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चन्द्रकान्ता - देवकीनन्दन खत्री रचित उपन्यास
#77
चारों आदमी शिवदत्त की तरफ चले। पहले उस पहाड़ी के नीचे गए जिसके ऊपर छोटे दालान में कुमारी चंद्रकांता और चपला बैठी थीं। कुमारी की निगाह दूसरी तरफ थी, चपला ने इन लोगों को देखा, वह उठ खड़ी हुई और आवाज दे कर कुमार के राजी-खुशी का हाल पूछने लगी, जिसका जवाब खुद कुमार ने दे कर कुमारी चंद्रकांता के मिजाज का हाल पूछा। चपला ने कहा - ‘इनकी हालत तो देखने ही से मालूम होती होगी, कहने की जरूरत ही नहीं।’

कुमारी अभी तक सिर नीचे किए बैठी थी। चपला के बातचीत की आवाज सुन चौंक कर उसने सिर उठाया। कुमार को देखते ही हाथ जोड़ कर खड़ी हो गई और आँखों से आँसू बहाने लगी।

कुँवर वीरेंद्रसिंह ने कहा - ‘कुमारी तुम थोड़े दिन और सब्र करो। तिलिस्म टूट गया, थोड़ा बाकी है। कई सबबों से मुझे यहाँ आना पड़ा, अब मैं फिर उसी तिलिस्म की तरफ जाऊँगा।’

चपला – ‘कुमारी कहती हैं कि मेरा दिल यह कह रहा है कि इन दिनों या तो मेरी मुहब्बत आपके दिल से कम हो गई है या फिर मेरी जगह किसी और ने दखल कर ली। मुद्दत से इस जगह तकलीफ उठा रही हूँ जिसका ख्याल मुझे कभी भी न था मगर कई दिनों से यह नया ख्याल जी में पैदा हो कर मुझे बेहद सता रहा है।’

चपला इतना कह के चुप हो गई। तेजसिंह ने मुस्कुराते हुए कुमार की तरफ देखा और बोले - ‘क्यों, कहो तो भंडा फोड़ दूँ।’

कुमार इसके जवाब में कुछ कह न सके, आँखों से आँसू की बूँदे गिरने लगीं और हाथ जोड़ के उनकी तरफ देखा। हँस कर तेजसिंह ने कुमार के जुड़े हाथ छुड़ा दिए और उनकी तरफ से खुद चपला को जवाब दिया - ‘कुमारी को समझा दो कि कुमार की तरफ से किसी तरह का अंदेशा न करें, तुम्हारे इतना ही कहने से कुमार की हालत खराब हो गई।’

चपला – ‘आप लोग आज यहाँ किसलिए आए?’

तेजसिंह – ‘महाराज शिवदत्त को देखने आए हैं, वहाँ खबर लगी थी कि ये छूट कर चुनारगढ़ पहुँच गए।’

चपला – ‘किसी ऐयार ने सूरत बदली होगी, इन दोनों को तो मैं बराबर यहीं देखती रहती हूँ।’

तेजसिंह – ‘जरा मैं उनसे भी बातचीत कर लूँ।’

तेजसिंह और चपला की बातचीत महाराज शिवदत्त कान लगा कर सुन रहे थे। अब वे कुमार के पास आए, कुछ कहना चाहते थे कि ऊपर चंद्रकांता और चपला की तरफ देख कर चुप हो रहे।

तेजसिंह – ‘शिवदत्त, हाँ क्या कहने को थे, कहो रुक क्यों गए?’

शिवदत्त – ‘अब न कहूँगा।’

तेजसिंह – ‘क्यों?’

शिवदत्त – ‘शायद न कहने से जान बच जाए।’

तेजसिंह – ‘अगर कहोगे तो तुम्हारी जान कौन मारेगा?’

शिवदत्त – ‘जब इतना ही बता दूँ तो बाकी क्या रहा?’

तेजसिंह – ‘न बताओगे तो मैं तुम्हें कब छोडूँगा।’

शिवदत्त – ‘जो चाहो करो मगर मैं कुछ न बताऊँगा।’

इतना सुनते ही तेजसिंह ने कमर से खंजर निकाल लिया, साथ ही चपला ने ऊपर से आवाज दी - ‘नहीं, ऐसा मत करना।’ तेजसिंह ने हाथ रोक कर चपला की तरफ देखा।

चपला – ‘शिवदत्त के ऊपर खंजर खींचने का क्या सबब है?’

