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चन्द्रकान्ता - देवकीनन्दन खत्री रचित उपन्यास
कुछ दूर जा कर दोपहर की धूप घने जंगल के पेड़ों की झुरमुट में काटी और ठंडे हो रवाना हुए। विजयगढ़ पहुँच कर महल में आधी रात को ठीक उस वक्त पहुँचे जब बहुत से जवांमर्दों की भीड़ बटुरी हुई थी और हर एक आदमी चौकन्ना हो कर हर तरफ देख रहा था। यकायक पूरब की छत से धमाधम छः आदमी कूद कर बीचोंबीच भीड़ में आ खड़े हुए, जिनके आगे-आगे बद्रीनाथ का सिर हाथ में लिए आफत खाँ था।

तेजसिंह को अभी तक किसी ने नहीं देखा था, इस वक्त इन्होंने ललकार कर कहा - ‘पकड़ो इन नालायकों को, अब देखते क्या हो?’ इतना कह कर आप भी कमंद फैला कर उन लोगों की तरफ फेंका, तब तक बहुत से आदमी टूट पड़े। उन लोगों के हाथ में जो गेद मौजूद थे, जमीन पर पटकने लगे, मगर कुछ नहीं, वहाँ तो मामला ही ठंडा था, गेद क्या थी धोखे था। कुछ करते-धारते न बन पड़ा और सब-के-सब गिरफ्तार हो गए।

अब तेजसिंह को सभी ने देखा, आफत खाँ ने भी इनकी तरफ देखा और कहा - ‘तेज, मेमचे बद्री।’ इतना सुनते ही तेजसिंह ने आफत खाँ का हाथ पकड़ कर इनको सभी से अलग कर लिया और हाथ-पैर खोल गले से लगा लिया। सब शोर-गुल मचाने लगे - ‘हाँ-हाँ, यह क्या करते हो, यह तो बड़ा भारी दुष्ट है, इसी ने तो बद्रीनाथ को मारा है। देखो, इसी के हाथ में बेचारे बद्रीनाथ का सिर है, तुम्हें क्या हो गया कि इसके साथ नेकी करते हो?’

पर तेजसिंह ने घुड़क कर कहा - ‘चुप रहो, कुछ खबर भी है कि यह कौन हैं? बद्रीनाथ को मारना क्या खेल हो गया है?’

तेजसिंह की इज्जत को सब जानते थे। किसी की मजाल न थी कि उनकी बात काटता। आफत खाँ को उनके हवाले करना ही पड़ा, मगर बाकी पाँचों आदमियों को खूब मजबूती से बाँधा।

आफत खाँ का हाथ भी तेजसिंह ने छोड़ दिया और साथ-साथ लिए हुए महाराज जयसिंह की तरफ चले। चारों तरफ धूम मची थी, जालिम खाँ और उसके साथियों के गिरफ्तार हो जाने पर भी लोग काँप रहे थे, महाराज भी दूर से सब तमाशा देख रहे थे। तेजसिंह को आफत खाँ के साथ अपनी तरफ आते देख घबरा गए। म्यान से तलवार खींच ली।

तेजसिंह ने पुकार कर कहा - ‘घबराइए नहीं, हम दोनों आपके दुश्मन नहीं हैं। ये जो हमारे साथ हैं और जिन्हें आप कुछ और समझे हुए हैं, वास्तव में पंडित बद्रीनाथ हैं।’ यह कह आफत खाँ की दाढ़ी हाथ से पकड़ कर झटक दी जिससे बद्रीनाथ कुछ पहचाने गए।

आप महाराज जयसिंह का जी ठिकाने हुआ, पूछा - ‘बद्रीनाथ उनके साथ क्यों थे?’

बद्रीनाथ - ‘महाराज, अगर मैं उनका साथी न बनता तो उन लोगों को यहाँ तक ला कर गिरफ्तार कौन कराता?’

महाराज – ‘तुम्हारे हाथ में यह सिर किसका लटक रहा है?’

