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चन्द्रकान्ता - देवकीनन्दन खत्री रचित उपन्यास
बयान - 15

दो घंटे बाद दरबार के बाहर से शोरगुल की आवाज आने लगी। सभी का ख्याल उसी तरफ गया। एक चोबदार ने आ कर अर्ज किया कि पंडित बद्रीनाथ उस खूनी को पकड़े लिए आ रहे हैं।

उस खूनी को कमंद से बाँधे साथ लिए हुए पंडित बद्रीनाथ आ पहुँचे।

महाराज – ‘बद्रीनाथ, कुछ यह भी मालूम हुआ कि यह कौन है?’

बद्रीनाथ - ‘कुछ नहीं बताता कि कौन है और न बताएगा।’

महाराज – ‘फिर?’

बद्रीनाथ - ‘फिर क्या? मुझे तो मालूम होता है कि इसने अपनी सूरत बदल रखी है।’

पानी मँगवा कर उसका चेहरा धुलवाया गया, अब तो उसकी दूसरी ही सूरत निकल आई।

भीड़ लगी थी, सभी में खलबली पड़ गई, मालूम होता था कि इसे सब कोई पहचानते हैं। महाराज चौंक पड़े और तेजसिंह की तरफ देख कर बोले - ‘बस-बस मालूम हो गया, यह तो नाजिम का साला है, मैं ख्याल करता हूँ कि जालिम खाँ वगैरह जो कैद हैं वे भी नाजिम और अहमद के रिश्तेदार ही होंगे। उन लोगों को फिर यहाँ लाना चाहिए।’

महाराज के हुक्म से जालिम खाँ वगैरह भी दरबार में लाए गए।

बद्रीनाथ - (जालिम खाँ की तरफ देख कर) ‘अब तुम लोग पहचाने गए कि नाजिम और अहमद के रिश्तेदार हो, तुम्हारे साथी ने बता दिया।’

जालिम खाँ इसका कुछ जवाब देना ही चाहता था कि वह खूनी (जिसे बद्रीनाथ अभी गिरफ्तार करके लाए थे) बोल उठा - ‘जालिम खाँ, तुम बद्रीनाथ के फेर में मत पड़ना, यह झूठे हैं। तुम्हारे साथी को हमने कुछ कहने का मौका नहीं दिया, वह बड़ा ही डरपोक था, मैंने उसे दोजख में पहुँचा दिया। हम लोगों की जान चाहे जिस दुर्दशा से जाए मगर अपने मुँह से अपना कुछ हाल कभी न कहना चाहिए।’

जालिम - (जोर से) ‘ऐसा ही होगा।’

इन दोनों की बातचीत से महाराज को बड़ा क्रोध आया। आँखें लाल हो गईं, बदन काँपने लगा। तेजसिंह और बद्रीनाथ की तरफ देख कर बोले - ‘बस हमको इन लोगों का हाल मालूम करने की कोई जरूरत नहीं, चाहे जो हो, अभी, इसी वक्त, इसी जगह, मेरे सामने इन लोगों का सिर धाड़ से अलग कर दिया जाए।’

हुक्म की देर थी, तमाम शहर इन डाकुओं के खून का प्यासा हो रहा था, उछल-उछल कर लोगों ने अपने-अपने हाथों की सफाई दिखाई। सभी की लाशें उठा कर फेंक दी गईं। महाराज उठ खड़े हुए।

तेजसिंह ने हाथ जोड़ कर अर्ज किया - ‘महाराज, मुझे अभी तक कहने का मौका नहीं मिला कि यहाँ किस काम के लिए आया था और न अभी बात कहने का वक्त है।’

महाराज – ‘अगर कोई जरूरी बात हो तो मेरे साथ महल में चलो।’

तेजसिंह – ‘बात तो बहुत जरूरी है मगर इस समय कहने को जी नहीं चाहता, क्योंकि महाराज को अभी तक गुस्सा चढ़ा हुआ है और मेरी भी तबीयत खराब हो रही है, मगर इस वक्त इतना कह देना मुनासिब समझता हूँ कि जिस बात के सुनने से आपको बेहद खुशी होगी मैं वही बात कहूँगा।’

तेजसिंह की आखिरी बात ने महाराज का गुस्सा एकदम ठंडा कर दिया और उनके चेहरे पर खुशी झलकने लगी। तेजसिंह का हाथ पकड़ लिया और महल में ले चले, बद्रीनाथ भी तेजसिंह के इशारे से साथ हुए।

तेजसिंह और बद्रीनाथ को साथ लिए हुए महाराज अपने खास कमरे में गए और कुछ देर बैठने के बाद तेजसिंह के आने का कारण पूछा।

सब हाल खुलासा कहने के बाद तेजसिंह ने कहा - ‘अब आप और महाराज सुरेंद्रसिंह खोह में चलें और सिद्धनाथ योगी की कृपा से कुमारी को साथ ले कर खुशी-खुशी लौट आएँ।’

तेजसिंह की बात से महाराज को कितनी खुशी हुई इसका हाल लिखना मुश्किल है। लपक कर तेजसिंह को गले लगा लिया और कहा - ‘तुम अभी बाहर जा कर हरदयालसिंह को हमारे सफर की तैयारी करने का हुक्म दो और तुम लोग भी स्नान-पूजा करके कुछ खाओ-पीओ। मैं जा कर कुमारी की माँ को यह खुशखबरी सुनाता हूँ।’

आज के दिन का तीन हिस्सा आश्चर्य, रंज, गुस्से और खुशी में गुजर गया, किसी के मुँह में एक दाना अन्न नहीं गया था।

तेजसिंह और बद्रीनाथ महाराज से विदा हो दीवान हरदयालसिंह के मकान पर गए और महाराज ने महल में जा कर कुमारी चंद्रकांता की माँ को, कुमारी से मिलने की उम्मीद दिलाई।
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RE: चन्द्रकान्ता - देवकीनन्दन खत्री रचित उपन्यास - by usaiha2 - 30-07-2021, 12:56 PM



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