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चन्द्रकान्ता - देवकीनन्दन खत्री रचित उपन्यास
#85
बयान - 18

तेजसिंह वगैरह ऐयारों के साथ कुमार खोह से निकल कर तिलिस्म की तरफ रवाना हुए। एक रात रास्ते में बिता कर दूसरे दिन सवेरे जब रवाना हुए तो एक नकाबपोश सवार दूर से दिखाई पड़ा, जो कुमार की तरफ ही आ रहा था। जब इनके करीब पहुँचा, घोड़े से उतर जमीन पर कुछ रख दूर जा खड़ा हुआ। कुमार ने वहाँ जा कर देखा तो तिलिस्मी किताब नजर पड़ी और एक खत, जिसे देख वे बहुत खुश हो कर तेजसिंह से बोले - ‘तेजसिंह, क्या करें, यह वनकन्या मेरे ऊपर बराबर अपने अहसान के बोझ डाल रही है। इसमें कोई शक नहीं कि यह उसी का आदमी है तो तिलिस्मी किताब मेरे रास्ते में रख दूर जा खड़ा हुआ है। हाय, इसके इश्क ने भी मुझे निकम्मा कर दिया है। देखें इस खत में क्या लिखा है।’

यह कह कर कुमार ने खत पढ़ा -

‘किसी तरह यह तिलिस्मी किताब मेरे हाथ लग गई जो तुम्हें देती हूँ। अब जल्दी तिलिस्म तोड़ कर कुमारी चंद्रकांता को छुड़ाओ। वह बेचारी बड़ी तकलीफ में पड़ी होगी। चुनारगढ़ में लड़ाई हो रही है, तुम भी वहीं जाओ और अपनी जवाँमर्दी दिखा कर फतह अपने नाम लिखाओ।

- तुम्हारी दासी...

वियोगिनी।’

कुमार - ‘तेजसिंह तुम भी पढ़ लो।’

तेजसिंह - (खत पढ़ कर) ‘न मालूम यह वनकन्या मनुष्य है या अप्सरा, कैसे-कैसे काम इसके हाथ से होते हैं।’

कुमार - (ऊँची साँस ले कर) ‘हाय, एक बला हो तो सिर से टले?’

देवीसिंह – ‘मेरी राय है कि आप लोग यहीं ठहरें, मैं चुनारगढ़ जा कर पहले सब हाल दरियाफ्त कर आता हूँ।’

कुमार – ‘ठीक है, अब चुनारगढ़ सिर्फ पाँच कोस होगा, तुम वहाँ की खबर ले आओ, तब हम चलें क्योंकि कोई बहादुरी का काम करके हम लोगों का जाहिर होना ज्यादा मुनासिब होगा।’

देवीसिंह चुनारगढ़ की तरफ रवाना हुए। कुमार को रास्ते में एक दिन और अटकना पड़ा, दूसरे दिन देवीसिंह लौट कर कुमार के पास आए और चुनारगढ़ की लड़ाई का हाल, महाराज जयसिंह के गिरफ्तार होने की खबर, और जीतसिंह की ऐयारी की तारीफ कर बोले - ‘लड़ाई अभी हो रही है, हमारी फौज कई दफा चढ़ कर किले के दरवाजे तक पहुँची मगर वहाँ अटक कर दरवाजा नहीं तोड़ सकी, किले की तोपों की मार ने हमारा बहुत नुकसान किया।’

इन खबरों को सुन कर कुमार ने तेजसिंह से कहा - ‘अगर हम लोग किसी तरह किले के अंदर पहुँच कर फाटक खोल सकते तो बड़ी बहादुरी का काम होता।’

तेजसिंह – ‘इसमें तो कोई शक नहीं कि यह बड़ी दिलावरी का काम है, या तो किले का फाटक ही खोल देंगे, या फिर जान से हाथ धोवेंगे।’

कुमार - ‘हम लोगो के वास्ते लड़ाई से बढ़ कर मरने के लिए और कौन-सा मौका है? या तो चुनारगढ़ फतह करेंगे या बैकुंठ की ऊँची गद्दी दखल करेंगे, दोनों हाथ लड्डू हैं।’

तेजसिंह – ‘शाबाश, इससे बढ़ कर और क्या बहादुरी होगी, तो चलिए हम लोग भेष बदल कर किले में घुस जाएँ। मगर यह काम दिन में नहीं हो सकता।’

कुमार - ‘क्या हर्ज है, रात ही को सही। रात-भर किले के अंदर ही छिपे रहेंगे, सुबह जब लड़ाई खूब रंग पर आएगी उसी वक्त फाटक पर टूट पड़ेंगे। सब ऊपर फसीलों पर चढ़े होंगे, फाटक पर सौ-पचास आदमियों में घुस कर दरवाजा खोल देना कोई बात नहीं है।’

देवीसिंह – ‘कुमार की राय बहुत सही है, मगर ज्योतिषी जी को बाहर ही छोड़ देना चाहिए।’

ज्योतिषी – ‘सो क्यों?’

देवीसिंह – ‘आप ब्राह्मण हैं, वहाँ क्यों ब्रह्महत्या के लिए आपको ले चलें, यह काम क्षत्रियों का है, आपका नहीं।’

कुमार - ‘हाँ ज्योतिषी जी, आप किले में मत जाइए।’

ज्योतिषी – ‘अगर मैं ऐयारी न जानता होता तो आपका ऐसा कहना मुनासिब था, मगर जो ऐयारी जानता है उसके आगे जवाँमर्दी और दिलावरी हाथ जोड़े खड़ी रहती हैं।’

देवीसिंह – ‘अच्छा चलिए फिर, हमको क्या, हमें तो और फायदा ही है।’

कुमार - ‘फायदा क्या?’

देवीसिंह - इसमें तो कोई शक नहीं ज्योतिषी जी हम लोगों के पूरे दोस्त हैं, कभी संग न छोड़ेंगे, अगर यह मर भी जाएँगे तो ब्रह्मराक्षस होंगे, और भी हमारा काम इनसे निकला करेगा।’

ज्योतिषी – ‘क्या हमारी ही अवगति होगी? अगर ऐसा हुआ तो तुम्हें कब छोडूँगा तुम्हीं से ज्यादा मुहब्बत है।’

इनकी बातों पर कुमार हँस पड़े और घोड़े पर सवार हो ऐयारों को साथ ले चुनारगढ़ की तरफ रवाना हुए। शाम होते-होते ये लोग चुनारगढ़ पहुँचे और रात को मौका पा कमंद लगा किले के अंदर घुस गए।
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RE: चन्द्रकान्ता - देवकीनन्दन खत्री रचित उपन्यास - by usaiha2 - 30-07-2021, 12:25 PM



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