क हो रही चुंचियो से खेल लेता। सारिका ने उस दिन के बाद से कभी भी मुझे नही रोका, वह बस किसी के आजाने या देख लेने के प्रति सशंकित रहती थी। कुछ ही महीनों में सारिका, धीरे धीरे मुझ से और भी खुलने लगी। अब सिर्फ मैं ही एकांत के अवसर नही ढूंढता था बल्कि सारिका भी ऐसे अवसरों की उपलब्धता के प्रति सचेत व उसकी प्रतीक्षा करती थी। एक दिन ऐसा भी अवसर हाथ लगा की मुझे उसके साथ थोड़ा ज्यादा समय एकांत मिल गया। उस दिन, मैंने पहली बार उसके कॉलेज ड्रेस के ब्लाउज को ऊपर कर के, उसकी चूंचियों को बाहर निकाल कर चूसा। उसकी अल्हड़ चूंचिया बहुत ही कड़ी और मस्त थी। मेरे पहले ओंठ थे जिन्होंने उसे चूसा था। उसके घुंडीया बड़ी नोकीले व उसकी चुंचियो में काफी भराव था। मेरे उस चूसने से सारिका सिसयागयी और बदहवास सी हो गई थी। मैं जितना ज्यादा से ज्यादा उसकी चुंचियो को अपने मुंह मे समेट कर चूसने का प्रयास कर रहा था उतना ही उसकी गर्दन टेढ़ी होती जारही थी और अपने हाथों से मेरे मुँह को उसकी चुंचियो से हटाने का प्रयास कर रही थी। लेकिन मुझ पर उसका कोई प्रभाव नही पड़ रहा था। मैं एक हाथ से उसकी एक चुंची को दबा और उसकी घुंडीयों को रगड़ रहा था तो दूसरी चुंची और उसकी घुंडी को चूस रहा था। मै कोई 1 वर्ष बाद किसी लड़की के साथ, इस अवस्था तक पहुंचा था, इस लिए मेरे दिमाग में केवल उसको चोदने के आलावा कोई भी बात नही घूम रही थी। मैंने उस दिन अपने हाथ उसकी स्कर्ट के अंदर भी डालने का प्रयास किया था लेकिन उसने मेरे हाथ पकड़ लिये थे। समय ज्यादा न होने के कारण मैने भी कोई उससे कोई जिद्द नही की। उस दिन के बाद से जब भी मौका लगता था सारिका, मुझ को अपनी चूंचियों से खेलने देती और मै भी पैंट के ऊपर से ही अपने लंड को उसकी स्कर्ट के ऊपर से ही उसके चूतड़ों और उसकी चूत पर रगड़ देता था।
एक दिन वह अपने जीजा और दीदी के यहां आई तो मेरे घर मे नौकर के अलावा कोई नही था। मुझे यह मालूम था कि अभी कुछ समय तक मेरे घर मे कोई नही होगा तो मैं भईया के घर चला गया और सारिका को मेरे घर आने का इशारा किया। सारिका 10 मिनिट बाद मेरे घर आई तो मैंने उसे बताया कि अभी कोई घर वापस नही आएगा और उसे मैं खींच कर, स्टोर रूम में ले गया। मैंने स्टोर रूम की लाइट नही जलाई थी, उसे उस अंधेरे में ही गले लगा कर चूमने लगा। मैने उसका ब्लाउज और ब्रा ऊपर कर के उसकी चुंचियो को निकाल लिया और अपनी जीभ उस पर घुमाने लगा। वो मेरी तरह पूरी तरह वासनामय हो चुकी थी। तभी मैंने अपनी पेंट की जीप खोल कर लंड निकाल लिया और उसके हाथ पर रख दिया। वहां अँधेरा था इसलिए जब मैंने उसका हाथ पकड़ कर उसको अपने लंड पर ले जाने लगा तो कोई झिझक नही दिखाई लेकिन जैसे ही उसने अपने हाथ में मेरा लंड महसूस किया तो वो कूद पड़ी। भरी जवानी का मेरा भन्नाया लंड, बिलकुल सख्त और गर्म था। एक बारगी तो सारिका ने अपना हाथ ही लंड हटा दिया था, फिर बड़ी मुश्किल से मैने उसे मनाया और उसके हाथ को पकड़ कर, अपना लंड को पकड़ा दिया। जैसा की मेरा अनुमान था, जैसे जैसे मै सारिका को चूमने और उसकी चूंचियों को दबाने लगा, वह भी मेरे लंड को अपनी उंगलियों से आहिस्ते से दबाने लगी। उस दिन से बाद से सारिका का लंड से डर खत्म हो गया और मौके बे मौके वो मेरे लंड को कभी पैंट से निकाल कर या ऊपर से ही सहलाने लगी थी।
मेरे और सारिका के बीच हो गए इस प्रणय सम्बंध को करीब 7/8 महीने हो चुके थे और एक दिन वह अपनी दीदी से मिलने उनके आई। वह रविवार का दिन था और मेरी बहनों के कॉलेज का वार्षिकोत्सव था। उस समारोह को देखने मेरे घर के सभी लोग गये थे। सारिका जब आई तो वह मुझे घर के बाहर गेट पर ही मिल गई। मैंने इशारे से उसको अपने पास बुलाया तो वह बोली,
''दीदी के पास जा रही हूँ''।
मैंने कहा,
'बाद में मिल लेना, अभी यहाँ आजाओ''।
वह एक बार रुकी, इधर उधर देखा और तेजी से वह अन्दर आगई। वह जब अंदर आगई तब मैंने सारिका से कहा,
"आज कोई नहीं है घर पर, सब कॉलेज के वार्षिकोत्सव में गए है और नौकर भी गांव गया है"।
मैने उसके बाद, आगे बढ़ कर जब सिटकनी लगा कर दरवाजे को बन्द किया तो सारिका थोडा सा घबडा गई थी। मैंने उसको हिम्मत देते हुये उसकी पीठ सहलाई और उसके गालों को चूम लिया। कुछ पलों बाद उसकी घबड़ाहट कम हो गई और मेरी बाहों में झूल गई। मैंने उसके ओठों को अपने ओठों में ले लिया और उन्हें आहिस्ता आहिस्ता चूसने लगा। सारिका उस दिन टॉप और स्कर्ट पहन कर आई थी। मैं उसको अपनी बांहों में लेकर उसे अंदर अपने कमरे में ले गया और अपने बिस्तर पर बैठा दिया। मैं आज, एकांत को लेकर इतना आश्वस्त था कि मैं बड़े इत्मीनान से बारी बारी से उसके गालो, ओठों, गर्दन, माथे और कानो का चुम्बन ले रहा था। मैं एक हाथ से उनको कंधे को जकड़े था और दूसरे हाथ से उसकी टॉप ऊपर कर रहा था। उसकी टॉप ऊपर होने पर, उसकी चुंचियो को बाहर निकालने की जगह मैंने आज, पीछे ऊँगली डाल कर, उसकी ब्रा का हुक भी ख़ोल डाला। सारिका जानती थी कि आज घर पर कोई भी नहीं हैं इसलिये उसने उसकी ब्रा खोले जाने पर मुझे नही रोका।मैं उसकी नग्न चुचियों को दबाने और चूसने लगा। उसकी चुंचिया मेरे स्पर्श से और तन गई थी। मैं उसकी जमुनिया घुंडीयों को अपनी उंगलियों के बीच लेकर रगड़ने लगा। बहुत प्रतीक्षा के बाद, सारिका उस स्थिति में मिली थी जिस स्थिति की कल्पना कर के मैं मुट्ठ मारता रहता था। सारिका के अछूते नग्न शरीर का सान्निध्य, मुझे काम पीड़ा से जला रहा था। मेरा धैर्य जवाब दे रहा था और अंडरवियर में बन्द मेरे लंड की हालत भी ख़राब हो रही थी।
