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चन्द्रकान्ता - देवकीनन्दन खत्री रचित उपन्यास
#94
जीतसिंह ने कहा - ‘अभी एक दफा आप लोग चारों ऐयार, मेरे सामने आइए फिर वहाँ जा कर खड़े होइए, पहले अपनी मामूली रस्म तो अदा कर लीजिए।’

मुस्कुराते हुए पंडित बद्रीनाथ, पन्नालाल, रामनारायण और चुन्नीलाल जीतसिंह के सामने आए और बिना कहे जनेऊ और ऐयारी का बटुआ हाथ में ले कर कसम खा कर बोले - ‘आज से मैं राजा सुरेंद्रसिंह और उनके खानदान का नौकर हुआ। ईमानदारी और मेहनत से अपना काम किया करूँगा। तेजसिंह, देवीसिंह और ज्योतिषी जी को अपना भाई समझूंगा। बस अब तो रस्म पूरी हो गई?’

‘बस और कुछ बाकी नहीं।’ इतना कह कर जीतसिंह ने चारों को गले से लगा लिया, फिर ये चारों ऐयार राजा सुरेंद्रसिंह के पीछे जा खड़े हुए।

राजा सुरेंद्रसिंह ने महाराज शिवदत्त से कहा - ‘अच्छा अब मैं विदा होता हूँ। पहरा अभी उठाता हूँ, रात को जब जी चाहे चले जाना, मगर आओ गले तो मिल लें।’

शिवदत्त - (हाथ जोड़ कर) ‘नहीं, मैं इस लायक नहीं रहा कि आपसे गले मिलूँ।’

‘नहीं जरूर ऐसा करना होगा।’ कह कर सुरेंद्रसिंह ने शिवदत्त को जबरदस्ती गले लगा लिया और उदास मुख से विदा हो, अपने महल की तरफ रवाना हुए। मकान के चारों तरफ से पहरा उठाते गए।

जीतसिंह, बद्रीनाथ, पन्नालाल, रामनारायण और चुन्नीलाल को साथ लिए राजा सुरेंद्रसिंह अपने दीवानखाने में जा कर बैठे। घंटों तक महाराज शिवदत्त के बारे में अफसोस भरी बातचीत होती रही। मौका पा कर जीतसिंह ने अर्ज किया - ‘अब तो हमारे दरबार में और चार ऐयार हो गए हैं जिसकी बहुत ही खुशी है। अगर ताबेदार को पंद्रह दिन की छुट्टी मिल जाती तो अच्छी बात थी, यहाँ से दूर बेरादरी में कुछ काम है, जाना जरूरी है।’

सुरेंद्रसिंह – ‘इधर एक-एक, दो-दो रोज की कई दफा तुम छुट्टी ले चुके हो।’

जीतसिंह – ‘जी हाँ, घर ही में कुछ काम था मगर अब की तो दूर जाना है इसलिए पंद्रह दिन की छुट्टी माँगता हूँ। मेरी जगह पर पंडित बद्रीनाथ जी काम करेंगे, किसी बात का हर्ज न होगा।’

सुरेंद्रसिंह – ‘अच्छा जाओ, लेकिन जहाँ तक हो सके जल्द आना।’

राजा सुरेंद्रसिंह से विदा हो जीतसिंह अपने घर गए और बद्रीनाथ वगैरह चारों ऐयारों को भी कुछ समझाने-बुझाने के लिए साथ लेते गए।
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RE: चन्द्रकान्ता - देवकीनन्दन खत्री रचित उपन्यास - by usaiha2 - 30-07-2021, 12:32 PM



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