तेजसिंह – ‘यह कुछ कहने आए थे मगर तुम्हारी तरफ देख कर चुप हो गए, अब पूछता हूँ तो कुछ बताते नहीं, बस कहते हैं कि कुछ बोलूँगा तो जान चली जाएगी। मेरी समझ में नहीं आता कि यह क्या मामला है। एक तो इनके बारे में हम लोग आप ही हैरान थे, दूसरे कुछ कहने के लिए हम लोगों के पास आना और फिर तुम्हारी तरफ देख कर चुप हो रहना और पूछने से जवाब देना कि कहेंगे तो जान चली जाएगी इन सब बातों से तबीयत और परेशान होती है?’

चपला – ‘आजकल ये पागल हो गए हैं, मैं देखा करती हूँ कि कभी-कभी चिल्लाया और इधर-उधर दौड़ा करते हैं। बिल्कुल हालत पागलों की-सी पाई जाती है, इनकी बातों का कुछ ख्याल मत करो?’

शिवदत्त – ‘उल्टे मुझी को पागल बनाती है।’

तेजसिंह - (शिवदत्त से) ‘क्या कहा, फिर तो कहो?’

शिवदत्त ‘कुछ नहीं, तुम चपला से बातें करो, मैं तो आजकल पागल हो गया हूँ।’

देवीसिंह – ‘वाह, क्या पागल बने हैं।’

शिवदत्त – ‘चपला का कहना बहुत सही है, मेरे पागल होने में कोई शक नहीं।’

कुमार - ‘ज्योतिषी जी, जरा इन नई गढ़ंत के पागल को देखना।’

ज्योतिषी - (हँस कर) ‘जब आकाशवाणी हो ही चुकी कि ये पागल हैं तो अब क्या बाकी रहा?’

कुमार - ‘दिल में कई तरह के खुटके पैदा होते हैं।’

तेजसिंह – ‘इसमें जरूर कोई भारी भेद है। न मालूम वह कब खुलेगा, लाचारी यही है कि हम कुछ कर नहीं सकते।’

देवीसिंह – ‘हमारी उस्तादिन इस भेद को जानती हैं, मगर उनको अभी इस भेद को खोलना मंजूर नहीं।’

कुमार - ‘यह बिल्कुल ठीक है।’

देवीसिंह की बात पर तेजसिंह हँस कर चुप हो रहे। महाराज शिवदत्त भी वहाँ से उठ कर अपने ठिकाने जा बैठे।

तेजसिंह ने कुमार से कहा - ‘अब हम लोगों को लश्कर में चलना चाहिए। सुनते हैं कि हम लोगों के पीछे महाराज शिवदत्त ने लश्कर पर धावा मारा, जिससे बहुत कुछ खराबी हुई। मालूम नहीं पड़ता वह कौन शिवदत्त था, मगर फिर सुनने में आया कि शिवदत्त भी गायब हो गया। अब यहाँ आ कर फिर शिवदत्त को देख रहे हैं।’

कुमार - ‘इसमें तो कोई शक नहीं कि ये सब बातें बहुत ही ताज्जुब की हैं, खैर, तुमने जो कुछ जिसकी जुबानी सुना है साफ-साफ कहो।’

तेजसिंह ने अपने तीनों आदमियों का कुमार की खोज में लश्कर से बाहर निकलना, नौगढ़ राज्य में सुरेंद्रसिंह के दरबार में भेष बदले हुए पहुँच कर दो जासूसों की जुबानी लश्कर का हाल सुनना, महाराज जयसिंह और राजा सुरेंद्रसिंह का चुनारगढ़ पर चढ़ाई करना इत्यादि सब हाल कहा, जिसे सुन कुमार परेशान हो गए, खोह के बाहर चलने के लिए तैयार हुए। कुमारी चंद्रकांता से फिर कुछ बातें कर और धीरज दे आँखों से आँसू बहाते, कुँवर वीरेंद्रसिंह उस खोह के बाहर हुए।
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RE: चन्द्रकान्ता - देवकीनन्दन खत्री रचित उपन्यास - by usaiha2 - 30-07-2021, 12:20 PM



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