हम लोगो को इससे पहले कभी भी इतना सुकून से मौका नहीं मिला था इसलिये किसी प्रकार का विघ्न पड़ जाने का बोझ भी नही था। सारिका मेरे बगल में, कमर से ऊपर नंगी, मुझसे चिपकी बैठी थी। वो मेरे हाथों से दब रही चुंचियो और मेरे ओंठो से चूसे जारही घुंडीयों पर पूरी मादकता में कामुक स्वर निकाल रही थी। उसकी आवाज़ में भर्राहट थी और जब भी मेरे ओंठ उसकी घुंडीयों को कस के चूसते या मेरी उंगलियां उनको रगड़ती, वह सिसक जाती थी। सच यह था कि वासना के मद में हम दोनों ही अपनी चेतना खो रहे थे। मैंने अपनी बुशर्ट और बनियाइन उतार दी और अपने नंगे सीने को उसकी नंगी चुंचियो से चिपका कर रगड़ दिया। मैंने अपनी अब अपनी पैंट कि ज़िप को खोल कर अपना लंड निकाल लिया और उसके हाथ में उसे रख दिया। सारिका ने मेरी तरफ अधखुली आंखों से देखा और उसे ऊपर नीचे कर के सहलने लगी। हम दोनों एक दूसरे से चिपटे हुए, एक दूसरे को चूम चाट रहे थे की मैंने हिम्मत दिखाते हुए अपना दाहिना हाथ, पहली बार उसकी जांघो को सहलाते हुये स्कर्ट के अंदर डाल दिया। मेरे ऐसा करने पर वो सिहर कर मुझसे कस के लिपट गई और बोली," प्रशांत भैया! मत करो प्लीज"! मैंने उसके अगले बोल, उसके ओंठो पर अपने ओंठ रख कर बंद कर दिए और मेरी उंगलिया उसकी चूत को पैंटी के उपर से छूने लगी। सारिका कसमसाई और थोडा असहज हुई तो मैंने उसको कस के ओंठो को चूमते हुए, बिस्तर पर जोरे देकर लेटा दिया। उसके लेटने पर उसकी स्कर्ट उपर हो गई और उसकी सफ़ेद पैंटी दिखने लगी। मैंने उसको जोर से अपने शरीर से चिपटा लिया और अपना हाथ उसकी पैंटी में ड़ाल कर, उसकी चूत को अपने हाथ से दबा लिया।
वह अपनी दोनो जांघों को दबाते हुए, एक दम से मुझसे कस के चिपक गई। उसकी चूत पर हलके से बाल थे और वह बिलकुल गर्म हो रही थी। मेरी उंगलियां उसकी कुंवारी चूत के अंदर जाने का प्रयास कर रही थी, जो बिल्कुल कसी हुई थी। मेरी उंगली उसकी चूत की फांको को फैला, ज्यादा नही घुस पारही थी लेकिन उसने चूत के अंदर के गीलेपन को जरूर महसूस कर लिया था। मैंने उंगलियों से उसकी पैंटी को नीचे करनी चाही तो उसने कांपते हुई आवाज़ में मुझसे कहा,
''भैया यह म़त कीजिये, कोई आ जायेगा।"
मैंने उसे पुचकारते हुये कहा,
''कोई नहीं आयेगा सारिका, बार बार ऐसा मौका नहीं मिलता है। मैं तुमसे बहुत प्यार करता हूँ और जानता हूँ कि तुम भी मुझको बहुत प्यार करती हो। प्लीज सारिका आज मत रोको।"
इतना कह कर मैं उसकी चूत को रगड़ने लगा। उसके मुंह से ओह! ओह! उफ्फ! की आवाजे निकलने लगी थी और उसकी आँखे मुंदी जारही थी। उसने आकुल हो कर, विचलित सी आवाज मे कहा,
''कुछ और म़त करना भैया।"
मैंने उसकी चूत को सहलाते हुये पुछा,
''और क्या नहीं करना है?"
वह लजा गई और अपना मुँह मेरे सीने में छुपा लिया। मैंने अब उसकी चूत में आहिस्ते से दबाव बना कर, अपनी ऊँगली ड़ाल दी और वह जोर से झिटक गई। मैंने उसको फिर अपने अंदर समेटते हुये, धीरे से उसके कान में फुसफुसा कर फिर वही सवाल पूछा, तो उसने सुगबुगाते हुये कहा,
''वही जो दीदी करती हैं।''
उसके उत्तर से मैं मस्ती में आगया और पूंछा,
''तुमने क्या दीदी को करते हुए देखा है?''
उसने जब सर हिलाकर हां कहा तो यह देख कर मै आवेशित हो गया और कस कर उसकी चुंचियो को चूसने और चूत को रगड़ने लगा। वह अब निढाल होकर, मेरे हर हरकत का आँख बंद कर के आनंद लेने लगी थी। वो कामुकता के ज्वार में बही जारही थी। मैंने तभी मौका देख कर अपनी पैंट और अंडरवियर एक साथ उतार दिया और अपने नंगे शरीर को सारिका से लिपटा लिया। मेरे नग्न शरीर की गर्मी उसको लगी तो उसने एक क्षण के लिए अपनी आंखे खोली और मुझे नंगे देख, उसकी आंखें फटी की फटी रह गई। मैं पहला पुरुष था जिसको उसने संपूर्ण रूप से नग्न देखा था। सारिका ने मेरी नग्न काया देख कर अपनी आंखें मूंद ली थी। मै उसको सहलाते हुये अपने हाथ नीचे ले गया और जब तक वह उठ कर मना करती मैंने उसकी पैंटी को खींच कर उसकी टांगो से बाहर निकाल दिया। उसकी नंगी जांघे और जरा से बालो से अधछूपी नंगी चूत देख कर मै अपने को रोक नहीं पाया और उसके उपर चढ़ कर, अपने शरीर को सारिका के शरीर से रगड़ने लगा।
हमारे शरीर आपस मे रगड़ रहे थे। मैं साथ में उसको चूमता भी जारहा था, मेरे हाथों से उसकी चूंचियां मसली जारही थी। मेरा लाल सुपाडे का गर्म लंड, उसकी चूत और जांघों से रगड़ खा रहा था। उतेजना में, मेरे लंड से मदन रस निकल रहा था जो उसकी जांघों पर लसा जारहा था। सारिका, मेरे लंड के गर्म व गीले स्पर्श से बावरी हुई जारही थी। उसके मुँह से लगातार सिसकारी निकलने लगी थी। मैने उसकी यह हालत और संपूर्ण समर्पण देख कर, उसकी स्कर्ट का हुक खोल दिया और उसके शरीर से अलग कर दिया। मैं जब उसकी स्कर्ट उतार रहा तो वह रोक रही थी लेकिन उसके रोकने का प्रयास बिल्कुल आलस्य वाला था। मैंने अब ज्यादा विचार करने और प्रतीक्षा किये जाने पर विराम लगाया और उसकी टांगो की बीच घुस कर अपने लंड को उसकी चूत पर रख दिया। वह मेरे लंड का सुपाड़ा अपनी चूत पर पाकर बिदक गई और मेरे नीचे से निकलने की कोशिश करने लेगी और साथ कहती जा रही थी,
'' भैया यह म़त करो! में मर जाऊंगी!''
मैंने उसको कंधे से बिस्तर पर दबा, शरारती स्वर में उससे पुछा,
''क्या नहीं करू?"
