30-07-2021, 12:34 PM
फिर ये लोग घूमने लगे, बाग के कोने में इन लोगों को छोटी-छोटी चार खिड़कियाँ नजर आईं, जो एक के साथ एक बराबर-सी बनी हुई थीं। पहले चारों आदमी बाईं तरफ वाली खिड़की में घुसे। थोड़ी दूर जा कर एक दरवाजा मिला जिसके आगे जाने की बिल्कुल राह न थी, क्योंकि नीचे बेढ़ब खतरनाक पहाड़ी दिखाई देती थी।
इधर-उधर देखने और खूब गौर करने से मालूम हुआ कि यह वही दरवाजा है जिसको इशारे से उस योगी ने तेजसिंह को दिखाया था। इस जगह से वह दालान बहुत साफ दिखाई देता था, जिसमें कुमारी चंद्रकांता और चपला बहुत दिनों तक बेबस पड़ी थीं।
ये लोग वापस होकर फिर उसी बाग में चले आए और उसके बगल वाली दूसरी खिड़की में घुसे जो बहुत अँधेरी थी, कुछ दूर जाने पर उजाला नजर पड़ा, बल्कि हद तक पहुँचने पर एक बड़ा-सा खुला फाटक मिला जिससे बाहर होकर ये चारों आदमी खड़े हो, चारों ओर निगाह दौड़ाने लगे।
लंबे-चौड़े मैदान के सिवाय और कुछ न नजर आया। तेजसिंह ने चाहा कि घूम कर इस मैदान का हाल मालूम करें। मगर कई सबबों से वे ऐसा न कर सके। एक तो धूप बहुत कड़ी थी, दूसरे कुमार ने घूमने की राय न दी और कहा - ‘फिर जब मौका होगा इसको देख लेंगे। इस वक्त तीसरी व चौथी खिड़की में चल कर देखना चाहिए कि क्या है।’
चारों आदमी लौट आए और तीसरी खिड़की में घुसे। एक बाग में पहुँचते ही देखा वनकन्या कई सखियों को लिए घूम रही है, लेकिन कुँवर वीरेंद्रसिंह वगैरह को देखते ही तेजी के साथ बाग के कोने में जा कर गायब हो गई।
चारों आदमियो ने उसका पीछा किया और घूम-घूम कर तलाश भी किया मगर कहीं कुछ भी पता न लगा, हाँ जिस कोने में जा कर वे सब गायब हुई थीं, वहाँ जाने पर एक बंद दरवाजा जरूर देखा, जिसके खोलने की बहुत तरकीब की मगर न खुला।
उस बाग के एक तरफ छोटी-सी बारहदरी थी। लाचार हो कर ऐयारों के साथ कुँवर वीरेंद्रसिंह उस बारहदरी में एक ओर बैठ कर सोचने लगे - ‘यह वनकन्या यहाँ कैसे आई? क्या उसके रहने का यही ठिकाना है? फिर हम लोगों को देख कर भाग क्यों गई? क्या अभी हमसे मिलना उसे मंजूर नहीं?’
इन सब बातों को सोचते-सोचते शाम हो गई मगर किसी की अक्ल ने कुछ काम न किया।
इस बाग में मेवों के दरख्त बहुत थे। और एक छोटा-सा चश्मा भी था। चारों आदमियों ने मेवों से अपना पेट भरा और चश्मे का पानी पी कर उसी बारहदरी में जमीन पर ही लेट गए। यह राय ठहरी कि रात को इसी बारहदरी में गुजारा करेंगे, सवेरे जो कुछ होगा देखा जाएगा।
देवीसिंह ने अपने बटुए में से सामान निकाल कर चिराग जलाया, इसके बाद बैठ कर आपस में बातें करने लगे।
कुमार - ‘चंद्रकांता की मुहब्बत में हमारी दुर्गति हो गई, इस पर भी अब तक कोई उम्मीद मालूम नहीं पड़ती।’
तेजसिंह – ‘कुमारी सही-सलामत हैं और आपको मिलेंगी इसमें कोई शक नहीं। जितनी मेहनत से जो चीज मिलती है, उसके साथ उतनी ही खुशी में जिंदगी बीतती है।’
कुमार - ‘तुमने चपला के लिए कौन-सी तकलीफ उठाई?
तेजसिंह – ‘तो चपला ही ने मेरे लिए कौन-सा दुख भोगा? जो कुछ किया, कुमारी चंद्रकांता के लिए।’
ज्योतिषी - ‘क्यों तेजसिंह, क्या यह चपला तुम्हारी ही जाति की है?’
