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चन्द्रकान्ता - देवकीनन्दन खत्री रचित उपन्यास
#87
बयान - 20

तिलिस्म के दरवाजे पर कुँवर वीरेंद्रसिंह का डेरा खड़ा हो गया। खजाना पहले ही निकाल चुके थे, अब कुल दो टुकड़े तिलिस्म के टूटने को बाकी थे, एक तो वह चबूतरा जिस पर पत्थर का आदमी सोया था, दूसरे अजदहे वाले दरवाजे को तोड़ कर वहाँ पहुँचना जहाँ कुमारी चंद्रकांता और चपला थीं। तिलिस्मी किताब कुमार के हाथ लग ही चुकी थी, उसके कई पन्ने बाकी रह गए थे, आज बिल्कुल पढ़ गए। कुमारी चंद्रकांता के पास पहुँचने तक जो-जो काम इनको करने थे, सब ध्यान में चढ़ा लिए, मगर उस चबूतरे के तोड़ने की तरकीब किताब में न देखी जिस पर पत्थर का आदमी सोया हुआ था, हाँ उसके बारे में इतना लिखा था कि वह चबूतरा एक दूसरे तिलिस्म का दरवाजा है जो इस तिलिस्म से कहीं बढ़-चढ़ कर है और माल-खजाने की तो इंतहा नहीं कि कितना रखा हुआ है। वहाँ की एक-एक चीज ऐसे ताज्जुब की है कि जिसके देखने से बड़े-बड़े दिमाग वालों की अक्ल चकरा जाए। उसके तोड़ने की तरकीब दूसरी ही है, ताली भी उसकी उसी आदमी के कब्जे में है जो उस पर सोया हुआ है।’

कुमार ने ज्योतिषी जी की तरफ देख कर कहा - ‘क्यों ज्योतिषी जी, क्या वह चबूतरे वाला तिलिस्म मेरे हाथ से न टूटेगा?’

ज्योतिषी – ‘देखा जाएगा, पहले आप कुमारी चंद्रकांता को छुड़ाइए।’

कुमार - ‘अच्छा चलिए, यह काम तो आज ही खत्म हो जाए।’

तीनों ऐयारों को साथ ले कर कुँवर वीरेंद्रसिंह उस तिलिस्म में घुसे। जो कुछ उस तिलिस्मी किताब में लिखा हुआ था खूब ख्याल कर लिया और उसी तरह काम करने लगे।

खँडहर के अंदर जा कर उस मालूमी दरवाजे को खोला जो उस पत्थर वाले चबूतरे के सिरहाने की तरफ था। नीचे उतर कर कोठरी में से होते हुए उसी बाग में पहुँचे जहाँ खजाने और बारहदरी के सिंहासन के ऊपर का वह पत्थर हाथ लगा था, जिसको छू कर चपला बेहोश हो गई थी और जिसके बारे में तिलिस्मी किताब में लिखा हुआ था कि वह एक डिब्बा है और उसके अंदर एक नायाब चीज रखी है।

चारों आदमी नहर के रास्ते गोता मार कर उसी तरह बाग के उस पार हुए जिस तरह चपला उसके बाहर गई थी और उसी की तरह पहाड़ी के नीचे वाली नहर के किनारे-किनारे चलते हुए उस छोटे-से दालान में पहुँचे जिसमें वह अजदहा था जिसके मुँह में चपला घुसी थी।

एक तरफ दीवार में आदमी के बराबर काला पत्थर जड़ा हुआ था। कुमार ने उस पर जोर से लात मारी, साथ ही वह पत्थर पल्ले की तरह खुल के बगल में हो गया और नीचे उतरने की सीढ़ियाँ दिखाई पड़ीं।

मशाल वाले चारों आदमी नीचे उतरे, यहाँ उस अजदहे की बिल्कुल कारीगरी नजर पड़ी। कई चरखी और पुरजों के साथ लगी हुई भोजपत्र की बनी मोटी भाथी उसके नीचे थी जिसको देखने से कुमार समझ गए कि जब अजदहे के सामने वाले पत्थर पर कोई पैर रखता है तो यह भाथी चलने लगती है और इसकी हवा की तेजी सामने वाले आदमी को खींच कर अजदहे के मुँह में डाल देती है।

बगल में एक खिड़की थी जिसका दरवाजा बंद था। सामने ताली रखी हुई थी जिससे ताला खोल कर चारों आदमी उसके अंदर गए। यहाँ से वे लोग छत पर चढ़ गए जहाँ से गली की तरह एक खोह दिखाई पड़ी।

किताब से पहले ही मालूम हो चुका था कि यही खोह की-सी गली उस दालान में जाने के लिए राह है, जहाँ चपला और चंद्रकांता बेबस पड़ी हैं।