सारिका बोली,
''आप जानते हो भैया, प्लीज आगे मत करो।''
मैंने थोडा सा ठील देते हुये उससे कहा,
''बोलो ना सारिका, मेरी कसम।''
तब उसने लजाते हुये कहा,
''जीजा जी, जो दीदी के साथ करते हैं।''
मैंने कहा,
''मालूम हैं, उसे क्या कहते हैं।''
उसने कहा,
''सेक्स।''
उसका उत्तर सुन कर मैंने उसे कस के चिपका लिया और कामुक स्वर में कहा,
''उसको चुदाई कहते हैं, जो हर प्यार करने वाला करता हैं।"
इसके बाद मैंने अपना लंड उसकी चूत से हटा लिया और उसकी नाभि और पेट को चूमने लगा। वह अब शांत हो कर, आंख बंद करके लेट गयी थी। उसको सहज होता हुआ देख मेरी थोड़ी हिम्मत बढ़ी और उसके पैर फेलाकर, उसकी चूत पर अपना मुँह रख दिया। जैसे ही मैंने अपनी जीभ से उसकी चूत को चाटा, वो ईईईईईईए छीछी कर के चिल्ला पड़ी। मैंने उसको अनसुना कर दिया क्योंकि मुझमें चूत चूसने की प्रवृत्ति नर्सीगिक रूप से थी। मुझे चूत की महक उसका स्वाद, उसका अपनी जीभ पर स्पर्श , भावविभोर कर देता है। मैंने उसकी चूत को चाटना शुरू कर दिया और अपनी जीभ को उसकी कुंवारी चूत में डाल कर अंदर की मांसलता के स्पंदन को अपनी अंतरात्मा में संग्रहित करने लगा था। सारिका की चूत, मेरी पहली कुंवारी चूत थी, जिसका रसास्वादन मै कर रहा था। उसकी गमक मेरे नथुनों से अंदर तक समां गयी थी। मेरी जीभ जब उसकी भगांकुर(क्लिट) को रगड़ रही थी तब उसके पैर बिलकुल ही ढीले पड़ गये थे। मैंने तब उसके चूतड़ों के नीचे तकिया लगा दिया, जिससे उसकी चूत उपर उठ कर, सामने आगई थी। मैं अपने लंड और सुपाडे पर निविया की क्रीम लगाकर, उसकी चूत पर रख कर, उसके भगांकुर पर रगड़ने लगा। तब उसने कहा,
''भैया, इसको अंदर म़त करना, बहन हूँ, राखी बांधती हूँ।"
सारिका ने एक ऐसी भावनात्मक बात कह दी थी की एक क्षण मेरे अंदर का संस्कारी पुरुष जागृत हो गया था लेकिन दूसरे ही क्षण मेरे अंदर का प्रकृतिस्त्व आदम का कामोन्माद, संस्कार पर भारी पड़ गया और मैने अपना लंड उसकी चूत पर रगड़ते हुए, उसको पुचकारते हुए कहा,
'सारिका, तुम मेरी सबसे प्यारी बहन हो। हम दोनों एक दुसरे को प्यार करते हैं। ऐसा तो कई बहिन भाई करते हैं।" फिर उसकी दोनो आंखों को चूमते हुये कहा, "सारिका मेरी जान, इतने दिनों से हम लोग भी तो, इसके अलावा सब कुछ कर रहे थे।"
फिर, मैंने उसका एक हाथ अपने लंड पर रख दिया और उसकी संवेदनशील घुंडीयों को चूसने लगा। मेरे लंड से मदन रस निकल रहा था और सुपाड़ा क्रीम और मदन रस से गिला हो गया था और वह उसके हाथ में लगने लगा था। मै थोडा उठा और बिस्तर पर पड़े अंडरवियर से उसका हाथ पोछ दिया। उसके बाद अपने लंड पर फिर क्रीम लगाई और ऊँगली से उसकी चूत में भी लगा दिया। अब तक उसका और मेरा दोनो का ही हाल बेहाल हो चुका था। मैंने उसका चेहरा अपने दोनो हाथों में ले लिया और बोला,
''सारिका, मेरी प्यारी बहन, आई लव यू।"
उसके तुरंत बाद मैं सारिका के उपर आगया। मैंने उसकी टांगो को फैला दिया और अपना लंड उसकी चूत की फांको के बीच घुसेड़ने लगा, तभी सारिका बोली,
''भैया कुछ गड़बड़ तो नहीं होगी?"
मैंने कहा,
"नहीं! मैं बाहर निकाल कर झाड़ दूंगा।"
और एक दम से लंड उसकी चूत में ड़ाल कर, तगड़ा धक्का मार दिया। वह एकदम से चिल्लाई
"मम्मी!!!!! "मर गई"!' ''प्रशांत! भैया निकल लो! अब छोड़ दो!"
लेकिन मैंने बिना ध्यान दिए 3/4 धक्के मार कर उसकी चूत में आधा लंड डाल दिया। उसकी कुंआरी चूत अब अक्षत नही रह गई थी। मैं उसका प्रथम पुरुष बन चुका था। मैं अपनी मिश्रित भावनाओ को संजोए हुये उस पर लेट गया और उसको चूमने लगा। उसकी आँखों में आंसू थे। मै उसको सहलाता रहा और संतावना देता रहा की अब सब ठीक हो जायेगा। उसको पुचकारते हुये मैं फिर से उसे धीरे धीरे चोदने लगा था। वह अब भी वह दर्द में थी लेकिन मैं उसकी चूत में घक्के मारता रहा। सारिका मुझसे कस के चिपटी रही और रोते होए बोलती रही,
''भैया अब बस कर दो! निकाल लो अपना, फिर कर लेना।"
लेकिन में उसको चूमते हूए, उसकी चूचियों को चूसते हुए चोदता रहा। कुछ देर के धक्कों के बाद, सारिका भी शांत पड़ गई थी। उसे अब दर्द के साथ रतिसुख की अनुभूति होने लगी थी। सारिका की चूत इतनी तंग थी की मेरा लंड उससे हो रही घर्षण की गर्मी बर्दाश्त नहीं कर पारहा था। मुझे एक दम से लगा कि यदि मै अब नही रुका तो उसकी चूत में ही झड जाऊँगा। मैंने घबड़ा कर, जल्दी से अपना लंड उसकी चूत से निकाल लिया और मुट्ठ मारते हुए उसके पेट पर अपना वीर्य गिरा दिया। मैं जब झड़ रहा तो मुझे परमानंद की अनुभूति हो रही थी, वही पर सारिका अपनी तंग चूत में फंसे लंड के निकलने और मेरे बाहर झड़ने से सुगम हो चुकी थी। मैंने देखा की सारिका की चूत से बड़ा हल्का सा खून निकला था, जिसे मैंने अपने अंडरवियर से ही पोंछ दिया। वह जब उठने लगी तब मैंनें उसको चिपका कर खूब प्यार किया। हम दोनों ऐसे ही पड़े रहे और थोड़ी देर में दोनों की ही सांसे स्थिर हो चुकी थी। मैंने सारिका से कहा,
"देखा पगली तुम बेकार डर रही थी। थोड़ा दर्द पहली बार मे होता ही, अगली बार कोई दिक्कत नही होगी।"
उसने मुझे कोई उत्तर नही दिया, बस मेरे सीने पर अपनी उंगलियां चलती रही। मैंने फिर उससे पूछा,
"सारिका, तुम भी झड़ी? ओर्गासम हुआ?"
