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चन्द्रकान्ता - देवकीनन्दन खत्री रचित उपन्यास
#81
बयान - 16

राजा सुरेंद्रसिंह भी नौगढ़ से रवाना हो, दौड़े-दौड़े बिना मुकाम किए दो रोज में चुनारगढ़ के पास पहुँचे। शाम के वक्त महाराज जयसिंह को खबर लगी। फतहसिंह सेनापति को, जो उनके लश्कर के साथ थे, इस्तकबाल के लिए रवाना किया।

फतहसिंह की जुबानी राजा सुरेंद्रसिंह ने सब हाल सुना। सुबह होते-होते इनका लश्कर भी चुनारगढ़ पहुँचा और जयसिंह के लश्कर के साथ मिल कर पड़ाव डाला गया। राजा सुरेंद्रसिंह ने फतहसिंह को, महाराज जयसिंह के पास भेजा कि आ कर मुलाकात के लिए बातचीत करें।

फतहसिंह राजा सुरेंद्रसिंह के खेमे से निकल कुछ ही दूर गए थे कि महाराज जयसिंह के दीवान हरदयालसिंह सरदारों को साथ लिए परेशान और बदहवास आते दिखाई पड़े जिन्हें देख यह अटक गए, कलेजा धक-धक करने लगा। जब वे लोग पास आए तो पूछा - ‘क्या हाल है जो आप लोग इस तरह घबराए हुए आ रहे हैं?’

एक सरदार – ‘कुछ न पूछो बड़ी आफत आ पड़ी।’

फतहसिंह - (घबरा कर) ‘सो क्या?’

दूसरा सरदार – ‘राजा साहब के पास चलो, वहीं सब-कुछ कहेंगे।’

उन सभी को लिए हुए फतहसिंह राजा सुरेंद्रसिंह के खेमे में आए। कायदे के माफिक सलाम किया, बैठने के लिए हुक्म पा कर बैठ गए।

राजा सुरेंद्रसिंह को भी इन लोगों के बदहवास आने से खुटका हुआ। हाल पूछने पर हरदयालसिंह ने कहा - ‘आज बहुत सवेरे किले के अंदर से तोप की आवाज आई, जिसे सुन कर खबर करने के लिए मैं महाराज के खेमे में आया। दरवाजे पर पहरे वालों को बेहोश पड़े देख कर ताज्जुब मालूम हुआ मगर मैं बराबर खेमे के अंदर चला गया। अंदर जा कर देखा तो महाराज का पलँग खाली पाया। देखते ही जी सन्न हो गया, पहरे वालों को देख कर कविराज जी ने कहा इन लोगों को बेहोशी की दवा दी गई है, तुरंत ही कई जासूस महाराज का पता लगाने के लिए इधर-उधर भेजे गए मगर अभी तक कुछ भी खबर नहीं मिली।’

यह हाल सुन कर सुरेंद्रसिंह ने जीतसिंह की तरफ देखा, जो उनके बाईं तरफ बैठे हुए थे।

जीतसिंह ने कहा - ‘अगर खाली महाराज गायब हुए होते तो मैं कहता कि कोई ऐयार किसी दूसरी तरकीब से ले गया, मगर जब कई आदमी अभी तक बेहोश पड़े हैं तो विश्वास होता है कि महाराज के खाने-पीने की चीजों में बेहोशी की दवा दी गई। अगर उनका रसोइया आए तो पूरा पता लग सकता है।’ सुनते ही राजा सुरेंद्रसिंह ने हुक्म दिया कि महाराज के रसोइए हाजिर किए जाएँ।

कई चोबदार दौड़ गए। बहुत दूर जाने की जरूरत न थी, दोनों लश्करों का पड़ाव साथ ही साथ पड़ा था। चोबदार खबर ले कर बहुत जल्द लौट आए कि रसोइया कोई नहीं है। उसी वक्त कई आदमियों ने आ कर यह भी खबर दी कि महाराज के रसोइए और खिदमतगार लश्कर के बाहर पाए गए जिनको डोली पर लाद कर लोग यहाँ लिए आते हैं।