तेजसिंह – ‘इसका हाल तो कुछ मालूम नहीं कि यह कौन जात है, लेकिन जब मुहब्बत हो गई तो फिर चाहे कोई जात हो।’
ज्योतिषी - ‘लेकिन क्या उसका कोई वली वारिस भी नहीं है? अगर तुम्हारी जाति की न हुई तो उसके माँ-बाप कब कबूल करेंगे?’
तेजसिंह – ‘अगर कुछ ऐसा-वैसा हुआ तो उसको मार डालूँगा और अपनी भी जान दे दूँगा।’
कुमार - ‘कुछ इनाम दो तो हम चपला का हाल तुम्हें बता दें।’
तेजसिंह – ‘इनाम में हम चपला ही को आपके हवाले कर देंगे।’
कुमार - ‘खूब याद रखना, चपला फिर हमारी हो जाएगी।’
तेजसिंह – ‘जी हाँ, जी हाँ, आपकी हो जाएगी।’
कुमार - ‘चपला हमारी ही जाति की है। इसका बाप बड़ा भारी जमींदार और पूरा ऐयार था। इसको सात दिन की छोड़ कर इसकी माँ मर गई। इसके बाप ने इसे पाला और ऐयारी सिखाई, अभी कुछ ही वर्ष गुजरे हैं कि इसका बाप भी मर गया। महाराज जयसिंह उसको बहुत मानते थे, उसने उनके बहुत बड़े-बड़े काम किए थे। मरने के वक्त अपनी बिल्कुल जमा-पूँजी और चपला को महाराज के सुपुर्द कर गया, क्योंकि उसका कोई वारिस नहीं था। महाराज जयसिंह इसको अपनी लड़की की तरह मानते हैं और महारानी भी इसे बहुत चाहती हैं। कुमारी चंद्रकांता का और इसका लड़कपन ही से साथ होने के सबब दोनों में बड़ी मुहब्बत है।’
तेजसिंह – ‘आज तो आपने बड़ी खुशी की बात सुनाई, बहुत दिनों से इसका खुटका लगा हुआ था, पर कई बातों को सोच कर आपसे नहीं पूछा। भला यह बातें आपको मालूम कैसे हुईं?’
कुमार - ‘खास चंद्रकांता की जुबानी।’
तेजसिंह – ‘तब तो बहुत ठीक है।’
तमाम रात बातचीत में गुजर गई, किसी को नींद न आई। सवेरे ही उठ कर जरूरी कामों से छुट्टी पा उसी चश्मे में नहा कर संध्या-पूजा की और कुछ मेवा खा जिस राह से उस बाग में गए थे उसी राह से लौट आए और चौथी खिड़की के अंदर क्या है, यह देखने के लिए उसमें घुसे। उसमें भी जा कर एक हरा-भरा बाग देखा, जिसे देखते ही कुमार चौंक पड़े।
इधर-उधर देखने और खूब गौर करने से मालूम हुआ कि यह वही दरवाजा है जिसको इशारे से उस योगी ने तेजसिंह को दिखाया था। इस जगह से वह दालान बहुत साफ दिखाई देता था, जिसमें कुमारी चंद्रकांता और चपला बहुत दिनों तक बेबस पड़ी थीं।
ये लोग वापस होकर फिर उसी बाग में चले आए और उसके बगल वाली दूसरी खिड़की में घुसे जो बहुत अँधेरी थी, कुछ दूर जाने पर उजाला नजर पड़ा, बल्कि हद तक पहुँचने पर एक बड़ा-सा खुला फाटक मिला जिससे बाहर होकर ये चारों आदमी खड़े हो, चारों ओर निगाह दौड़ाने लगे।
लंबे-चौड़े मैदान के सिवाय और कुछ न नजर आया। तेजसिंह ने चाहा कि घूम कर इस मैदान का हाल मालूम करें। मगर कई सबबों से वे ऐसा न कर सके। एक तो धूप बहुत कड़ी थी, दूसरे कुमार ने घूमने की राय न दी और कहा - ‘फिर जब मौका होगा इसको देख लेंगे। इस वक्त तीसरी व चौथी खिड़की में चल कर देखना चाहिए कि क्या है।’
चारों आदमी लौट आए और तीसरी खिड़की में घुसे। एक बाग में पहुँचते ही देखा वनकन्या कई सखियों को लिए घूम रही है, लेकिन कुँवर वीरेंद्रसिंह वगैरह को देखते ही तेजी के साथ बाग के कोने में जा कर गायब हो गई।
चारों आदमियो ने उसका पीछा किया और घूम-घूम कर तलाश भी किया मगर कहीं कुछ भी पता न लगा, हाँ जिस कोने में जा कर वे सब गायब हुई थीं, वहाँ जाने पर एक बंद दरवाजा जरूर देखा, जिसके खोलने की बहुत तरकीब की मगर न खुला।
उस बाग के एक तरफ छोटी-सी बारहदरी थी। लाचार हो कर ऐयारों के साथ कुँवर वीरेंद्रसिंह उस बारहदरी में एक ओर बैठ कर सोचने लगे - ‘यह वनकन्या यहाँ कैसे आई? क्या उसके रहने का यही ठिकाना है? फिर हम लोगों को देख कर भाग क्यों गई? क्या अभी हमसे मिलना उसे मंजूर नहीं?’