इस पर उसने अपना मुँह फिर मेरी बाँहों में घुसेड दिया और मुझसे कहा,
''भैया, किसी को यह पता नहीं चलना चाहिए।''
मैंने उसके माथे पर चुम्बन देते हुए कहा,
''पागल हो क्या?तुम मेरी बहन हो और यह भाई बहन का प्रेम, हम दोनों के बीच ही रहेगा"।
उसके बाद हम दोनों ने, बिस्तर से उठ कर अपने अपने कपडे पहने, मुँह धो कर, बाल ठीक किये और दरवाजा खोल बाहर कर जाते समय, कस कर, एक दुसरे से गले मिले। मैंने उसका एक चुम्बन लिया और दरवाजा खोल दिया। मैने इधर उधर देखा की कोई देख तो नही रहा है फिर आश्वस्त होने पर सारिका को अपने घर से बाहर निकाल दिया। सारिका भी बड़ी तेजी से मेरे घर से बाहर निकल गई और अपनी दीदी के घर की तरह न मुड़ कर, सीधे अपने घर को चली गई।
मैंने सारिका को करीब 15 बार चोदा होगा, लेकिन बाद में मेरे पिता जी का तबादला दूसरे शहर होगया और मेरी यह कहानी बंद होगई। बाद में वह कई वर्ष बाद इलाहाबाद में, भईया जी की भतीजी की शादी में मिली, तब उसकी शादी हो चुकी थी। वहां हम दोनों की आंखे मिली, एक झिझक आड़े आई लेकिन सामाजिक शिष्टाचार का निर्वाह करते हुए हम दोनों के बीच बातों का आदान प्रदान करने से नही रुके। पूरे कार्यक्रम भर हम दोनों ही एक दुसरे के प्रति सचेत रहे और अकेले में आमने सामने आने से कटते रहे।
मुझे उसे सूखी देख कर बड़ा संतोष हुआ लेकिन साथ मे मेरे दिल मे एक मीठी कसक भी उठी थी। यह शायद इसलिए था क्योंकि यह निर्वाद सत्य था कि वह मेरी प्रथम अक्षत योनि की स्वामिनी थी और मैं उसका प्रथम पुरुष था। मेरे लिए उसके प्रति मनोभाव विशेष थे। सत्य कहूंगा, एक कामुक लोभी पुरुष की भांति मेरे अंदर, उसको एक बार फिर पाने की इच्छा भी बलवंत हुई थी लेकिन मैं टैब ताज अपने को, अपनी नई खींची गई लक्ष्मण रेखा के भीतर बांध चुका था। मैंने उसे उन दो दिनों में कभी भी यह अनुभूति नहीं होने दी की मै एक बार फिर उसे चोदना चाहता हूँ।
मै अब 60 वर्ष के ऊपर का हो गया हूँ और भगवान की बड़ी कृपा रही है कि मुझे अभी तक कामुकता आकर्षित करती है। 21 वी शताब्दी के नए खुले वातावरण के भारत मे आज भी संभोग परमानंद देता है और काम क्रीड़ा के विविध आयामों का अनुभव प्राप्त होता रहता हूँ। मुझे,आज इस चोदन जीवन मे प्रवेश किये करीब 45 वर्ष हो गये है और विभिन्न उम्र की 70 से ज्यादा स्त्रियां(षोडशी से लेकर नानी दादी) इस सुखद व रमणीय यात्रा में मेरी सहयात्री रही है। मैं आज भी इन सबको नमन करता हूँ और उनके प्रति अनुग्रह का भाव रखता हूँ। मैं मूलतः किन्ही अन्य विषयों का लेखक हूँ लेकिन मैंने जब भी मैने वासना, कामुक जीवनशैली व यौन क्रीड़ा पर लिखा है, वह अपने जीवन और मेरे वातावरण में हुई सत्य घटनाओं को ही लिपिबद्ध किया है। वैसे तो एक लेखक को कल्पनाशील माना जाता है और वह अपनी कल्पना से कुछ भी चरित्र और घटना लिख सकता है लेकिन इस विषय मे कल्पना कर लिखने की क्षमता से मैं दरिद्र हूँ। आज जो लेखन प्रस्तुत कर रहा हूँ वह मेरे जीवन का पहला था। जैसे कोई अपना प्रथम प्रेम नही भूलता वैसे ही कोई अपनी पहली चुदाई नही भूलता है। मेरे जीवन की पहली स्त्री और पहली बार चुदाई के बारे में फिर कभी मन आया तो लिखूंगा लेकिन आज जिसके बारे में लिख रहा हूँ वह मेरी पहली अक्षतयोनि थी वह मेरी पहली कुंवारी थी। वह मेरी पहली कुंवारी लड़की थी जिसका कौमार्य मैंने भंग किया था। जैसा कि ऐसे आत्मकथ्यात्मक लेखन में होता है, पात्र व स्थान के नाम, दोनो ही काल्पनिक है।
यह घटना 1970 दशक के आखरी वर्षों कि है, जब मै ग्रेजुएशन कर रहा था। मेरे यूनिवर्सिटी पहुंचते पहुंचते, मुझे स्त्री समागम व काम क्रीड़ा का अनुभव पहले से ही हो चुका था इसलिए एक छूटे सांड की तरह लड़कियों को पटाने व उनको चोदने की मानसिकता अंदर घर कर गई थी। मेरे अंदर यह वासनात्मक इच्छा तो थी लेकिन एक व्यवहारिक दिक्कत भी थी। मैं जिस शहर में रह रहा और पढ़ाई कर रहा था, वह कोई बड़ा शहर नही था। मै और मेरा परिवार, शहर में काफी जाना पहचाना हुआ था, इसलिए बिना पूरा भरोसा किये किसी से प्रणय संवाद या रोमांस के प्रति लालायित करना बड़ा टेढ़ी खीर था।
ऐसे में, मेरे ऐसे लड़को को अपनी लालसा के लिए अपने वातावरण के परिवेश में ही प्रयास करना पड़ता है। हम लोग जिस घर मे रहते थे उससे लगे हुए घर मे एक परिवार रहता था। परिवार में केवल पति पत्नी व एक छोटा बच्चा था और उनकी कुछ वर्षों पूर्व ही शादी हुई थी। वे लोग बहुत बढ़िया व मिलनसार लोग थे। इसी कारण, हमारे दोनों परिवार के बीच काफी घनिष्ठता थी। मै उन लोगो को भईया और भाभी कह कर संबोधन करता था। मेरे इन भाई साहब का ससुराल भी उसी शहर में ही था इसलिए उनके ससुराल के सारे सदस्यो का निरंतर आना जाना लगा रहता था। कालांतर में, उनके ससुराल के सदस्यों के साथ मेरे परिवार का भी काफी घुलना मिलना हो गया था। उनमे से एक लड़की थी, जिसका नाम सारिका था। वह भईया कि साली थी। भईया भाभी, सारिका के जीजा, दीदी थे। वह मेरी छोटी बहनो के साथ कि ही थी लेकिन कॉलेज अलग था। जैसा कि उस काल के सामाजिक परिवेश होता था, दोनो ही घर में काफी आना जाना था और बाते भी होती थी। सारिका, मुझे भईया कहती और रक्षा बंधन में राखी भी बांधती थी। आज भी, मैं बड़ी सत्यनिष्ठा से कह सकता हूँ कि मेरे अंदर सारिका को लेकर कभी कोई वासनात्मक विचार नही रहा था। लेकिन जीवन में कुछ ऐसे क्षण सामने आजाते है, जहां व्यक्ति उस मार्ग पर चल पड़ता है जिस पर चलने की उसने कभी सोची भी नहीं होती है।
मेरे उस क्षण का प्रारम्भ होली के दिन से हुआ था। मै अपने दोस्तों के साथ होली खेलने के लिए अपने घर तैयार बैठा था और उन सबके आने की प्रतीक्षा कर रहा था कि तभी भईया के ससुराल वाले आगये। वे लोग भईया के यहाँ होली खेलने लगे और मेरे माता पिता व बहने भी, उन्ही के यहाँ, उन लोगो के साथ होली खेलने चले गए। वहां हुड़दंग होता देख कर, मैं भी औपचारिकता निभाने के लिए वहां चला गया। वहां देखा तो सब गीली होली खेल रहे थे तो मैं वहां से खिसक कर, बाहर बरामदे में आ गया क्यों कि मुझे अभी इतनी जल्दी भीगने का बिलकुल भी मन नहीं था। मै वही बरामदे में खड़े, बाहर गेट कि तरफ टकटकी लगाये हुये, अपने दोस्त का इंतज़ार कर रहा था कि तभी मेरे ऊपर किसी ने पीछे से रंग कि पूरी बाल्टी डाल दी। अचानक हुई इस घृष्टता से मै अचकचा गया और क्रोध से पीछे मुड़ कर देखा तो सारिका खी खी खी कर के हंस रही थी और चिल्ला रही थी, 'भईया होली है! बुरा न मनो होली है'! मेरा बहुत तेज़ दिमाग ख़राब हुआ लेकिन खिसिया कर हंस भी दिया, आखिर होली है, कब तक मै सजा धजा बचा रहूंगा! मैंने हंसते हुए कहाँ,
