30-07-2021, 01:08 PM
बयान - 19
बहुत सवेरे महाराज जयसिंह, राजा सुरेंद्रसिंह और कुमार अपने कुल ऐयारों को साथ ले खोह के दरवाजे पर आए। तेजसिंह ने दोनों ताले खोले जिन्हें देख महाराज जयसिंह और सुरेंद्रसिंह बहुत हैरान हुए। खोह के अंदर जा कर तो इन लोगों की और ही कैफियत हो गई, ताज्जुब भरी निगाहों से चारों तरफ देखते और तारीफ करते थे।
घुमाते-फिराते कई ताज्जुब की चीजों को दिखाते और कुछ हाल समझाते, सभी को साथ लिए हुए तेजसिंह उस बाग के दरवाजे पर पहुँचे, जिसमें सिद्धनाथ रहते थे। इन लोगों के पहुँचने के पहले ही से सिद्धनाथ इस्तकबाल (अगुवानी) के लिए द्वार पर मौजूद थे।
तेजसिंह ने महाराज जयसिंह और सुरेंद्रसिंह को उँगली के इशारे से बता कर कहा - ‘देखिए सिद्धनाथ बाबा दरवाजे पर खड़े हैं।’
दोनों राजा चाहते थे कि जल्दी से पास पहुँच कर बाबा जी को दंडवत करें मगर इसके पहले ही बाबा जी ने पुकार कर कहा - ‘खबरदार, मुझे कोई दंडवत न करना नहीं तो पछताओगे और मुलाकात भी न होगी।’
इरादा करते रह गए, किसी की मजाल न हुई कि दंडवत करता। महाराज जयसिंह और राजा सुरेंद्रसिंह हैरान थे कि बाबा जी ने दंडवत करने से क्यों रोका। पास पहुँच कर हाथ मिलाना चाहा, मगर बाबा जी ने इसे भी मंजूर न करके कहा - ‘महाराज, मैं इस लायक नहीं, आपका दर्जा मुझसे बहुत बड़ा है।’
सुरेंद्र – ‘साधुओं से बढ़ कर किसी का दर्जा नहीं हो सकता।’
बाबा जी - आपका कहना बहुत ठीक है, मगर आपको मालूम नहीं कि मैं किस तरह का साधु हूँ।’
सुरेंद्र – ‘साधु चाहे किसी तरह का हो पूजने ही योग्य है।’
बाबा जी – ‘किसी तरह का हो, मगर साधु हो तब तो।’
सुरेंद्र – ‘तो आप कौन हैं?’
बाबा जी – ‘कोई भी नहीं।’
जयसिंह – ‘आपकी बातें ऐसी हैं कि कुछ समझ ही में नहीं आतीं और हर बात ताज्जुब, आश्चर्य, सोच और घबराहट बढ़ाती है।’
बाबा जी - (हँस कर) ‘अच्छा आइए इस बाग में चलिए।’
सभी को अपने साथ लिए सिद्धनाथ बाग के अंदर गए।
पाठक, घड़ी-घड़ी बाग की तारीफ करना तथा हर एक गुल-बूटे और पत्तियों की कैफियत लिखना मुझे मंजूर नहीं, क्योंकि इस छोटे से ग्रंथ को शुरू से इस वक्त तक मुख्तसर ही में लिखता चला आया हूँ। सिवाय इसके इस खोह के बाग कौन बड़े लंबे-चौड़े हैं जिनके लिए कई पन्ने कागज के बरबाद किए जाएँ, लेकिन इतना कहना जरूरी है कि इस खोह में जितने बाग हैं चाहे छोटे भी हो मगर सभी की सजावट अच्छी है और फूलों के सिवाय पहाड़ी खुशनुमा पत्तियों की बहार कहीं बढ़ी-चढ़ी है।
महाराज जयसिंह, राजा सुरेंद्रसिंह, कुमार वीरेंद्रसिंह और उनके ऐयारों को साथ लिए घूमते हुए बाबा जी उसी दीवानखाने में पहुँचे, जिसमें कुमारी का दरबार कुमार ने देखा था, बल्कि ऐसा क्यों नहीं कहते कि अभी कल ही जिस कमरे में कुमार खास कुमारी चंद्रकांता से मिले थे। जिस तरह की सजावट आज इस दीवानखाने की है, इसके पहले कुमार ने नहीं देखी थी। बीच में एक कीमती गद्दी बिछी हुई थी, बाबा जी ने उसी पर राजा सुरेंद्रसिंह, महाराज जयसिंह और कुँवर वीरेंद्रसिंह को बिठा कर उनके दोनों तरफ दर्जे-ब-दर्जे ऐयारों को बैठाया और आप भी उन्हीं लोगों के सामने एक मृगछाला पर बैठ गए जो पहले ही बिछा हुआ था, इसके बाद बातचीत होने लगी।
