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चन्द्रकान्ता - देवकीनन्दन खत्री रचित उपन्यास
बयान - 7

विजयगढ़ के महाराज जयसिंह को पहले यह खबर मिली थी कि तिलिस्म टूट जाने पर भी कुमारी चंद्रकांता की खबर न लगी। इसके बाद यह मालूम हुआ कि कुमारी जीती-जागती है और उसी की खोज में वीरेंद्रसिंह फिर खोह के अंदर गए हैं। इन सब बातों को सुन-सुन कर महाराज जयसिंह बराबर उदास रहा करते थे। महल में महारानी की भी बुरी दशा थी। चंद्रकांता की जुदाई में खाना-पीना बिल्कुल छूटा हुआ था, सूख के काँटा हो रही थीं और जितनी औरतें महल में थीं सभी उदास और दु:खी रहा करती थीं।

एक दिन महाराज जयसिंह दरबार में बैठे थे। दीवान हरदयालसिंह जरूरी अर्जियाँ पढ़ कर सुनाते और हुक्म लेते जाते थे। इतने में एक जासूस हाथ में एक छोटा-सा लिखा हुआ कागज ले कर हाजिर हुआ।

इशारा पा कर चोबदार ने उसे पेश किया। दीवान हरदयालसिंह ने उससे पूछा - ‘यह कैसा कागज लाया है और क्या कहता है?’

जासूस ने अर्ज किया - ‘इस तरह के लिखे हुए कागज शहर में बहुत जगह चिपके हुए दिखाई दे रहे हैं। तिरमुहानियों पर, बाजार में, बड़ी-बड़ी सड़कों पर इसी तरह के कागज नजर पड़ते हैं। मैंने एक आदमी से पढ़वाया था जिसके सुनने से जी में डर पैदा हुआ और एक कागज उखाड़ कर दरबार में ले आया हूँ। बाजार में इन कागजों को पढ़-पढ़ कर लोग बहुत घबरा रहे हैं।’

जासूस के हाथ से कागज ले कर दीवान हरदयालसिंह ने पढ़ा और महाराज को सुनाया। यह लिखा हुआ था -

‘नौगढ़ और विजयगढ़ के राजा आजकल बड़े जोर में आए होंगे। दोनों को इस बात की बड़ी शेखी होगी कि हम चुनारगढ़ फतह करके निश्चित हो गए, अब हमारा कोई दुश्मन नहीं रहा। इसी तरह वीरेंद्रसिंह भी फूले न समाते होंगे। आजकल मजे में खोह की हवा खा रहे हैं। मगर यह किसी को मालूम नहीं कि उन लोगों का बड़ा भारी दुश्मन मैं अभी तक जीता हूँ। आज से मैं अपना काम शुरू करूँगा। नौगढ़ और विजयगढ़ के राजाओं-सरदारों और बड़े-बड़े सेठ साहूकारों को चुन-चुन कर मारूँगा। दोनों राज्य मिट्टी में मिला दूँगा और फिर भी गिरफ्तार न होऊँगा । यह न समझना कि हमारे यहाँ बड़े-बड़े ऐयार हैं, मैं ऐसे-ऐसे ऐयारों को कुछ भी नहीं समझता। मैं भी एक बड़ा भारी ऐयार हूँ लेकिन मैं किसी को गिरफ्तार न करूँगा, बस जान से मार डालना मेरा काम होगा। अब अपनी-अपनी जान की हिफाजत चाहो तो यहाँ से भागते जाओ। खबरदार! खबरदार!! खबरदार!!

- ऐयारों का गुरुघंटाल – जालिम खाँ’

इस कागज को सुन महाराज जयसिंह घबरा उठे। हरदयालसिंह के भी होश जाते रहे और दरबार में जितने आदमी थे सभी काँप उठे। मगर सभी को ढाँढ़स देने के लिए महाराज ने गंभीर भाव से कहा - ‘हम ऐसे-ऐसे लुच्चों के डराने से नहीं डरते। कोई घबराने की जरूरत नहीं। अभी शहर में मुनादी करा दी जाए कि जालिम खाँ को गिरफ्तार करने की फिक्र सरकार कर रही है। यह किसी का कुछ न बिगाड़ सकेगा। कोई आदमी घबरा कर या डर कर अपना मकान न छोड़े। मुनादी के बाद शहर में पहरे का इंतजाम पूरा-पूरा किया जाए और बहुत से जासूस उस शैतान की टोह में रवाना किए जाएँ।’