''सारिका यह तो बदमाशी है, थोडा रंग लगा देती, मुझे पूरा गीला कर दिया और अभी ठीक से दिन भी नहीं शुरू हुआ है! चल अब तेरी खैर नहीं"
सारिका मुझे चिढ़ाती हुई, हंसते हुए अंदर भाग गयी। उसके जाने के बाद, मैं अपने हांथो में बैगनी रंग लगा कर उसके पीछे गया। मै बदला लेना चाहता था, उसको गंदी तरह पोतना चाहता था। मुझे आता देख, सारिका मेरा मनमंतुर समझ गई और इधर उधर भाग कर, छिपी जारही थी। आखिर में, मैंने उसको ड्राइंग रूम के बाहर वाले आंगन में दबोच लिया। वह न न न करती रही लेकिन फिर भी मैंने उसको जकड़ कर, उसके चेहरे पर रंग पोत दिया। मैंने जब उसको छोड़ा तो वह पक्की भूतनी लग रही थी। मैं उसकी दशा देख कर हंसने लगा और पलट कर चल दिया। तभी पता नही कहाँ से उसने रंग निकाला और पीछे से आकर मेरे मुँह पर रंग लगाने के लिए उचकी। वो ठीक से रंग लगा भी नही पाई थी की इससे पहले ही मैंने उसको पकड़ लिया और उसके ही हाथो से उसका चेहरा रंग दिया। इस छीना झपटी में वह जब कसमसाने लगी तो मैंने उसको दीवार के सहारे सटा दिया। उसी क्षण कुछ ऐसा हुआ की मैंने अपने शरीर का भार उस पर ड़ाल कर उसे दीवार पर पूरी तरह से चिपका दिया और उसकी चुचिया मेरे सीने से लग कर, दब गई। तभी मेरी आँखें उसकी आँखों से मिली और मैंने हलके से उस पर अपनी पकड़ छोड़ दी। सारिका, वही दीवार के सहारे खड़ी रही और उसने अपनी आंखे झुका ली। मैं, जब उसको ऐसा चुप देख कर अलग हुआ, तो न जाने किस उन्माद में, मैंने उसकी चुचियो को मसल डाला। मेरी इस दुस्साहस पर वह चिहुंक उठी और वहां से भाग, अंदर घर मे चली गई। मैंने सारिका के साथ घृष्टता तो कर तो दी लेकिन जब अपने किये गए कृत का इन्द्रियबोध हुआ तो मेरी हालत ख़राब होगई। मैं डर गया था। सारिका कहीं किसी से मेरी शिकायत न कर दे, यह सोंच कर चिंतित हो उठा था। मैं, उसके बाद घर से ऐसा निकला कि 3 बजे ही लौटा, जब सब नहा धो, खाना खा कर, थक कर सो गए थे।
होली की पूरी शाम मेरे लिए बड़ी यातनापूर्ण थी। जब भी कोई फोन आता या घर आता तो यही खटका लगा रहा कि कोई मेरी शिकायत करने आया है। इसी यंत्रणा में जब 2/3 दिन गुजर गए और किसी ने सारिका के साथ जो मैंने किया था, उस पर कोई बात नही की तो मैं समझ गया की सारिका ने होली वाले दिन में जो हुआ, उसके बारे में किसी को नहीं बताया है। मैं अब सारिका को लेकर आश्वस्त हो गया था और उसके मौन से मेरी हिम्मत खुल गयी थी। सारिका का अपने जीजा और दीदी के आना बराबर बना हुआ था लेकिन एकांत में उससे बात करने का मुझे कोई अवसर नही मिल रहा था। कुछ दिनों के बाद, सारिका मुझे अकेले में मिल गई। वह अपनी दीदी से मिलने, सीधे कॉलेज से चली आयी थी लेकिन भाभी घर पर नही थी। सारिका, घर मे ताला पड़ा देख कर मेरी छोटी बहन से मिलने मेरे घर चली आई थी। उस वक्त मेरी बहन, कॉलेज से आकर, बाथरूम में मुँह हाथ धो, कपडे बदल रही थी। सारिका मुझे कमरे में अकेले खड़ी हुई मिल गई। मैंने पीछे से आकर उसकी पीठ पर अपना हाथ रक्खा और पीछे से ही उसकी गर्दन पर ओंठ रख, चूम लिया। मेरे पीछे से आकर ऐसा करने से उसके मुंह से चीख निकल गई। उसने हड़बड़ा कर पीछे देखा और मुझ को वहां खड़ा पाकर कहा,
"भैया क्या है! यह सब म़त करिए, क्या कर रहे है! कोई देख लेता तो?'
मैंने वही पर, उसका मुंह अपनी तरफ पूरा मोड़ कर, उसके ओठों पर अपने ओंठ रख दिये और एक हाथ से उसकी कॉलेज ड्रेस वाली ब्लाउज के उपर से, उसकी बड़ी हो रही कड़ी कड़ी चुंचियो को दबाने लगा और साथ में, 'आई लव यू' 'आई लव यू' बोलने लगा। वह एक दम से घबड़ा गई और उसकी आंखें फैल गई। वो छटपटा रही थी और उसकी चौड़ी होती हुई आंखे, बराबर मेरी बहन की आहट में, दरवाजे की तरह बार बार देख रही थी। मैं करीब1 मिनट तक उसके ओंठो और गालों को चूमता रहा और उसकी चुंचियो को ऊपर से ही सहलाता रहा। मेरा शरीर पीछे से उससे सटा हुआ था। मेरा पैंट के अंदर खडा होता हुआ लंड, उसकी स्कर्ट के ऊपर से उसके चूतड़ों पर रगड़ रहा था। मैने ज़ब उसके ब्लाउज के अंदर हाथ डाल कर उसकी चुंचियो को छूने की कोशिश की तो वो मुझसे अपने आप को छुड़ा कर भाग गई।
इसी तरह मुझे ज़ब भी मौका मिलता, मैं उसको एकांत में छेड़ देता और अवसर मिलने पर, उसके ओंठो को चूम लेता और वयस्क हो रही चुंचियो से खेल लेता। सारिका ने उस दिन के बाद से कभी भी मुझे नही रोका, वह बस किसी के आजाने या देख लेने के प्रति सशंकित रहती थी। कुछ ही महीनों में सारिका, धीरे धीरे मुझ से और भी खुलने लगी। अब सिर्फ मैं ही एकांत के अवसर नही ढूंढता था बल्कि सारिका भी ऐसे अवसरों की उपलब्धता के प्रति सचेत व उसकी प्रतीक्षा करती थी। एक दिन ऐसा भी अवसर हाथ लगा की मुझे उसके साथ थोड़ा ज्यादा समय एकांत मिल गया। उस दिन, मैंने पहली बार उसके कॉलेज ड्रेस के ब्लाउज को ऊपर कर के, उसकी चूंचियों को बाहर निकाल कर चूसा। उसकी अल्हड़ चूंचिया बहुत ही कड़ी और मस्त थी। मेरे पहले ओंठ थे जिन्होंने उसे चूसा था। उसके घुंडीया बड़ी नोकीले व उसकी चुंचियो में काफी भराव था। मेरे उस चूसने से सारिका सिसयागयी और बदहवास सी हो गई थी। मैं जितना ज्यादा से ज्यादा उसकी चुंचियो को अपने मुंह मे समेट कर चूसने का प्रयास कर रहा था उतना ही उसकी गर्दन टेढ़ी होती जारही थी और अपने हाथों से मेरे मुँह को उसकी चुंचियो से हटाने का प्रयास कर रही थी। लेकिन मुझ पर उसका कोई प्रभाव नही पड़ रहा था। मैं एक हाथ से उसकी एक चुंची को दबा और उसकी घुंडीयों को रगड़ रहा था तो दूसरी चुंची और उसकी घुंडी को चूस रहा था। मै कोई 1 वर्ष बाद किसी लड़की के साथ, इस अवस्था तक पहुंचा था, इस लिए मेरे दिमाग में केवल उसको चोदने के आलावा कोई भी बात नही घूम रही थी। मैंने उस दिन अपने हाथ उसकी स्कर्ट के अंदर भी डालने का प्रयास किया था लेकिन उसने मेरे हाथ पकड़ लिये थे। समय ज्यादा न होने के कारण मैने भी कोई उससे कोई जिद्द नही की। उस दिन के बाद से जब भी मौका लगता था सारिका, मुझ को अपनी चूंचियों से खेलने देती और मै भी पैंट के ऊपर से ही अपने लंड को उसकी स्कर्ट के ऊपर से ही उसके चूतड़ों और उसकी चूत पर रगड़ देता था।
