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चन्द्रकान्ता - देवकीनन्दन खत्री रचित उपन्यास
#78
शाम हो चुकी थी जब ये चारों खोह के बाहर आए। तेजसिंह ने देवीसिंह से कहा कि हम लोग यहाँ बैठते हैं तुम नौगढ़ जा कर सरकारी अस्तबल में से एक उम्दा घोड़ा खोल लाओ जिस पर कुमार को सवार कराके तिलिस्म की तरफ ले चलें, मगर देखो किसी को मालूम न हो कि देवीसिंह घोड़ा ले गए हैं।

देवीसिंह – ‘जब किसी को मालूम हो ही गया तो मेरे जाने से फायदा क्या?’

तेजसिंह – ‘कितनी देर में आओगे?’

देवीसिंह – ‘यह कोई भारी बात तो है नहीं जो देर लगेगी, पहर भर के अंदर आ जाऊँगा।’

यह कह कर देवीसिंह नौगढ़ की तरफ रवाना हुए, उनके जाने के बाद ये तीनों आदमी घने पेड़ों के नीचे बैठ बातें करने लगे।

कुमार - ‘क्यों ज्योतिषी जी, शिवदत्त का भेद कुछ न खुलेगा?’

ज्योतिषी – ‘इसमें तो कोई शक नहीं कि वह असल में शिवदत्त ही था जिसने कैद से छूट कर अपने दीवान के हाथ, आपके पास तोहफा भेज कर सुलह के लिए कहलाया था, और विचार से मालूम होता है कि वह भी असली शिवदत्त ही है जिसे आप इस वक्त खोह में छोड़ आए हैं, मगर बीच का हाल कुछ मालूम नहीं होता कि क्या हुआ।’

कुमार - ‘पिता जी ने चुनारगढ़ पर चढ़ाई की है, देखें इसका नतीजा क्या होता है। हम लोग भी वहाँ जल्दी पहुँचते तो ठीक था।’

ज्योतिषी – ‘कोई हर्ज नहीं, वहाँ बोलने वाला कौन है? आपने सुना ही है कि शिवदत्त फिर गायब हो गया, बल्कि उस पुरजे से जो उसके पलँग पर मिला, मालूम होता है फिर गिरफ्तार हो गया।’

तेजसिंह – ‘हाँ चुनारगढ़ को जीतने में कोई शक नहीं है, क्योंकि सामना करने वाला कोई नहीं, मगर उनके ऐयारों का खौफ जरा बना रहता है।’

कुमार - ‘बद्रीनाथ वगैरह भी गिरफ्तार हो जाते तो बेहतर था।’

तेजसिंह – ‘अबकी चल कर जरूर गिरफ्तार करूँगा।’

इसी तरह की बात करते इनको पहर-भर से ज्यादा गुजर गया। देवीसिंह घोड़ा ले कर आ पहुँचे जिस पर कुमार सवार हो तिलिस्म की तरफ रवाना हुए, साथ-साथ तीनों ऐयार पैदल बातें करते जाने लगे।
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RE: चन्द्रकान्ता - देवकीनन्दन खत्री रचित उपन्यास - by usaiha2 - 30-07-2021, 12:20 PM



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