बद्रीनाथ - ‘मोम का, बिल्कुल बनावटी।’

अब तो धूम मच गई कि जालिम खाँ को बद्रीनाथ ऐयार ने गिरफ्तार कराया। इनके चारों तरफ भीड़ लग गई, एक पर एक टूटा पड़ता था। बड़ी ही मुश्किल से बद्रीनाथ उस झुंड से अलग किए गए। जालिम खाँ वगैरह को भी मालूम हो गया कि आफत खाँ कृपानिधान बद्रीनाथ ही थे, जिन्होंने हम लोगों को बेढ़ब धोखा दे कर फँसाया, मगर इस वक्त क्या कर सकते थे? हाथ-पैर सभी के बँधे थे, कुछ जोर नहीं चल सकता था, लाचार हो कर बद्रीनाथ को गालियाँ देने लगे। सच है जब आदमी की जान पर आ बनती है तब जो जी में आता है बकता है।

बद्रीनाथ ने उनकी गालियों का कुछ भी ख्याल न किया बल्कि उन लोगों की तरफ देख कर हँस दिया। इनके साथ बहुत से आदमी बल्कि महाराज तक हँस पड़े।

महाराज के हुक्म से सब आदमी महल के बाहर कर दिए गए, सिर्फ थोड़े से मामूली उमदा लोग रह गए और महल के अंदर ही कोठरी में हाथ-पैर जकड़ जालिम खाँ और उसके साथी बंद कर दिए गए। पानी मँगवा कर बद्रीनाथ का हाथ-पैर धुलवाया गया, इसके बाद दीवानखाने में बैठ कर बद्रीनाथ से सब खुलासा हाल जालिम खाँ के गिरफ्तार करने का पूछने लगे जिसको सुनने के लिए तेजसिंह भी व्याकुल हो रहे थे।

बद्रीनाथ ने कहा - ‘महाराज, इस दुष्ट जालिम खाँ से मिलने की पहली तरकीब मैंने यह की कि अपना नाम आफत खाँ रख कर इश्तिहार दिया और अपने मिलने का ठिकाना ऐसी बोली में लिखा कि सिवाय उसके या ऐयारों के किसी को समझ में न आए। यह तो मैं जानता ही था कि यहाँ इस वक्त कोई ऐयार नहीं है जो मेरी इस लिखावट को समझेगा।’

महाराज – ‘हाँ ठीक है, तुमने अपने मिलने का ठिकाना ‘टेटी-चोटी’ लिखा था, इसका क्या अर्थ है?’

बद्रीनाथ - ‘ऐयारी बोली में ‘टेटी-चोटी’ भयानक नाले को कहते हैं।’

इसके बाद बद्रीनाथ ने जालिम खाँ से मिलने का और गेद का तमाशा दिखला के धोखे का गेद उन लोगों के हवाले कर, भुलावा दे, महल में ले आने का पूरा-पूरा हाल कहा, जिसको सुन कर महाराज बहुत ही खुश हुए और इनाम में बहुत-सी जागीर बद्रीनाथ को देना चाही मगर उन्होंने उसको लेने से बिल्कुल इंकार किया और कहा कि बिना मालिक की आज्ञा के मैं आपसे कुछ नहीं ले सकता, उनकी तरफ से मैं जिस काम पर मुकर्रर किया गया था, जहाँ तक हो सका उसे पूरा कर दिया।

इसी तरह के बहुत से उज्र बद्रीनाथ ने किए जिसको सुन महाराज और भी खुश हुए और इरादा कर लिया कि किसी और मौके पर बद्रीनाथ को बहुत कुछ देंगे जबकि वे लेने से इंकार न कर सकेंगे। बात ही बात में सवेरा हो गया, तेजसिंह और बद्रीनाथ महाराज से विदा हो दीवान हरदयालसिंह के घर आए।
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RE: चन्द्रकान्ता - देवकीनन्दन खत्री रचित उपन्यास - by usaiha2 - 30-07-2021, 12:54 PM



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