थोड़ी देर बाद महाराज ने दरबार बर्खास्त किया। दीवान हरदयालसिंह भी सलाम करके घर जाना चाहते थे, मगर महाराज का इशारा पा कर रुक गए।

दीवान को साथ ले महाराज जयसिंह दीवानखाने में गए और एकांत में बैठ कर उसी जालिम खाँ के बारे में सोचने लगे। कुछ देर तक सोच-विचार कर हरदयालसिंह ने कहा - ‘हमारे यहाँ कोई ऐयार नहीं है जिसका होना बहुत जरूरी है।’

महाराज जयसिंह ने कहा - ‘तुम इसी वक्त एक खत यहाँ के हालचाल का राजा सुरेंद्रसिंह को लिखो और वह विज्ञापन (इश्तिहार) भी उसी के साथ भेज दो, जो जासूस लाया था।’

महाराज के हुक्म के मुताबिक हरदयालसिंह ने खत लिख कर तैयार किया और एक जासूस को दे कर उसे पोशीदा तौर पर नौगढ़ की तरफ रवाना किया, इसके बाद महाराज ने महल के चारों तरफ पहरा बढ़ाने के लिए हुक्म दे कर दीवान को विदा किया।

इन सब कामों से छुट्टी पा महाराज महल में गए। रानी से भी यह हाल कहा। वह भी सुन कर बहुत घबराई। औरतों में इस बात की खलबली पड़ गई। आज का दिन और रात इस आश्चर्य में गुजर गई।

दूसरे दिन दरबार में फिर एक जासूस ने कल की तरह एक और कागज ला कर पेश किया और कहा - ‘आज तमाम शहर में इसी तरह के कागज चिपके दिखाई देते हैं।’ दीवान हरदयालसिंह ने जासूस के हाथ से वह कागज ले लिया और पढ़ कर महाराज को सुनाया, यह लिखा था -

‘वाह वाह वाह। आपके किए कुछ न बन पड़ा तो नौगढ़ से मदद माँगने लगे। यह नहीं जानते कि नौगढ़ में भी मैंने उपद्रव मचा रखा है। क्या आपका जासूस मुझसे छिप कर कहीं जा सकता था? मैंने उसे खतम कर दिया। किसी को भेजिए उसकी लाश उठा लावे। शहर के बाहर कोस भर पर उसकी लाश मिलेगी।

- वही - जालिम खाँ’

इस इश्तिहार के सुनने से महाराज का कलेजा काँप उठा। दरबार में जितने आदमी बैठे थे सभी के छक्के छूट गए। अपनी-अपनी फिक्र पड़ गई। महाराज के हुक्म से कई आदमी शहर के बाहर उस जासूस की लाश उठा लाने के लिए भेजे गए, जब तक उसकी लाश दरबार के बाहर लाई जाए एक धूम-सी मच गई। हजारों आदमियों की भीड़ लग गई। सभी की जुबान पर जालिम खाँ सवार था। नाम से लोगों के रोंए खड़े होते थे। जासूस के सिर का पता न था और जो खत वह ले गया था वह उसके बाजू से बँधी हुई थी।

जाहिर है महाराज ने सभी को ढाँढ़स दिया मगर तबीयत में अपनी जान का भी खौफ मालूम हुआ। दीवान से कहा - ‘शहर में मुनादी करा दी जाए कि जो कोई इस जालिम खाँ को गिरफ्तार करेगा उसे सरकार से दस हजार रुपया मिलेगा और यहाँ के कुल हालचाल का खत पाँच सवारों के साथ नौगढ़ रवाना किया जाए।’

यह हुक्म दे कर महाराज ने दरबार बर्खास्त किया। पाँचों सवार जो खत ले कर नौगढ़ रवाना हुए, डर के मारे काँप रहे थे। अपनी जान का डर था। आपस में इरादा कर लिया कि शहर के बाहर होते ही बेतहाशा घोड़े फेंके निकल जाएँगे, मगर न हो सका।
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RE: चन्द्रकान्ता - देवकीनन्दन खत्री रचित उपन्यास - by usaiha2 - 30-07-2021, 12:41 PM



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