इन सब बातों को सोचते-सोचते शाम हो गई मगर किसी की अक्ल ने कुछ काम न किया।
इस बाग में मेवों के दरख्त बहुत थे। और एक छोटा-सा चश्मा भी था। चारों आदमियों ने मेवों से अपना पेट भरा और चश्मे का पानी पी कर उसी बारहदरी में जमीन पर ही लेट गए। यह राय ठहरी कि रात को इसी बारहदरी में गुजारा करेंगे, सवेरे जो कुछ होगा देखा जाएगा।
देवीसिंह ने अपने बटुए में से सामान निकाल कर चिराग जलाया, इसके बाद बैठ कर आपस में बातें करने लगे।
कुमार - ‘चंद्रकांता की मुहब्बत में हमारी दुर्गति हो गई, इस पर भी अब तक कोई उम्मीद मालूम नहीं पड़ती।’
तेजसिंह – ‘कुमारी सही-सलामत हैं और आपको मिलेंगी इसमें कोई शक नहीं। जितनी मेहनत से जो चीज मिलती है, उसके साथ उतनी ही खुशी में जिंदगी बीतती है।’
कुमार - ‘तुमने चपला के लिए कौन-सी तकलीफ उठाई?
तेजसिंह – ‘तो चपला ही ने मेरे लिए कौन-सा दुख भोगा? जो कुछ किया, कुमारी चंद्रकांता के लिए।’
ज्योतिषी - ‘क्यों तेजसिंह, क्या यह चपला तुम्हारी ही जाति की है?’
तेजसिंह – ‘इसका हाल तो कुछ मालूम नहीं कि यह कौन जात है, लेकिन जब मुहब्बत हो गई तो फिर चाहे कोई जात हो।’
ज्योतिषी - ‘लेकिन क्या उसका कोई वली वारिस भी नहीं है? अगर तुम्हारी जाति की न हुई तो उसके माँ-बाप कब कबूल करेंगे?’
तेजसिंह – ‘अगर कुछ ऐसा-वैसा हुआ तो उसको मार डालूँगा और अपनी भी जान दे दूँगा।’
कुमार - ‘कुछ इनाम दो तो हम चपला का हाल तुम्हें बता दें।’
तेजसिंह – ‘इनाम में हम चपला ही को आपके हवाले कर देंगे।’
कुमार - ‘खूब याद रखना, चपला फिर हमारी हो जाएगी।’
तेजसिंह – ‘जी हाँ, जी हाँ, आपकी हो जाएगी।’
कुमार - ‘चपला हमारी ही जाति की है। इसका बाप बड़ा भारी जमींदार और पूरा ऐयार था। इसको सात दिन की छोड़ कर इसकी माँ मर गई। इसके बाप ने इसे पाला और ऐयारी सिखाई, अभी कुछ ही वर्ष गुजरे हैं कि इसका बाप भी मर गया। महाराज जयसिंह उसको बहुत मानते थे, उसने उनके बहुत बड़े-बड़े काम किए थे। मरने के वक्त अपनी बिल्कुल जमा-पूँजी और चपला को महाराज के सुपुर्द कर गया, क्योंकि उसका कोई वारिस नहीं था। महाराज जयसिंह इसको अपनी लड़की की तरह मानते हैं और महारानी भी इसे बहुत चाहती हैं। कुमारी चंद्रकांता का और इसका लड़कपन ही से साथ होने के सबब दोनों में बड़ी मुहब्बत है।’
तेजसिंह – ‘आज तो आपने बड़ी खुशी की बात सुनाई, बहुत दिनों से इसका खुटका लगा हुआ था, पर कई बातों को सोच कर आपसे नहीं पूछा। भला यह बातें आपको मालूम कैसे हुईं?’
कुमार - ‘खास चंद्रकांता की जुबानी।’
तेजसिंह – ‘तब तो बहुत ठीक है।’
तमाम रात बातचीत में गुजर गई, किसी को नींद न आई। सवेरे ही उठ कर जरूरी कामों से छुट्टी पा उसी चश्मे में नहा कर संध्या-पूजा की और कुछ मेवा खा जिस राह से उस बाग में गए थे उसी राह से लौट आए और चौथी खिड़की के अंदर क्या है, यह देखने के लिए उसमें घुसे। उसमें भी जा कर एक हरा-भरा बाग देखा, जिसे देखते ही कुमार चौंक पड़े।