एक दिन वह अपने जीजा और दीदी के यहां आई तो मेरे घर मे नौकर के अलावा कोई नही था। मुझे यह मालूम था कि अभी कुछ समय तक मेरे घर मे कोई नही होगा तो मैं भईया के घर चला गया और सारिका को मेरे घर आने का इशारा किया। सारिका 10 मिनिट बाद मेरे घर आई तो मैंने उसे बताया कि अभी कोई घर वापस नही आएगा और उसे मैं खींच कर, स्टोर रूम में ले गया। मैंने स्टोर रूम की लाइट नही जलाई थी, उसे उस अंधेरे में ही गले लगा कर चूमने लगा। मैने उसका ब्लाउज और ब्रा ऊपर कर के उसकी चुंचियो को निकाल लिया और अपनी जीभ उस पर घुमाने लगा। वो मेरी तरह पूरी तरह वासनामय हो चुकी थी। तभी मैंने अपनी पेंट की जीप खोल कर लंड निकाल लिया और उसके हाथ पर रख दिया। वहां अँधेरा था इसलिए जब मैंने उसका हाथ पकड़ कर उसको अपने लंड पर ले जाने लगा तो कोई झिझक नही दिखाई लेकिन जैसे ही उसने अपने हाथ में मेरा लंड महसूस किया तो वो कूद पड़ी। भरी जवानी का मेरा भन्नाया लंड, बिलकुल सख्त और गर्म था। एक बारगी तो सारिका ने अपना हाथ ही लंड हटा दिया था, फिर बड़ी मुश्किल से मैने उसे मनाया और उसके हाथ को पकड़ कर, अपना लंड को पकड़ा दिया। जैसा की मेरा अनुमान था, जैसे जैसे मै सारिका को चूमने और उसकी चूंचियों को दबाने लगा, वह भी मेरे लंड को अपनी उंगलियों से आहिस्ते से दबाने लगी। उस दिन से बाद से सारिका का लंड से डर खत्म हो गया और मौके बे मौके वो मेरे लंड को कभी पैंट से निकाल कर या ऊपर से ही सहलाने लगी थी।
मेरे और सारिका के बीच हो गए इस प्रणय सम्बंध को करीब 7/8 महीने हो चुके थे और एक दिन वह अपनी दीदी से मिलने उनके आई। वह रविवार का दिन था और मेरी बहनों के कॉलेज का वार्षिकोत्सव था। उस समारोह को देखने मेरे घर के सभी लोग गये थे। सारिका जब आई तो वह मुझे घर के बाहर गेट पर ही मिल गई। मैंने इशारे से उसको अपने पास बुलाया तो वह बोली,
''दीदी के पास जा रही हूँ''।
मैंने कहा,
'बाद में मिल लेना, अभी यहाँ आजाओ''।
वह एक बार रुकी, इधर उधर देखा और तेजी से वह अन्दर आगई। वह जब अंदर आगई तब मैंने सारिका से कहा,
"आज कोई नहीं है घर पर, सब कॉलेज के वार्षिकोत्सव में गए है और नौकर भी गांव गया है"।
मैने उसके बाद, आगे बढ़ कर जब सिटकनी लगा कर दरवाजे को बन्द किया तो सारिका थोडा सा घबडा गई थी। मैंने उसको हिम्मत देते हुये उसकी पीठ सहलाई और उसके गालों को चूम लिया। कुछ पलों बाद उसकी घबड़ाहट कम हो गई और मेरी बाहों में झूल गई। मैंने उसके ओठों को अपने ओठों में ले लिया और उन्हें आहिस्ता आहिस्ता चूसने लगा। सारिका उस दिन टॉप और स्कर्ट पहन कर आई थी। मैं उसको अपनी बांहों में लेकर उसे अंदर अपने कमरे में ले गया और अपने बिस्तर पर बैठा दिया। मैं आज, एकांत को लेकर इतना आश्वस्त था कि मैं बड़े इत्मीनान से बारी बारी से उसके गालो, ओठों, गर्दन, माथे और कानो का चुम्बन ले रहा था। मैं एक हाथ से उनको कंधे को जकड़े था और दूसरे हाथ से उसकी टॉप ऊपर कर रहा था। उसकी टॉप ऊपर होने पर, उसकी चुंचियो को बाहर निकालने की जगह मैंने आज, पीछे ऊँगली डाल कर, उसकी ब्रा का हुक भी ख़ोल डाला। सारिका जानती थी कि आज घर पर कोई भी नहीं हैं इसलिये उसने उसकी ब्रा खोले जाने पर मुझे नही रोका।मैं उसकी नग्न चुचियों को दबाने और चूसने लगा। उसकी चुंचिया मेरे स्पर्श से और तन गई थी। मैं उसकी जमुनिया घुंडीयों को अपनी उंगलियों के बीच लेकर रगड़ने लगा। बहुत प्रतीक्षा के बाद, सारिका उस स्थिति में मिली थी जिस स्थिति की कल्पना कर के मैं मुट्ठ मारता रहता था। सारिका के अछूते नग्न शरीर का सान्निध्य, मुझे काम पीड़ा से जला रहा था। मेरा धैर्य जवाब दे रहा था और अंडरवियर में बन्द मेरे लंड की हालत भी ख़राब हो रही थी।
हम लोगो को इससे पहले कभी भी इतना सुकून से मौका नहीं मिला था इसलिये किसी प्रकार का विघ्न पड़ जाने का बोझ भी नही था। सारिका मेरे बगल में, कमर से ऊपर नंगी, मुझसे चिपकी बैठी थी। वो मेरे हाथों से दब रही चुंचियो और मेरे ओंठो से चूसे जारही घुंडीयों पर पूरी मादकता में कामुक स्वर निकाल रही थी। उसकी आवाज़ में भर्राहट थी और जब भी मेरे ओंठ उसकी घुंडीयों को कस के चूसते या मेरी उंगलियां उनको रगड़ती, वह सिसक जाती थी। सच यह था कि वासना के मद में हम दोनों ही अपनी चेतना खो रहे थे। मैंने अपनी बुशर्ट और बनियाइन उतार दी और अपने नंगे सीने को उसकी नंगी चुंचियो से चिपका कर रगड़ दिया। मैंने अपनी अब अपनी पैंट कि ज़िप को खोल कर अपना लंड निकाल लिया और उसके हाथ में उसे रख दिया। सारिका ने मेरी तरफ अधखुली आंखों से देखा और उसे ऊपर नीचे कर के सहलने लगी। हम दोनों एक दूसरे से चिपटे हुए, एक दूसरे को चूम चाट रहे थे की मैंने हिम्मत दिखाते हुए अपना दाहिना हाथ, पहली बार उसकी जांघो को सहलाते हुये स्कर्ट के अंदर डाल दिया। मेरे ऐसा करने पर वो सिहर कर मुझसे कस के लिपट गई और बोली," प्रशांत भैया! मत करो प्लीज"! मैंने उसके अगले बोल, उसके ओंठो पर अपने ओंठ रख कर बंद कर दिए और मेरी उंगलिया उसकी चूत को पैंटी के उपर से छूने लगी। सारिका कसमसाई और थोडा असहज हुई तो मैंने उसको कस के ओंठो को चूमते हुए, बिस्तर पर जोरे देकर लेटा दिया। उसके लेटने पर उसकी स्कर्ट उपर हो गई और उसकी सफ़ेद पैंटी दिखने लगी। मैंने उसको जोर से अपने शरीर से चिपटा लिया और अपना हाथ उसकी पैंटी में ड़ाल कर, उसकी चूत को अपने हाथ से दबा लिया।
वह अपनी दोनो जांघों को दबाते हुए, एक दम से मुझसे कस के चिपक गई। उसकी चूत पर हलके से बाल थे और वह बिलकुल गर्म हो रही थी। मेरी उंगलियां उसकी कुंवारी चूत के अंदर जाने का प्रयास कर रही थी, जो बिल्कुल कसी हुई थी। मेरी उंगली उसकी चूत की फांको को फैला, ज्यादा नही घुस पारही थी लेकिन उसने चूत के अंदर के गीलेपन को जरूर महसूस कर लिया था। मैंने उंगलियों से उसकी पैंटी को नीचे करनी चाही तो उसने कांपते हुई आवाज़ में मुझसे कहा,
''भैया यह म़त कीजिये, कोई आ जायेगा।"
मैंने उसे पुचकारते हुये कहा,
''कोई नहीं आयेगा सारिका, बार बार ऐसा मौका नहीं मिलता है। मैं तुमसे बहुत प्यार करता हूँ और जानता हूँ कि तुम भी मुझको बहुत प्यार करती हो। प्लीज सारिका आज मत रोको।"
इतना कह कर मैं उसकी चूत को रगड़ने लगा। उसके मुंह से ओह! ओह! उफ्फ! की आवाजे निकलने लगी थी और उसकी आँखे मुंदी जारही थी। उसने आकुल हो कर, विचलित सी आवाज मे कहा,
''कुछ और म़त करना भैया।"
मैंने उसकी चूत को सहलाते हुये पुछा,
''और क्या नहीं करना है?"
