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चन्द्रकान्ता - देवकीनन्दन खत्री रचित उपन्यास
#76
बयान - 13

कुँवर वीरेंद्रसिंह धीरे-धीरे बेहोश हो कर उस गद्दी पर लेट गए। जब आँख खुली अपने को एक पत्थर की चट्टान पर सोए पाया। घबरा कर इधर-उधर देखने लगे। चारों तरफ ऊँची-ऊँची पहाड़ी, बीच में बहता चश्मा, किनारे-किनारे जामुन के दरख्तों की बहार देखने से मालूम हो गया कि यह वही तहखाना है जिसमें ऐयार लोग कैद किए जाते थे, जिस जगह तेजसिंह ने महाराज शिवदत्त को मय उनकी रानी के कैद किया था या कुमार ने पहाड़ी के ऊपर चंद्रकांता और चपला को देखा था। मगर पास न पहुँच सके थे।

कुमार घबरा कर पत्थर की चट्टान पर से उठ बैठे और उस खोह को अच्छी तरह पहचानने के लिए चारों तरफ घूमने और हर एक चीज को देखने लगे। अब शक जाता रहा और बिल्कुल यकीन हो गया कि यह वही खोह है, क्योंकि उसी तरह कैदी महाराज शिवदत्त को जामुन के पेड़ के नीचे पत्थर की चट्टान पर लेटे और पास ही उनकी रानी को बैठे और पैर दबाते देखा। इन दोनों का रुख दूसरी तरफ था, कुमार ने उनको देखा मगर उनको कुमार का कुछ गुमान तक भी न हुआ।

कुँवर वीरेंद्रसिंह दौड़े हुए उस पहाड़ी के नीचे गए जिसके ऊपर वाले दालान में कुमारी चंद्रकांता और चपला को छोड़ तिलिस्म तोड़ने, खोह के बाहर गए थे। इस वक्त भी कुमारी को उस दिन की तरह वही मैली और फटी साड़ी पहने, उसी तौर से चेहरे और बदन पर मैल चढ़ी और बालों की लट बाँधे बैठे हुए देखा।

देखते ही फिर वही मुहब्बत की बला सिर पर सवार हो गई। कुमारी को पहले की तरह बेबसी की हालत में देख आँखों में आँसू भर आए, गला रुक गया और कुछ शर्मा के सामने से हट एक पेड़ की आड़ में खड़े हो जी में सोचने लगे - ‘हाय, अब कौन मुँह ले कर कुमारी चंद्रकांता के सामने जाऊँ और उससे क्या बातचीत करूँ? पूछने पर क्या यह कह सकूँगा कि तुम्हें छुड़ाने के लिए तिलिस्म तोड़ने गए थे लेकिन अभी तक वह नहीं टूटा। हा। मुझसे तो यह बात कभी नहीं कही जाएगी। क्या करूँ वनकन्या के फेर में तिलिस्म तोड़ने की भी सुध जाती रही और कई दिन का हर्ज भी हुआ। जब कुमारी पूछेगी कि तुम यहाँ कैसे आए तो क्या जवाब दूँगा? शिवदत्त भी यहाँ दिखाई देता है। लश्कर में तो सुना था कि वह छूट गया बल्कि उसका दीवान खुद नजर ले कर आया था, तब यह क्या मामला है।’

इन सब बातों को कुमार सोच ही रहे थे कि सामने से तेजसिंह आते दिखाई पड़े, जिनके कुछ दूर पीछे देवीसिंह और पंडित जगन्नाथ ज्योतिषी भी थे। कुमार उनकी तरफ बढ़े। तेजसिंह सामने से कुमार को अपनी तरफ आते देख दौड़े और उनके पास जा कर पैरों पर गिर पड़े, उन्होंने उठा कर गले से लगा लिया। देवीसिंह से भी मिले और ज्योतिषी जी को दंडवत किया। अब ये चारों एक पेड़ के नीचे पत्थर पर बैठ कर बातचीत करने लगे।

कुमार - ‘देखो तेजसिंह, वह सामने कुमारी चंद्रकांता उसी दिन की तरह उदास और फटे कपड़े पहने बैठी है और बगल में उसकी सखी चपला बैठी अपने आँचल से उनका मुँह पोछ रही है।’

तेजसिंह – ‘आपसे कुछ बातचीत भी हुई?’

कुमार - ‘नहीं कुछ नहीं, अभी मैं यही सोच रहा था कि उसके सामने जाऊँ या नहीं।’

तेजसिंह – ‘कितने दिन से आप यह सोच रहे हैं?’

कुमार - ‘अभी मुझको इस घाटी में आए दो घड़ी भी नहीं हुई।’

तेजसिंह - (ताज्जुब से) ‘क्या आप अभी इस खोह में आए हैं? इतने दिनों तक कहाँ रहे? आपको लश्कर से आए तो कई दिन हुए। इस वक्त आपको यकायक यहाँ देख के मैंने सोचा कि कुमारी के इश्क में चुपचाप लश्कर से निकल कर इस जगह आ बैठे हैं।’

कुमार - ‘नहीं, मैं अपनी खुशी से लश्कर से नहीं आया, न मालूम कौन उठा ले गया था।’

तेजसिंह - (ताज्जुब से) ‘हैं। क्या अभी तक आपको यह भी मालूम नहीं हुआ कि लश्कर से आपको कौन उठा ले गया था।’

कुमार - ‘नहीं, बिल्कुल नहीं।’

इतना कह कर कुमार ने अपना कुल हाल पूरा-पूरा कह सुनाया। जब तक कुमार अपनी कैफियत कहते रहे तीनों ऐयार अचंभे में भरे सुनते रहे। जब कुमार ने अपनी कथा समाप्त की तब तेजसिंह ने ज्योतिषी जी से पूछा - ‘यह क्या मामला है, आप कुछ समझे?’

ज्योतिषी – ‘कुछ नहीं, बिल्कुल ख्याल में ही नहीं आता कि कुमार कहाँ गए थे और उन्हें ऐसे तमाशे दिखलाने वाला कौन था।’

कुमार - ‘तिलिस्म तोड़ने के वक्त जो ताज्जुब की बातें देखी थीं, उनसे बढ़ कर इन दो-तीन दिनों में दिखाई पड़ीं।’

देवीसिंह – ‘किसी छोटे दिल के डरपोक आदमी को ऐसा मौका पड़े तो घबरा के जान ही दे दे।’

ज्योतिषी – ‘इसमें क्या संदेह है।’

कुमार - ‘और एक ताज्जुब की बात सुनो, शिवदत्त भी यहाँ दिखाई पड़ रहा है।’

तेजसिंह – ‘सो कहाँ?’

कुमार - (हाथ का इशारा करके) ‘उस पेड़ के नीचे नजर दौड़ाओ।’

तेजसिंह – ‘हाँ ठीक तो है, मगर यह क्या मामला है। चलो उससे बात करें, शायद कुछ पता लगे।’

कुमार - ‘उसके सामने ही कुमारी चंद्रकांता पहाड़ी के ऊपर है, पहले उससे कुछ हाल पूछना चाहिए। मेरा जी तो अजब पेच में पड़ा हुआ है, कोई बात बैठती ही नहीं कि वह क्या पूछेगी और मैं क्या जवाब दूँगा।’

तेजसिंह – ‘आशिकों की यही दशा होती है, कोई बात नहीं, चलिए मैं आपकी तरफ से बात करूँगा।’
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RE: चन्द्रकान्ता - देवकीनन्दन खत्री रचित उपन्यास - by usaiha2 - 30-07-2021, 12:19 PM



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