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चन्द्रकान्ता - देवकीनन्दन खत्री रचित उपन्यास
#82
दीवान हरदयालसिंह राजा सुरेंद्रसिंह से विदा हो अपने डेरे की तरफ रवाना हुए। दीवान जीतसिंह ने फतहसिंह को बुला कर लड़ाई के बारे में बहुत कुछ समझा&बुझा के विदा किया और आप भी हुक्म ले कर अपने खेमे में गए। पहले पूजा, भोजन इत्यादि से छुट्टी पाई, तब ऐयारी का सामान दुरुस्त करने लगे।

दीवान जीतसिंह का एक बहुत पुराना बूढ़ा खिदमतगार था जिसको ये बहुत मानते थे। इनका ऐयारी का सामान उसी के सुपुर्द रहा करता था। नौगढ़ से रवाना होते दफा अपना ऐयारी का असबाब दुरुस्त करके ले चलने का इंतजाम, इसी बूढ़े के सुपुर्द किया। इनको ऐयारी छोड़े मुद्दत हो चुकी थी मगर जब उन्होंने अपने राजा को लड़ाई पर जाते देखा और यह भी मालूम हुआ कि हमारे ऐयार लोग कुमार की खोज में गए है, शायद कोई जरूरत पड़ जाए, तब बहुत-सी बातों को सोच इन्होंने अपना सब सामान दुरुस्त करके साथ ले लेना ही मुनासिब समझा था। उसी बूढ़े खिदमतगार से ऐयारी का संदूक मँगवाया ओैर सामान दुरुस्त करके बटुए में भरने लगे। इन्होंने बेहोशी की दवाओं का तेल उतारा था, उसे भी एक शीशी में बंद कर बटुए में रख लिया। पहर दिन बाकी रहे तक सामान दुरुस्त कर एक जमींदार की सूरत बना अपने खेमे के बाहर निकल गए।


जीतसिंह लश्कर से निकल कर किले के दक्खिन की एक पहाड़ी की तरफ रवाना हुए और थोड़ी दूर जाने के बाद सुनसान मैदान पा कर एक पत्थर की चट्टान पर बैठ गए। बटुए में से कलम-दवात और कागज निकाला और कुछ लिखने लगे जिसका मतलब यह था - ‘तुम लोगों की चालाकी कुछ काम न आई और आखिर मैं किले के अंदर घुस ही आया। देखो क्या ही आफत मचाता हूँ। तुम चारों ऐयार हो और मैं ऐयारी नहीं जानता इस पर भी तुम लोग मुझे गिरफ्तार नहीं कर सकते, लानत है तुम्हारी ऐयारी पर।’

इस तरह के बहुत से पुरजे लिख कर और थोड़ी-सी गोंद तैयार कर बटुए में रख ली और किले की तरफ रवाना हुए। पहुँचते-पहुँचते शाम हो गई, अस्तु किले के इधर-उधर घूमने लगे। जब खूब अँधेरा हो गया, मौका पा कर एक दीवार पर जो नीची और टूटी हुई थी, कमंद लगा कर चढ़ गए। अंदर सन्नाटा पा कर उतरे और घूमने लगे।

किले के बाहर दीवान हरदयालसिंह और फतहसिंह ने दिल खोल कर लड़ाई मचा रखी थी, दनादन तोपों की आवाजें आ रही थीं, किले की फौज बुर्जियों या मीनारों पर चढ़ कर लड़ रही थी और बहुत से आदमी भी दरवाजे की तरफ खड़े घबराए हुए लड़ाई का नतीजा देख रहे थे, इस सबब से जीतसिंह को बहुत कुछ मौका मिला।

उन पुरजों को जिन्हें पहले से लिख कर बटुए में रख छोड़ा था, इधर-उधर दीवारों और दरवाजों पर चिपकाना शुरू किया, जब किसी को आते देखते हट कर छिप रहते और सन्नाटा होने पर फिर अपना काम करते, यहाँ तक कि सब कागजों को चिपका दिया।

किले के फाटक पर लड़ाई हो रही है, जितने अफसर और ऐयार हैं सब उसी तरफ जुटे हुए हैं, किसी को यह खबर नहीं कि ऐयारों के सिरताज जीतसिंह किले के अंदर आ घुसे और अपनी ऐयारी की फिक्र कर रहे हैं। वे चाहते हैं कि इतने लंबे-चौड़े किले में महाराज जयसिंह कहाँ कैद हैं इस बात का पता लगावें और उन्हें छुड़ावें, और साथ ही शिवदत्त के भी ऐयारों को गिरफ्तार करके लेते चलें, एक ऐयार भी बचने न पाए जो फँसे हुए ऐयारों को छुड़ाने की फिक्र करे या छुड़ाए।
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RE: चन्द्रकान्ता - देवकीनन्दन खत्री रचित उपन्यास - by usaiha2 - 30-07-2021, 12:23 PM



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