वह लजा गई और अपना मुँह मेरे सीने में छुपा लिया। मैंने अब उसकी चूत में आहिस्ते से दबाव बना कर, अपनी ऊँगली ड़ाल दी और वह जोर से झिटक गई। मैंने उसको फिर अपने अंदर समेटते हुये, धीरे से उसके कान में फुसफुसा कर फिर वही सवाल पूछा, तो उसने सुगबुगाते हुये कहा,
''वही जो दीदी करती हैं।''
उसके उत्तर से मैं मस्ती में आगया और पूंछा,
''तुमने क्या दीदी को करते हुए देखा है?''
उसने जब सर हिलाकर हां कहा तो यह देख कर मै आवेशित हो गया और कस कर उसकी चुंचियो को चूसने और चूत को रगड़ने लगा। वह अब निढाल होकर, मेरे हर हरकत का आँख बंद कर के आनंद लेने लगी थी। वो कामुकता के ज्वार में बही जारही थी। मैंने तभी मौका देख कर अपनी पैंट और अंडरवियर एक साथ उतार दिया और अपने नंगे शरीर को सारिका से लिपटा लिया। मेरे नग्न शरीर की गर्मी उसको लगी तो उसने एक क्षण के लिए अपनी आंखे खोली और मुझे नंगे देख, उसकी आंखें फटी की फटी रह गई। मैं पहला पुरुष था जिसको उसने संपूर्ण रूप से नग्न देखा था। सारिका ने मेरी नग्न काया देख कर अपनी आंखें मूंद ली थी। मै उसको सहलाते हुये अपने हाथ नीचे ले गया और जब तक वह उठ कर मना करती मैंने उसकी पैंटी को खींच कर उसकी टांगो से बाहर निकाल दिया। उसकी नंगी जांघे और जरा से बालो से अधछूपी नंगी चूत देख कर मै अपने को रोक नहीं पाया और उसके उपर चढ़ कर, अपने शरीर को सारिका के शरीर से रगड़ने लगा।
हमारे शरीर आपस मे रगड़ रहे थे। मैं साथ में उसको चूमता भी जारहा था, मेरे हाथों से उसकी चूंचियां मसली जारही थी। मेरा लाल सुपाडे का गर्म लंड, उसकी चूत और जांघों से रगड़ खा रहा था। उतेजना में, मेरे लंड से मदन रस निकल रहा था जो उसकी जांघों पर लसा जारहा था। सारिका, मेरे लंड के गर्म व गीले स्पर्श से बावरी हुई जारही थी। उसके मुँह से लगातार सिसकारी निकलने लगी थी। मैने उसकी यह हालत और संपूर्ण समर्पण देख कर, उसकी स्कर्ट का हुक खोल दिया और उसके शरीर से अलग कर दिया। मैं जब उसकी स्कर्ट उतार रहा तो वह रोक रही थी लेकिन उसके रोकने का प्रयास बिल्कुल आलस्य वाला था। मैंने अब ज्यादा विचार करने और प्रतीक्षा किये जाने पर विराम लगाया और उसकी टांगो की बीच घुस कर अपने लंड को उसकी चूत पर रख दिया। वह मेरे लंड का सुपाड़ा अपनी चूत पर पाकर बिदक गई और मेरे नीचे से निकलने की कोशिश करने लेगी और साथ कहती जा रही थी,
'' भैया यह म़त करो! में मर जाऊंगी!''
मैंने उसको कंधे से बिस्तर पर दबा, शरारती स्वर में उससे पुछा,
''क्या नहीं करू?"
सारिका बोली,
''आप जानते हो भैया, प्लीज आगे मत करो।''
मैंने थोडा सा ठील देते हुये उससे कहा,
''बोलो ना सारिका, मेरी कसम।''
तब उसने लजाते हुये कहा,
''जीजा जी, जो दीदी के साथ करते हैं।''
मैंने कहा,
''मालूम हैं, उसे क्या कहते हैं।''
उसने कहा,
''सेक्स।''
उसका उत्तर सुन कर मैंने उसे कस के चिपका लिया और कामुक स्वर में कहा,
''उसको चुदाई कहते हैं, जो हर प्यार करने वाला करता हैं।"
इसके बाद मैंने अपना लंड उसकी चूत से हटा लिया और उसकी नाभि और पेट को चूमने लगा। वह अब शांत हो कर, आंख बंद करके लेट गयी थी। उसको सहज होता हुआ देख मेरी थोड़ी हिम्मत बढ़ी और उसके पैर फेलाकर, उसकी चूत पर अपना मुँह रख दिया। जैसे ही मैंने अपनी जीभ से उसकी चूत को चाटा, वो ईईईईईईए छीछी कर के चिल्ला पड़ी। मैंने उसको अनसुना कर दिया क्योंकि मुझमें चूत चूसने की प्रवृत्ति नर्सीगिक रूप से थी। मुझे चूत की महक उसका स्वाद, उसका अपनी जीभ पर स्पर्श , भावविभोर कर देता है। मैंने उसकी चूत को चाटना शुरू कर दिया और अपनी जीभ को उसकी कुंवारी चूत में डाल कर अंदर की मांसलता के स्पंदन को अपनी अंतरात्मा में संग्रहित करने लगा था। सारिका की चूत, मेरी पहली कुंवारी चूत थी, जिसका रसास्वादन मै कर रहा था। उसकी गमक मेरे नथुनों से अंदर तक समां गयी थी। मेरी जीभ जब उसकी भगांकुर(क्लिट) को रगड़ रही थी तब उसके पैर बिलकुल ही ढीले पड़ गये थे। मैंने तब उसके चूतड़ों के नीचे तकिया लगा दिया, जिससे उसकी चूत उपर उठ कर, सामने आगई थी। मैं अपने लंड और सुपाडे पर निविया की क्रीम लगाकर, उसकी चूत पर रख कर, उसके भगांकुर पर रगड़ने लगा। तब उसने कहा,
''भैया, इसको अंदर म़त करना, बहन हूँ, राखी बांधती हूँ।"
सारिका ने एक ऐसी भावनात्मक बात कह दी थी की एक क्षण मेरे अंदर का संस्कारी पुरुष जागृत हो गया था लेकिन दूसरे ही क्षण मेरे अंदर का प्रकृतिस्त्व आदम का कामोन्माद, संस्कार पर भारी पड़ गया और मैने अपना लंड उसकी चूत पर रगड़ते हुए, उसको पुचकारते हुए कहा,
'सारिका, तुम मेरी सबसे प्यारी बहन हो। हम दोनों एक दुसरे को प्यार करते हैं। ऐसा तो कई बहिन भाई करते हैं।" फिर उसकी दोनो आंखों को चूमते हुये कहा, "सारिका मेरी जान, इतने दिनों से हम लोग भी तो, इसके अलावा सब कुछ कर रहे थे।"
फिर, मैंने उसका एक हाथ अपने लंड पर रख दिया और उसकी संवेदनशील घुंडीयों को चूसने लगा। मेरे लंड से मदन रस निकल रहा था और सुपाड़ा क्रीम और मदन रस से गिला हो गया था और वह उसके हाथ में लगने लगा था। मै थोडा उठा और बिस्तर पर पड़े अंडरवियर से उसका हाथ पोछ दिया। उसके बाद अपने लंड पर फिर क्रीम लगाई और ऊँगली से उसकी चूत में भी लगा दिया। अब तक उसका और मेरा दोनो का ही हाल बेहाल हो चुका था। मैंने उसका चेहरा अपने दोनो हाथों में ले लिया और बोला,
''सारिका, मेरी प्यारी बहन, आई लव यू।"
उसके तुरंत बाद मैं सारिका के उपर आगया। मैंने उसकी टांगो को फैला दिया और अपना लंड उसकी चूत की फांको के बीच घुसेड़ने लगा, तभी सारिका बोली,
''भैया कुछ गड़बड़ तो नहीं होगी?"
