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चन्द्रकान्ता - देवकीनन्दन खत्री रचित उपन्यास
#84
पाठक समझ गए होंगे कि यह चोबदार साहब कौन थे। ये ऐयारों के सिरताज जीतसिंह थे। 

चोबदार बन ऐयारों को खौफ दिला कर अपने साथ ले आए और घुमाते-फिराते वह जगह देख ली जहाँ महाराज जयसिंह कैद थे, फिर धोखा दे कर इन ऐयारों को उस कोठरी में बंद कर दिया जिसे पहले ही से अपने ढंग का बना रखा था।

इस कोठरी के अंदर पहले ही से बेहोशी की बारूद पाव भर के अंदाज कोने में रख दी थी और लंबी पलीती बारूद के साथ लगा कर, चौखट के बाहर निकाल दी थी।

पलीती में आग लगा और दरवाजे को उसी तरह बंद छोड़, उस जगह गए जहाँ महाराज जयसिंह कैद थे। वहाँ बिल्कुल सन्नाटा था, दरवाजा खोल बेड़ी और हथकड़ी काट कर उन्हें बाहर निकाला और अपना नाम बता कर कहा - ‘जल्द यहाँ से चलिए।’

जिधर से जीतसिंह कमंद लगा कर किले में आए थे उसी राह से महाराज जयसिंह को नीचे उतारा और तब कहा - ‘आप नीचे ठहरिए, मैंने ऐयारों को भी बेहोश किया है, एक-एक करके कमंद में बाँध कर उन लोगों को लटकाता जाता हूँ आप खोलते जाइए। अंत में मैं भी उतर कर आपके साथ लश्कर में चलूँगा।’ महाराज जयसिंह ने खुश हो कर इसे मंजूर किया।

जीतसिंह ने लौट कर उस कोठरी की जंजीर खोली जिसमें बद्रीनाथ वगैरह चारों ऐयारों को फँसाया था। अपने नाक में लखलखे से तर की हुई रूई डाल कोठरी के अंदर घुसे, तमाम कोठरी को धुएँ से भरा हुआ पाया, बत्ती जला बद्रीनाथ वगैरह बेहोश ऐयारों को घसीट कर बाहर लाए और किले की पिछली दीवार की तरफ ले जा कर एक-एक करके सभी को नीचे उतार आप भी उतर आए। चारो ऐयारो को एक तरफ छिपा, महाराज जयसिंह को लश्कर में पहुँचाया, फिर कई कहारों को साथ ले उस जगह जा, ऐयारों को उठवा लाए, हथकड़ी-बेड़ी डाल कर खेमे में कैद कर पहरा मुकर्रर कर दिया।

महाराज जयसिंह और सुरेंद्रसिंह गले मिले, जीतसिंह की बहुत कुछ तारीफ करके दोनों राजों ने कई इलाके उनको दिए, जिनकी सनद भी उसी वक्त मुहर करके उनके हवाले की गई।

रात बीत गई, पूरब की तरफ से धीरे-धीरे सफेदी निकलने लगी और लड़ाई बंद कर दी गई।
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RE: चन्द्रकान्ता - देवकीनन्दन खत्री रचित उपन्यास - by usaiha2 - 30-07-2021, 12:24 PM



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