अब कुमारी चंद्रकांता से मुलाकात होगी, इस ख्याल से कुमार का जी धड़कने लगा, चपला की मुहब्बत ने तेजसिंह के पैर हिला दिए। खुशी-खुशी ये लोग आगे बढ़े। कुमार सोचते जाते थे कि आज जैसे निराले में कुमारी चंद्रकांता से मुलाकात होगी वैसी पहले कभी न हुई थी। मैं अपने हाथों से उसके बाल सुलझाउँगा, अपनी चादर से उसके बदन की गर्द झड़ूँगा। हाय, बड़ी भारी भूल हो गई, कि कोई धोती उसके पहनने के लिए नहीं लाए, किस मुँह से उसके सामने जाऊँगा, वह फटे कपड़ों में कैसी दु:खी होगी? मैं उसके लिए कोई कपड़ा नहीं लाया इसलिए वह जरूर खफा होगी और मुझे खुदगर्ज समझेगी। नहीं-नहीं वह कभी रंज न होगी। उसको मुझसे बड़ी मुहब्बत है, देखते ही खुश हो जाएगी, कपड़े का कुछ ख्याल न करेगी। हाँ, खूब याद पड़ा, मैं अपनी चादर अपनी कमर में लपेट लूँगा और अपनी धोती उसे पहिनाऊँगा, इस वक्त का काम चल जाएगा। (चौंक कर) यह क्या, सामने कई आदमियों के पैरों की चाप सुनाई पड़ती है? शायद मेरा आना मालूम करके कुमारी चंद्रकांता और चपला आगे से मिलने को आ रही हैं। नहीं-नहीं, उनको क्या मालूम कि मैं यहाँ आ पहुँचा।

ऐसी-ऐसी बातें सोचते और धीरे-धीरे कुमार बढ़ रहे थे कि इतने में ही आगे दो भेड़ियों के लड़ने और गुर्राने की आवाज आई जिसे सुनते ही कुमार के पैर दो-दो मन के हो गए। तेजसिंह की तरफ देख कर कुछ कहना चाहते थे मगर मुँह से आवाज न निकली। चलते-चलते उस दालान में पहुँचे जहाँ नीचे खोह के अंदर से कुमारी और चपला को देखा था।

पूरी उम्मीद थी कि कुमारी चंद्रकांता और चपला को यहाँ देखेंगे, मगर वे कहीं नजर न आईं, हाँ जमीन पर पड़ी दो लाशें जरूर दिखाई दीं जिनमें मांस बहुत कम था, सिर से पैर तक नुची हड्डियाँ दिखाई देती थीं, चेहरे किसी के भी दुरुस्त न थे।

इस वक्त कुमार की कैसी दशा थी वे ही जानते होंगे। पागलों की-सी सूरत हो गई, चिल्ला कर रोने और बकने लगे - ‘हाय चंद्रकांता, तुझे कौन ले गया? नहीं, ले नहीं बल्कि मार गया। जरूर इन्हीं भेड़ियों ने तुझे मुझसे जुदा किया जिनकी आवाज यहाँ पहुँचने के पहले मैंने सुनी थी। हाय। वह भेड़िया बड़ा ही बेवकूफ था जो उसने तेरे खाने में जल्दी की, उसके लिए तो मैं पहुँच ही गया था, मेरा खून पी कर वह बहुत खुश होता क्योंकि इसमें तेरी मुहब्बत की मिठास भरी हुई है। तेरे में क्या बचा था, सूख के पहले ही काँटा हो रही थी। मगर क्या सचमुच तुझे भेड़िया खा गया या मैं भूलता हूँ? क्या यह दूसरी जगह तो नहीं है?

नहीं-नहीं, वह सामने दुष्ट शिवदत्त बैठा है। हाय अब मैं जी कर क्या करूँगा, मेरी जिंदगी किस काम आएगी, मैं कौन-सा मुँह ले कर महाराज जयसिंह के सामने जाऊँगा, जल्दी मत करो, धीरे-धीरे चलो, मैं भी आता हूँ, तुम्हारा साथ मरने पर भी न छोडूँगा। आज नौगढ़, विजयगढ़ और चुनारगढ़ तीनों राज्य ठिकाने लग गए। मैं तो तुम्हारे पास आता ही हूँ, मेरे साथ ही और कई आदमी आएँगे जो तुम्हारी खिदमत के लिए बहुत होंगे। हाय, इस सत्यानाशी तिलिस्म ने, इस दुष्ट शिवदत्त ने, इन भेड़ियों ने, आज बड़े-बड़े दिलावरों को खाक में मिला दिया। बस हो गया, दुनिया इतनी ही बड़ी थी, अब खतम हो गई। हाँ-हाँ, दौड़ी क्यों जाती हो, लो मैं भी आया।’

इतना कह और पहाड़ी के नीचे की तरफ देख कुमार कूद कर अपनी जान देना ही चाहते थे और तीनों ऐयार सन्न खड़े देख ही रहे थे कि...
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RE: चन्द्रकान्ता - देवकीनन्दन खत्री रचित उपन्यास - by usaiha2 - 30-07-2021, 12:27 PM



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