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चन्द्रकान्ता - देवकीनन्दन खत्री रचित उपन्यास
दोहरा कर लिखने की कोई जरूरत नहीं, खोह में घूमते-फिरते कुँवर वीरेंद्रसिंह और उनके ऐयार जिस तरह इस बाग तक आए थे, उसी तरह इस बाग से दूसरे और दूसरे से तीसरे में होते सब लोग खोह के बाहर हुए और एक घने पेड़ के नीचे सबों को बैठा, देवीसिंह कुमार के लिए घोड़ा लाने नौगढ़ चले गए।

थोड़ा दिन बाकी था जब देवीसिंह घोड़ा ले कर कुमार के पास पहुँचे, जिस पर सवार हो कर कुँवर वीरेंद्रसिंह अपने ऐयारों के साथ नौगढ़ की तरफ रवाना हुए।

नौगढ़ पहुँच कर अपने पिता से मुलाकात की और महल में जा कर अपनी माता से मिले। अपना कुल हाल किसी से नहीं कहा, हाँ, पन्नालाल वगैरह की जुबानी इतना हाल इनको मिला कि कोई जालिम खाँ इन लोगों का दुश्मन पैदा हुआ है जिसने विजयगढ़ में कई खून किए हैं और वहाँ की रियाया उसके नाम से काँप रही है, पंडित बद्रीनाथ उसको गिरफ्तार करने गए हैं, उनके जाने के बाद यह भी खबर मिली है कि एक आफत खाँ नामी दूसरा शख्स पैदा हुआ है जिसने इस बात का इश्तिहार दे दिया है कि फलाने रोज बद्रीनाथ का सिर ले कर महल में पहुँचूंगा, देखूँ मुझे कौन गिरफ्तार करता है।

इन सब खबरों को सुन कर कुँवर वीरेंद्रसिंह, तेजसिंह, देवीसिंह और ज्योतिषी जी बहुत घबराए और सोचने लगे कि जिस तरह हो विजयगढ़ पहुँचना चाहिए क्योंकि अगर ऐसे वक्त में वहाँ पहुँच कर महाराज जयसिंह की मदद न करेंगे और उन शैतानों के हाथ से वहाँ की रियाया को न बचाएँगे तो कुमारी चंद्रकांता को हमेशा के लिए ताना मारने की जगह मिल जाएगी और हम उसके सामने मुँह दिखाने लायक भी न रहेंगे।

इसके बाद यह भी मालूम हुआ कि जीतसिंह पंद्रह दिनों की छुट्टी ले कर कहीं गए हैं। इस खबर ने तेजसिंह को परेशान कर दिया। वह इस सोच में पड़ गए कि उनके पिता कहाँ गए, क्योंकि उनकी बिरादरी में कहीं कुछ काम न था जहाँ जाते, तब इस बहाने से छुट्टी ले कर क्यों गए?

तेजसिंह ने अपने घर में जा कर अपनी माँ से पूछा – ‘हमारे पिता कहाँ गए हैं?’ जिसके जवाब में उस बेचारी ने कहा - ‘बेटा, क्या ऐयारों के घर की औरतें इस लायक होती हैं कि उनके मालिक अपना ठीक-ठीक हाल उनसे कहा करें।’

इतना ही सुन कर तेजसिंह चुप हो गए। दूसरे दिन राजा सुरेंद्रसिंह के पूछने पर तेजसिंह ने इतना कहा – ‘हम लोग कुमारी चंद्रकांता को खोजने के लिए खोह में गए थे, वहाँ एक योगी से मुलाकात हुई जिसने कहा कि अगर महाराज सुरेंद्रसिंह और महाराज जयसिंह को ले कर यहाँ आओ तो मैं चंद्रकांता को बुला कर उसके बाप के हवाले कर दूँ। इसी सबब से हम लोग आपको और महाराज जयसिंह को लेने आए हैं।’

राजा सुरेंद्रसिंह ने खुश हो कर कहा - ‘हम तो अभी चलने को तैयार हैं मगर महाराज जयसिंह तो ऐसी आफत में फँस गए हैं कि कुछ कह नहीं सकते। पंडित बद्रीनाथ यहाँ से गए हैं, देखें क्या होता है। तुमने तो वहाँ का हाल सुना ही होगा।’

तेजसिंह – ‘मैं सब हाल सुन चुका हूँ, हम लोगों को वहाँ पहुँच कर मदद करना मुनासिब है।’

सुरेंद्रसिंह – ‘मैं खुद यह कहने को था। कुमार की क्या राय है, वे जाएँगे या नहीं?’

तेजसिंह – ‘आप खुद जानते हैं कि कुमार काल से भी डरने वाले नहीं, वह जालिम खाँ क्या चीज है।’

राजा – ‘ठीक है, मगर किसी वीर पुरुष का मुकाबला करना हम लोगों का धर्म है और चोर तथा डाकुओं या ऐयारों का मुकाबला करना तुम लोगों का काम है, क्या जाने वह छिप कर कहीं कुमार ही पर घात कर बैठे।’

तेजसिंह – ‘वीरों और बहादुरों से लड़ना कुमार का काम है सही, मगर दुष्ट, चोर-डाकू या और किसी को भी क्या मजाल है कि हम लोगों के रहते कुमार का बाल भी बाँका कर जाए।’

राजा – ‘हम तो नाम के आगे जान कोई चीज नहीं समझते, मगर दुष्ट घातियों से बचे रहना भी धर्म है। सिवाय इसके कुमार के वहाँ गए बिना कोई हर्ज भी नहीं है, अस्तु तुम लोग जाओ और महाराज जयसिंह की मदद करो। जब जालिम खाँ गिरफ्तर हो जाए तो महाराज को सब हाल कह-सुना कर यहाँ लेते आना, फिर हम भी साथ होकर खोह में चलेंगे।’

राजा सुरेंद्रसिंह की मर्जी, कुमार को इस वक्त विजयगढ़ जाने देने की नहीं समझ कर और राजा से बहुत जिद करना भी बुरा ख्याल करके तेजसिंह चुप ही रहे, अकेले ही विजयगढ़ जाने के लिए महाराज से हुक्म लिया और उनके खास हाथ की लिखा हुआ खत का खलीता ले कर विजयगढ़ की तरफ रवाना हुए।
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RE: चन्द्रकान्ता - देवकीनन्दन खत्री रचित उपन्यास - by usaiha2 - 30-07-2021, 12:53 PM



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