बाबा जी - (महाराज जयसिंह और राजा सुरेंद्रसिंह की तरफ देख कर) ‘आप लोग कुशल से तो हैं।’
दोनों राजा – ‘आपकी कृपा से बहुत आनंद है, और आज तो आपसे मिल कर बहुत प्रसन्नता हुई।’
बाबा जी – ‘आप लोगों को यहाँ तक आने में तकलीफ हुई, उसे माफ कीजिएगा।’
जयसिंह – ‘यहाँ आने के ख्याल ही से हम लोगों की तकलीफ जाती रही। आपकी कृपा न होती और यहाँ तक आने की नौबत न पहुँचती तो, न मालूम कब तक कुमारी चंद्रकांता के वियोग का दु:ख हम लोगों को सहना पड़ता।’
बाबा जी - (मुस्कराकर) ‘अब कुमारी की तलाश में आप लोग तकलीफ न उठाएँगे।’
जयसिंह – ‘आशा है कि आज आपकी कृपा से कुमारी को जरूर देखेंगे।’
बाबा जी – ‘शायद किसी वजह से अगर आज कुमारी को देख न सकें तो कल जरूर आप लोग उससे मिलेंगे। इस वक्त आप लोग स्नान-पूजा से छुट्टी पा कर कुछ भोजन कर लें, तब हमारे आपके बीच बातचीत होगी।’
बाबा जी ने एक लौंडी को बुला कर कहा – ‘हमारे मेहमान लोगों के नहाने का सामान उस बाग में दुरुस्त करो जिसमें बावड़ी है।’
बाबा जी सभी को लिए उस बाग में गए जिसमें बावड़ी थी। उसी में सभी ने स्नान किया और उत्तर तरफ वाले दालान में भोजन करने के बाद उस कमरे में बैठे जिसमें कुँवर वीरेंद्रसिंह की आँख खुली थी। आज भी वह कमरा वैसा ही सजा हुआ है जैसा पहले दिन कुमार ने देखा था, हाँ इतना फर्क है कि आज कुमारी चंद्रकांता की तस्वीर उसमें नहीं है।
जब सब लोग निश्चित होकर बैठ गए तब राजा सुरेंद्रसिंह ने सिद्धनाथ योगी से पूछा - ‘यह खूबसूरत पहाड़ी जिसमें छोटे-छोटे कई बाग हैं, हमारे ही इलाके में है मगर आज तक कभी इसे देखने की नौबत नहीं पहुँची। क्या इस बाग से ऊपर-ही-ऊपर कोई और रास्ता भी बाहर जाने का है?’
बाबा जी – ‘इसकी राह गुप्त होने के सबब से यहाँ कोई आ नहीं सकता था, हाँ जिसे इस छोटे से तिलिस्म की कुछ खबर है, वह शायद आ सके। एक रास्ता तो इसका वही है जिससे आप आए हैं, दूसरी राह बाहर आने-जाने की इस बाग में से है, लेकिन वह उससे भी ज्यादा छिपी हुई है।’
सुरेंद्र – ‘आप कब से इस पहाड़ी में रह रहे हैं।’
बाबा जी – ‘मैं बहुत थोड़े दिनों से इस खोह में आया हूँ। सो भी अपनी खुशी से नहीं आया, मालिक के काम से आया हूँ।’
सुरेंद्र - (ताज्जुब से) ‘आप किसके नौकर हैं?’
बाबा जी – ‘यह भी आपको बहुत जल्दी मालूम हो जाएगा।’
जयसिंह - (सुरेंद्रसिंह की तरफ इशारा करके) ‘महाराज की जुबानी मालूम होता है कि यह दिलचस्प पहाड़ी चाहे इनके राज्य में हो मगर इन्हें इसकी खबर नहीं और यह जगह भी ऐसी नहीं मालूम होती जिसका कोई मालिक न हो, आप यहाँ के रहने वाले नहीं हैं तो इस दिलचस्प पहाड़ी और सुंदर-सुंदर मकानों और बागीचों का मालिक कौन है?’
