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चन्द्रकान्ता - देवकीनन्दन खत्री रचित उपन्यास
#90
बयान - 2

आखिर कुँवर वीरेंद्रसिंह ने तेजसिंह से कहा - ‘मुझे अभी तक यह न मालूम हुआ कि योगी जी ने उँगली के इशारे से तुम्हें क्या दिखाया और इतनी देर तक तुम्हारा ध्यान कहाँ अटका रहा, तुम क्या देखते रहे और अब वे दोनों कहाँ गायब हो गए।’

तेजसिंह - ‘क्या बताएँ कि वे दोनों कहाँ चले गए, कुछ खुलासा हाल उनसे न मिल सका, अब बहुत आश्चर्य करना पड़ेगा।’

वीरेंद्र – ‘आखिर तुम उस तरफ क्या देख रहे थे?’

तेजसिंह – ‘हम क्या देखते थे, इस हाल के कहने में बड़ी देर लगेगी और अब यहाँ इन मुर्दों की बदबू से रुका नहीं जाता। इन्हें इसी जगह छोड़, इस तिलिस्म के बाहर चलिए, वहाँ जो कुछ हाल है कहूँगा। मगर यहाँ से चलने के पहले उसे देख लीजिए, जिसे इतनी देर तक मैं ताज्जुब से देख रहा था। वह दोनों पहाड़ियों के बीच में जो दरवाजा खुला नजर आ रहा है, सो पहले बंद था, यही ताज्जुब की बात थी। अब चलिए, मगर हम लोगों को कल फिर यहाँ लौटना पड़ेगा। यह तिलिस्म ऐसे राह पर बना हुआ है कि अंदर-अंदर यहाँ तक आने में लगभग पाँच कोस का फासला मालूम पड़ता है और बाहर की राह से अगर इस तहखाने तक आएँ तो पंद्रह कोस चलना पड़ेगा।

कुमार - ‘खैर, यहाँ से चलो, मगर इस हाल को खुलासा सुने बिना तबीयत घबरा रही है।’

जिस तरह चारों आदमी तिलिस्म की राह से यहाँ तक पहुँचे थे उसी तरह तिलिस्म के बाहर हुए। आज इन लोगों को बाहर आने तक आधी रात बीत गई। इनके लश्कर वाले घबरा रहे थे कि पहले तो पहर दिन बाकी रहते बाहर निकल आते थे, आज देर क्यों हुई? जब ये लोग अपने खेमे में पहुँचे तो सभी का जी ठिकाने हुआ। तेजसिंह ने कुमार से कहा - ‘इस वक्त आप सो रहें हैं, कल आपसे जो कुछ कहना है कहूँगा।’
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RE: चन्द्रकान्ता - देवकीनन्दन खत्री रचित उपन्यास - by usaiha2 - 30-07-2021, 12:30 PM



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