मैंने कहा,
"नहीं! मैं बाहर निकाल कर झाड़ दूंगा।"
और एक दम से लंड उसकी चूत में ड़ाल कर, तगड़ा धक्का मार दिया। वह एकदम से चिल्लाई
"मम्मी!!!!! "मर गई"!' ''प्रशांत! भैया निकल लो! अब छोड़ दो!"
लेकिन मैंने बिना ध्यान दिए 3/4 धक्के मार कर उसकी चूत में आधा लंड डाल दिया। उसकी कुंआरी चूत अब अक्षत नही रह गई थी। मैं उसका प्रथम पुरुष बन चुका था। मैं अपनी मिश्रित भावनाओ को संजोए हुये उस पर लेट गया और उसको चूमने लगा। उसकी आँखों में आंसू थे। मै उसको सहलाता रहा और संतावना देता रहा की अब सब ठीक हो जायेगा। उसको पुचकारते हुये मैं फिर से उसे धीरे धीरे चोदने लगा था। वह अब भी वह दर्द में थी लेकिन मैं उसकी चूत में घक्के मारता रहा। सारिका मुझसे कस के चिपटी रही और रोते होए बोलती रही,
''भैया अब बस कर दो! निकाल लो अपना, फिर कर लेना।"
लेकिन में उसको चूमते हूए, उसकी चूचियों को चूसते हुए चोदता रहा। कुछ देर के धक्कों के बाद, सारिका भी शांत पड़ गई थी। उसे अब दर्द के साथ रतिसुख की अनुभूति होने लगी थी। सारिका की चूत इतनी तंग थी की मेरा लंड उससे हो रही घर्षण की गर्मी बर्दाश्त नहीं कर पारहा था। मुझे एक दम से लगा कि यदि मै अब नही रुका तो उसकी चूत में ही झड जाऊँगा। मैंने घबड़ा कर, जल्दी से अपना लंड उसकी चूत से निकाल लिया और मुट्ठ मारते हुए उसके पेट पर अपना वीर्य गिरा दिया। मैं जब झड़ रहा तो मुझे परमानंद की अनुभूति हो रही थी, वही पर सारिका अपनी तंग चूत में फंसे लंड के निकलने और मेरे बाहर झड़ने से सुगम हो चुकी थी। मैंने देखा की सारिका की चूत से बड़ा हल्का सा खून निकला था, जिसे मैंने अपने अंडरवियर से ही पोंछ दिया। वह जब उठने लगी तब मैंनें उसको चिपका कर खूब प्यार किया। हम दोनों ऐसे ही पड़े रहे और थोड़ी देर में दोनों की ही सांसे स्थिर हो चुकी थी। मैंने सारिका से कहा,
"देखा पगली तुम बेकार डर रही थी। थोड़ा दर्द पहली बार मे होता ही, अगली बार कोई दिक्कत नही होगी।"
उसने मुझे कोई उत्तर नही दिया, बस मेरे सीने पर अपनी उंगलियां चलती रही। मैंने फिर उससे पूछा,
"सारिका, तुम भी झड़ी? ओर्गासम हुआ?"
इस पर उसने अपना मुँह फिर मेरी बाँहों में घुसेड दिया और मुझसे कहा,
''भैया, किसी को यह पता नहीं चलना चाहिए।''
मैंने उसके माथे पर चुम्बन देते हुए कहा,
''पागल हो क्या?तुम मेरी बहन हो और यह भाई बहन का प्रेम, हम दोनों के बीच ही रहेगा"।
उसके बाद हम दोनों ने, बिस्तर से उठ कर अपने अपने कपडे पहने, मुँह धो कर, बाल ठीक किये और दरवाजा खोल बाहर कर जाते समय, कस कर, एक दुसरे से गले मिले। मैंने उसका एक चुम्बन लिया और दरवाजा खोल दिया। मैने इधर उधर देखा की कोई देख तो नही रहा है फिर आश्वस्त होने पर सारिका को अपने घर से बाहर निकाल दिया। सारिका भी बड़ी तेजी से मेरे घर से बाहर निकल गई और अपनी दीदी के घर की तरह न मुड़ कर, सीधे अपने घर को चली गई।
मैंने सारिका को करीब 15 बार चोदा होगा, लेकिन बाद में मेरे पिता जी का तबादला दूसरे शहर होगया और मेरी यह कहानी बंद होगई। बाद में वह कई वर्ष बाद इलाहाबाद में, भईया जी की भतीजी की शादी में मिली, तब उसकी शादी हो चुकी थी। वहां हम दोनों की आंखे मिली, एक झिझक आड़े आई लेकिन सामाजिक शिष्टाचार का निर्वाह करते हुए हम दोनों के बीच बातों का आदान प्रदान करने से नही रुके। पूरे कार्यक्रम भर हम दोनों ही एक दुसरे के प्रति सचेत रहे और अकेले में आमने सामने आने से कटते रहे।
मुझे उसे सूखी देख कर बड़ा संतोष हुआ लेकिन साथ मे मेरे दिल मे एक मीठी कसक भी उठी थी। यह शायद इसलिए था क्योंकि यह निर्वाद सत्य था कि वह मेरी प्रथम अक्षत योनि की स्वामिनी थी और मैं उसका प्रथम पुरुष था। मेरे लिए उसके प्रति मनोभाव विशेष थे। सत्य कहूंगा, एक कामुक लोभी पुरुष की भांति मेरे अंदर, उसको एक बार फिर पाने की इच्छा भी बलवंत हुई थी लेकिन मैं टैब ताज अपने को, अपनी नई खींची गई लक्ष्मण रेखा के भीतर बांध चुका था। मैंने उसे उन दो दिनों में कभी भी यह अनुभूति नहीं होने दी की मै एक बार फिर उसे चोदना चाहता हूँ।