महाराज जयसिंह की बात का जवाब अभी सिद्धनाथ बाबा ने नहीं दिया था कि सामने से वनकन्या आती दिखाई पड़ी। दोनों बगल उसके दो सखियाँ और पीछे-पीछे दस-पंद्रह लौंडियों की भीड़ थीं।
बहुत सवेरे महाराज जयसिंह, राजा सुरेंद्रसिंह और कुमार अपने कुल ऐयारों को साथ ले खोह के दरवाजे पर आए। तेजसिंह ने दोनों ताले खोले जिन्हें देख महाराज जयसिंह और सुरेंद्रसिंह बहुत हैरान हुए। खोह के अंदर जा कर तो इन लोगों की और ही कैफियत हो गई, ताज्जुब भरी निगाहों से चारों तरफ देखते और तारीफ करते थे।
घुमाते-फिराते कई ताज्जुब की चीजों को दिखाते और कुछ हाल समझाते, सभी को साथ लिए हुए तेजसिंह उस बाग के दरवाजे पर पहुँचे, जिसमें सिद्धनाथ रहते थे। इन लोगों के पहुँचने के पहले ही से सिद्धनाथ इस्तकबाल (अगुवानी) के लिए द्वार पर मौजूद थे।
तेजसिंह ने महाराज जयसिंह और सुरेंद्रसिंह को उँगली के इशारे से बता कर कहा - ‘देखिए सिद्धनाथ बाबा दरवाजे पर खड़े हैं।’
दोनों राजा चाहते थे कि जल्दी से पास पहुँच कर बाबा जी को दंडवत करें मगर इसके पहले ही बाबा जी ने पुकार कर कहा - ‘खबरदार, मुझे कोई दंडवत न करना नहीं तो पछताओगे और मुलाकात भी न होगी।’
इरादा करते रह गए, किसी की मजाल न हुई कि दंडवत करता। महाराज जयसिंह और राजा सुरेंद्रसिंह हैरान थे कि बाबा जी ने दंडवत करने से क्यों रोका। पास पहुँच कर हाथ मिलाना चाहा, मगर बाबा जी ने इसे भी मंजूर न करके कहा - ‘महाराज, मैं इस लायक नहीं, आपका दर्जा मुझसे बहुत बड़ा है।’
सुरेंद्र – ‘साधुओं से बढ़ कर किसी का दर्जा नहीं हो सकता।’
बाबा जी - आपका कहना बहुत ठीक है, मगर आपको मालूम नहीं कि मैं किस तरह का साधु हूँ।’
सुरेंद्र – ‘साधु चाहे किसी तरह का हो पूजने ही योग्य है।’
बाबा जी – ‘किसी तरह का हो, मगर साधु हो तब तो।’
सुरेंद्र – ‘तो आप कौन हैं?’
बाबा जी – ‘कोई भी नहीं।’
जयसिंह – ‘आपकी बातें ऐसी हैं कि कुछ समझ ही में नहीं आतीं और हर बात ताज्जुब, आश्चर्य, सोच और घबराहट बढ़ाती है।’
बाबा जी - (हँस कर) ‘अच्छा आइए इस बाग में चलिए।’
सभी को अपने साथ लिए सिद्धनाथ बाग के अंदर गए।
पाठक, घड़ी-घड़ी बाग की तारीफ करना तथा हर एक गुल-बूटे और पत्तियों की कैफियत लिखना मुझे मंजूर नहीं, क्योंकि इस छोटे से ग्रंथ को शुरू से इस वक्त तक मुख्तसर ही में लिखता चला आया हूँ। सिवाय इसके इस खोह के बाग कौन बड़े लंबे-चौड़े हैं जिनके लिए कई पन्ने कागज के बरबाद किए जाएँ, लेकिन इतना कहना जरूरी है कि इस खोह में जितने बाग हैं चाहे छोटे भी हो मगर सभी की सजावट अच्छी है और फूलों के सिवाय पहाड़ी खुशनुमा पत्तियों की बहार कहीं बढ़ी-चढ़ी है।
महाराज जयसिंह, राजा सुरेंद्रसिंह, कुमार वीरेंद्रसिंह और उनके ऐयारों को साथ लिए घूमते हुए बाबा जी उसी दीवानखाने में पहुँचे, जिसमें कुमारी का दरबार कुमार ने देखा था, बल्कि ऐसा क्यों नहीं कहते कि अभी कल ही जिस कमरे में कुमार खास कुमारी चंद्रकांता से मिले थे। जिस तरह की सजावट आज इस दीवानखाने की है, इसके पहले कुमार ने नहीं देखी थी। बीच में एक कीमती गद्दी बिछी हुई थी, बाबा जी ने उसी पर राजा सुरेंद्रसिंह, महाराज जयसिंह और कुँवर वीरेंद्रसिंह को बिठा कर उनके दोनों तरफ दर्जे-ब-दर्जे ऐयारों को बैठाया और आप भी उन्हीं लोगों के सामने एक मृगछाला पर बैठ गए जो पहले ही बिछा हुआ था, इसके बाद बातचीत होने लगी।
