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चन्द्रकान्ता - देवकीनन्दन खत्री रचित उपन्यास
बयान – 18

दिन दोपहर से कुछ ज्यादा जा चुका था। उस वक्त तक कुमार ने स्नान-पूजा कुछ नहीं की थी।

लश्कर में जा कर कुमार राजा सुरेंद्रसिंह और महाराज जयसिंह से मिले और सिद्धनाथ योगी का संदेशा दिया। दोनों ने पूछा कि बाबा जी ने तुमको सबसे पहले क्यों बुलाया था? इसके जवाब में जो कुछ मुनासिब समझा, कह कर दोनों अपने-अपने डेरे में आए और स्नान-पूजा करके भोजन किया।

राजा सुरेंद्रसिंह तथा महाराज जयसिंह एकांत में बैठ कर इस बात की सलाह करने लगे कि हम लोग अपने साथ किस-किस को खोह के अंदर ले चलें।

सुरेंद्र – ‘योगी जी ने कहला भेजा है कि उन्हीं लोगों को अपने साथ खोह में लाओ जिनके सामने कुमारी आ सके।’

जयसिंह – ‘हम-आप, कुमार और तेजसिंह तो जरूर ही चलेंगे। बाकी जिस-जिसको आप चाहें ले चलें?’

सुरेंद्र – ‘बहुत आदमियों को साथ ले चलने की कोई जरूरत नहीं, हाँ ऐयारों को जरूर ले चलना चाहिए क्योंकि इन लोगों से किसी किस्म का पर्दा रह नहीं सकता, बल्कि ऐयारों से पर्दा रखना ही मुनासिब नहीं।’

जयसिंह – ‘आपका कहना ठीक है, इन ऐयारों के सिवाय और कोई इस लायक नहीं कि जिसे अपने साथ खोह में ले चले।’

बातचीत और राय पक्की करते हुए दिन थोड़ा रह गया, सुरेंद्रसिंह ने तेजसिंह को उसी जगह बुला कर पूछा – ‘यहाँ से चल कर बाबा जी के पास पहुँचने तक राह में कितनी देर लगती है?’

तेजसिंह ने जवाब दिया - ‘अगर इधर-उधर ख्याल न करके सीधे ही चलें तो पाँच-छः घड़ी में उस बाग तक पहुँचेंगे जिसमें बाबा जी रहते हैं, मगर मेरी राय इस वक्त वहाँ चलने की नहीं है क्योंकि दिन बहुत थोड़ा रह गया है और इस खोह में बड़े बेढब रास्ते से चलना होगा। अगर अँधेरा हो गया तो एक कदम आगे चल नहीं सकेंगे।’

कुमारी को देखने के लिए महाराज जयसिंह बहुत घबरा रहे थे मगर इस वक्त तेजसिंह की राय उनको कबूल करनी पड़ी और दूसरे दिन सुबह को खोह में चलने की ठहरी।
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RE: चन्द्रकान्ता - देवकीनन्दन खत्री रचित उपन्यास - by usaiha2 - 30-07-2021, 12:59 PM



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