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चन्द्रकान्ता - देवकीनन्दन खत्री रचित उपन्यास
#80
बयान - 15

चुनारगढ़ के पास दो पहाड़ियों के बीच के एक नाले के किनारे शाम के वक्त पंडित बद्रीनाथ, रामनारायण, पन्नालाल, नाजिम और अहमद बैठे आपस में बातें कर रहे हैं।

नाजिम – ‘क्या कहें हमारा मालिक तो बहिश्त में चला गया, तकलीफ उठाने को हम रह गए।’

अहमद - ‘अभी तक इसका पता नहीं लगा कि उन्हें किसने मारा।’

बद्रीनाथ – ‘उन्हें उनके पापों ने मारा और तुम दोनों की भी बहुत जल्द वही दशा होगी। कहने के लिए तुम लोग ऐयार कहलाते हो मगर बेईमान और हरामखोर पूरे दर्जे के हो, इसमें कोई शक नहीं।’

नाजिम – ‘क्या हम लोग बेईमान हैं?’

बद्रीनाथ – ‘जरूर, इसमें भी कुछ कहना है? जब तुम अपने मालिक महाराज जयसिंह के न हुए तो किसके होवोगे? आप भी गारत हुए, क्रूरसिंह की भी जान ली, और हमारे राजा को भी चौपट बल्कि कैद कराया। यही जी में आता है कि खाली जूतियाँ मार-मार कर तुम दोनों की जान ले लूँ।’

अहमद – ‘जुबान सँभाल कर बातें करो नहीं तो कान पकड़ के उखाड़ लूँगा।’

अहमद का इतना कहना था कि मारे गुस्से के बद्रीनाथ काँप उठे, उसी जगह से पत्थर का एक टुकड़ा उठा कर इस जोर से अहमद के सिर में मारा कि वह तुरंत जमीन सूँघ कर दोजख (नर्क) की तरफ रवाना हो गया। उसकी यह कैफियत देख नाजिम भागा मगर बद्रीनाथ तो पहले ही से उन दोनों की जान का प्यासा हो रहा था, कब जाने देता। बड़ा-सा पत्थर छागे में रख कर मारा जिसकी चोट से वह भी जमीन पर गिर पड़ा और पन्नालाल वगैरह ने पहुँच कर मारे लातों के भुरता करके उसे भी अहमद के साथ क्रूर की ताबेदारी को रवाना कर दिया। इन लोगों के मरने के बाद फिर चारों ऐयार उसी जगह आ बैठे और आपस में बातें करने लगे।

पन्नालाल - ‘अब हमारे दरबार की झँझट दूर हुई।’

बद्रीनाथ – ‘महाराज को जरा भी रंज न होगा।’

पन्नालाल - ‘किसी तरह गद्दी बचाने की फिक्र करनी चाहिए। महाराज जयसिंह ने चारों तरफ से आ घेरा है और बिना महाराज के फौज मैदान में निकल कर लड़ नहीं सकती।’

चुन्नीलाल – ‘आखिर किले में भी रह कर कब तक लड़ेंगे? हम लोगों के पास सिर्फ दो महीने के लायक गल्ला किले के अंदर है, इसके बाद क्या करेंगे।’

रामलाल – ‘यह भी मौका न मिला कि कुछ गल्ला बटोर कर रख लेते।’

बद्रीनाथ – ‘एक बात है, किसी तरह महाराज जयसिंह को उनके लश्कर से उड़ाना चाहिए, अगर वह हम लोगों की कैद में आ जाएँ तो मैदान में निकल कर उनकी फौज को भगाना मुश्किल न होगा।’

पन्नालाल - ‘जरूर ऐसा करना चाहिए, जिसका नमक खाया उसके साथ जान देना हम लोगों का धर्म है।’

रामलाल – ‘हमारे राजा ने भी तो बेईमानी पर कमर बाँधी है। बेचारे कुँवर वीरेंद्रसिंह का क्या दोष है?’

चुन्नीलाल – ‘चाहे जो हो मगर हम लोगों को मालिक का साथ देना जरूरी है।’

बद्रीनाथ – ‘नाजिम और अहमद ये ही दोनों हमारे राजा पर क्रूर ग्रह थे, सो निकल गए। अबकी दफा जरूर दोनों राजाओं में सुलह कराऊँगा, तब वीरेंद्रसिंह की चोबदारी नसीब होगी। वाह, क्या जवांमर्द और होनहार कुमार हैं?

पन्नालाल - ‘अब रात भी बहुत गई, चलो कोई ऐयारी करके महाराज जयसिंह को गिरफ्तार करें और गुप्त राह से किले में ले जा कर कैद करें।’

बद्रीनाथ – ‘हमने एक ऐयारी सोची है, वही ठीक होगी।’

पन्नालाल - ‘वह क्या?’

बद्रीनाथ – ‘हम लोग चल के पहले उनके रसोइए को फाँसें। मैं उसकी शक्ल बना कर रसोई बनाऊँ और तुम लोग रसोईघर के खिदमतगारों को फाँस कर उनकी शक्ल बना कर हमारे साथ काम करो। मैं खाने की चीजों में बेहोशी की दवा मिला कर महाराज को और बाद में उन लोगों को भी खिलाऊँगा जो उनके पहरे पर होंगे, बस फिर हो गया।’

पन्नालाल - ‘अच्छी बात है, तुम रसोइया बनो क्योंकि ब्राह्मण हो, तुम्हारे हाथ का महाराज जयसिंह खाएँगे तो उनका धर्म भी न जाएगा, इसका भी ख्याल जरूर होना चाहिए, मगर एक बात का ध्यान रहे कि चीजों में तेज बेहोशी की दवा न पड़ने पाए।’

बद्रीनाथ – ‘नहीं-नहीं, क्या मैं ऐसा बेवकूफ हूँ, क्या मुझे नहीं मालूम कि राजे लोग पहले दूसरे को खिला कर देख लेते हैं। ऐसी नरम दवा डालूँगा कि खाने के दो घंटे बाद तक बिल्कुल न मालूम पड़े कि हमने बेहोशी की दवा मिली हुई चीजें खाई हैं।

रामनारायण – ‘बस, यह राय पक्की हो गई, अब यहाँ से उठो।’
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RE: चन्द्रकान्ता - देवकीनन्दन खत्री रचित उपन्यास - by usaiha2 - 30-07-2021, 12:21 PM



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