बाबा जी - (महाराज जयसिंह और राजा सुरेंद्रसिंह की तरफ देख कर) ‘आप लोग कुशल से तो हैं।’
दोनों राजा – ‘आपकी कृपा से बहुत आनंद है, और आज तो आपसे मिल कर बहुत प्रसन्नता हुई।’
बाबा जी – ‘आप लोगों को यहाँ तक आने में तकलीफ हुई, उसे माफ कीजिएगा।’
जयसिंह – ‘यहाँ आने के ख्याल ही से हम लोगों की तकलीफ जाती रही। आपकी कृपा न होती और यहाँ तक आने की नौबत न पहुँचती तो, न मालूम कब तक कुमारी चंद्रकांता के वियोग का दु:ख हम लोगों को सहना पड़ता।’
बाबा जी - (मुस्कराकर) ‘अब कुमारी की तलाश में आप लोग तकलीफ न उठाएँगे।’
जयसिंह – ‘आशा है कि आज आपकी कृपा से कुमारी को जरूर देखेंगे।’
बाबा जी – ‘शायद किसी वजह से अगर आज कुमारी को देख न सकें तो कल जरूर आप लोग उससे मिलेंगे। इस वक्त आप लोग स्नान-पूजा से छुट्टी पा कर कुछ भोजन कर लें, तब हमारे आपके बीच बातचीत होगी।’
बाबा जी ने एक लौंडी को बुला कर कहा – ‘हमारे मेहमान लोगों के नहाने का सामान उस बाग में दुरुस्त करो जिसमें बावड़ी है।’
बाबा जी सभी को लिए उस बाग में गए जिसमें बावड़ी थी। उसी में सभी ने स्नान किया और उत्तर तरफ वाले दालान में भोजन करने के बाद उस कमरे में बैठे जिसमें कुँवर वीरेंद्रसिंह की आँख खुली थी। आज भी वह कमरा वैसा ही सजा हुआ है जैसा पहले दिन कुमार ने देखा था, हाँ इतना फर्क है कि आज कुमारी चंद्रकांता की तस्वीर उसमें नहीं है।
जब सब लोग निश्चित होकर बैठ गए तब राजा सुरेंद्रसिंह ने सिद्धनाथ योगी से पूछा - ‘यह खूबसूरत पहाड़ी जिसमें छोटे-छोटे कई बाग हैं, हमारे ही इलाके में है मगर आज तक कभी इसे देखने की नौबत नहीं पहुँची। क्या इस बाग से ऊपर-ही-ऊपर कोई और रास्ता भी बाहर जाने का है?’
बाबा जी – ‘इसकी राह गुप्त होने के सबब से यहाँ कोई आ नहीं सकता था, हाँ जिसे इस छोटे से तिलिस्म की कुछ खबर है, वह शायद आ सके। एक रास्ता तो इसका वही है जिससे आप आए हैं, दूसरी राह बाहर आने-जाने की इस बाग में से है, लेकिन वह उससे भी ज्यादा छिपी हुई है।’
सुरेंद्र – ‘आप कब से इस पहाड़ी में रह रहे हैं।’
बाबा जी – ‘मैं बहुत थोड़े दिनों से इस खोह में आया हूँ। सो भी अपनी खुशी से नहीं आया, मालिक के काम से आया हूँ।’
सुरेंद्र - (ताज्जुब से) ‘आप किसके नौकर हैं?’
बाबा जी – ‘यह भी आपको बहुत जल्दी मालूम हो जाएगा।’
जयसिंह - (सुरेंद्रसिंह की तरफ इशारा करके) ‘महाराज की जुबानी मालूम होता है कि यह दिलचस्प पहाड़ी चाहे इनके राज्य में हो मगर इन्हें इसकी खबर नहीं और यह जगह भी ऐसी नहीं मालूम होती जिसका कोई मालिक न हो, आप यहाँ के रहने वाले नहीं हैं तो इस दिलचस्प पहाड़ी और सुंदर-सुंदर मकानों और बागीचों का मालिक कौन है?’
महाराज जयसिंह की बात का जवाब अभी सिद्धनाथ बाबा ने नहीं दिया था कि सामने से वनकन्या आती दिखाई पड़ी। दोनों बगल उसके दो सखियाँ और पीछे-पीछे दस-पंद्रह लौंडियों की भीड़ थीं।