दीवान तेजसिंह ने कहा - ‘सब डोलियाँ बाहर रखी जाएँ, सिर्फ एक रसोइए की डोली यहाँ लाई जाए।’

बेहोश रसोइया खेमे के अंदर लाया गया, जिसे जीतसिंह लखलख सूँघा कर होश में लाए और उससे बेहोश होने का सबब पूछा।

जवाब में उसने कहा – ‘पहर रात गए हम लोगों के पास एक हलवाई खोमचा लिए हुए आया जो बोलने में बहुत ही तेज और अपने सौदे की बेहद तारीफ करता था, हम लोगों ने उससे कुछ सौदा खरीद कर खाया, उसी समय सिर घूमने लगा, दाम देने की भी सुधा न रही, इसके बाद क्या हुआ कुछ मालूम नहीं।’

यह सुन दीवान जीतसिंह ने कहा - ‘बस-बस, सब हाल मालूम हो गया, अब तुम अपने डेरे में जाओ।’ इसके बाद थोड़ा&सा लखलखा दे कर उन सरदारों को भी विदा किया और यह कह दिया कि इसे सूँघा कर आप उन लोगों को होश में लाइए, जो बेहोश हैं और दीवान हरदयालसिंह को कहा कि अभी आप यहीं बैठिए।

सब आदमी विदा कर दिए गए, राजा सुरेंद्रसिंह, जीतसिंह और दीवान हरदयालसिंह रह गए।

राजा सुरेंद्र - (दीवान जीतसिंह की तरफ देख कर) ‘महाराज को छुड़ाने की कोई फिक्र होनी चाहिए।’

जीतसिंह – ‘क्या फिक्र की जाए, कोई ऐयार भी यहाँ नहीं जिससे कुछ काम लिया जाए, तेजसिंह और देवीसिंह कुमार की खोज में गए हुए हैं, अभी तक उनका भी कुछ पता नहीं।’

राजा – ‘तुम ही कोई तरकीब करो।’

जीतसिंह – ‘भला मैं क्या कर सकता हूँ। मुद्दत हुई ऐयारी छोड़ दी। जिस रोज तेजसिंह को इस फन में होशियार करके सरकार के नजर किया उसी दिन सरकार ने ऐयारी करने से ताबेदार को छुट्टी दे दी, अब फिर यह काम लिया जाता है। ताबेदार को यकीन था कि अब जिंदगी भर ऐयारी की नौबत न आएगी, इसी ख्याल से अपने पास ऐयारी का बटुआ तक भी नहीं रखता।’

राजा – ‘तुम्हारा कहना ठीक है मगर इस वक्त दब जाना या ऐयारी से इनकार करना मुनासिब नहीं, और मुझे यकीन है कि चाहे तुम ऐयारी का बटुआ न भी रखते हो मगर उसका कुछ न कुछ सामान जरूर अपने साथ लाए होगे।’

जीतसिंह - (मुस्कराकर) ‘जब सरकार के साथ हैं और इस फन को जानते हैं तो सामान क्यों न रखेंगे।’

राजा – ‘तब फिर क्या सोचते हो, इस वक्त अपनी पुरानी कारीगरी याद करो और महाराज जयसिंह को छुड़ाओ।’

जीतसिंह – ‘जो हुक्म। (हरदयालसिंह की तरफ देख कर) आप एक काम कीजिए, इन बातों को जो इस वक्त हुई हैं छिपाए रहिए और फतहसिंह को ले कर शाम होने के बाद लड़ाई छेड़ दीजिए। चाहे जो हो मगर आज भर लड़ाई बंद न होने पाए यह काम आपके जिम्मे रहा।’

हरदयालसिंह – ‘बहुत अच्छा, ऐसा ही होगा।’

जीतसिंह – ‘आप जा कर लड़ाई का इंतजाम कीजिए, मैं भी महाराज से विदा हो अपने डेरे जाता हूँ क्योंकि समय कम और काम बहुत है।’
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RE: चन्द्रकान्ता - देवकीनन्दन खत्री रचित उपन्यास - by usaiha2 - 30-07-2021, 12:22 PM



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