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चन्द्रकान्ता - देवकीनन्दन खत्री रचित उपन्यास
#73
वे सब औरतें गिनती में नौ थीं, चार कुमार के आगे चार पीछे हो उनको ले कर रवाना हुईं और एक यह कह कर चली गई कि मैं पहले खबर करती हूँ कि फलाने डाकू को हम लोगों ने गिरफ्तार किया है जिसको साथ वाली सखियाँ लिए आती हैं।

वे सब कुमार को लिए बाग के एक कोने में गईं जहाँ दूसरी तरफ निकल जाने के लिए छोटा-सा दरवाजा नजर पड़ा जिसमें शीशे की सिर्फ एक सफेद हाँडी जल रही थी।

वे सब कुमार को लिए हुए इसी दरवाजे में घुसीं। थोड़ी दूर जा कर दूसरा बाग जो बहुत सजा था नजर पड़ा जिसमें हद से ज्यादा रोशनी हो रही थी और कई चोबदार हाथ में सोने-चाँदी के आसे लिए इधर-उधर टहल रहे थे। इनके अलावे और भी बहुत से आदमी घूमते-फिरते दिखाई पड़े।

उन औरतों से किसी ने कुछ बातचीत या रोक-टोक न की, ये सब कुमार को लिए हुए बराबर धड़धड़ाती हुई एक बड़े भारी दीवानखाने में पहुँचीं जहाँ की सजावट और कैफियत देख कुमार के होश जाते रहे।

सबसे पहले कुमार की निगाह उस बड़ी तस्वीर के ऊपर पड़ी जो ठीक सामने सोने के जड़ाऊ सिंहासन पर रखी हुई थी। मालूम होता था कि सिंहासन पर कुमारी चंद्रकांता सिर पर मुकुट धारे बैठी हैं, ऊपर छत्र लगा हुआ है, और सिंहासन के दोनों तरफ दो जिंदा शेर बैठे हुए हैं जो कभी-कभी डकारते और गुर्राते भी थे। बाद इसके बड़े-बड़े सरदार बेशकीमती पोशाकें पहने सिंहासन के सामने दो-पट्टी कतार बाँधे सिर झुकाए बैठे थे। दरबार में सन्नाटा छाया हुआ था, सब चुप मारे बैठे थे।

चंद्रकांता की तस्वीर और ऐसे दरबार को देख कर एक दफा तो कुमार पर भी रोब छा गया। चुपचाप सामने खड़े हो गए, उनके पीछे और दोनों बगल वे सब औरतें खड़ी हो गईं जिन्होंने कुमार को चोरों की तरह हाजिर किया था।

तस्वीर के पीछे से आवाज आई - ‘ये कौन हैं?’

उन औरतों में से एक ने जवाब दिया - ‘ये सरकारी बाग में घूमते हुए पकड़े गए हैं और पूछने से मालूम हुआ कि इनका नाम वीरेंद्रसिंह है, विक्रमी तिलिस्म इन्होंने ही तोड़ा है।’ फिर आवाज आई - ‘अगर यह सच है तो इनके बारे में बहुत कुछ विचार करना पड़ेगा, इस वक्त ले जा कर हिफाजत से रखो, फिर हुक्म पा कर दरबार में हाजिर करना।’

उन लौंडियों ने कुमार को एक अच्छे कमरे में ले जा कर रखा जो हर तरह से सजा हुआ था मगर कुमार अपने ख्याल में डूबे हुए थे। नए बाग की सैर और तस्वीर के दरबार ने उन्हें और अचंभे में डाल दिया था। गरदन झुकाए सोच रहे थे। पहले बाग में जो ताज्जुब की बातें देखीं उनका तो पता लगा ही नहीं, इस बाग में तो और भी बातें दिखाई देती हैं जिसमें कुमारी चंद्रकांता की तस्वीर और उनके दरबार का लगना और भी हैरान कर रहा है। इसी सोच-विचार में गरदन झुकाए लौंडियों के साथ चले गए, इसका कुछ भी ख्याल नहीं कि कहाँ जाते हैं, कौन लिए जाता है, या कैसे सजे हुए मकान में बैठाए गए हैं।

जमीन पर फर्श बिछा हुआ और गद्दी लगी हुई थी, बड़े तकिए के सिवाय और भी कई तकिए पड़े हुए थे। कुमार उस गद्दी पर बैठ गए और दो घंटे तक सिर झुकाए ऐसा सोचते रहे कि तनोबदन की बिल्कुल खबर न रही। प्यास मालूम हुई तो पानी के लिए इधर-उधर देखने लगे। एक लौंडी सामने खड़ी थी, उसने हाथ जोड़ कर पूछा - ‘क्या हुक्म होता है?’ जिसके जवाब में कुमार ने हाथ के इशारे से पानी माँगा। सोने के कटोरे में पानी भर के लौंडी ने कुमार के हाथ में दिया, पीते ही एकदम उनके दिमाग तक ठंडक पहुँच गई, साथ ही आँखों में झपकी आने लगी और धीरे-धीरे बिल्कुल बेहोश हो कर उसी गद्दी पर लेट गए।
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RE: चन्द्रकान्ता - देवकीनन्दन खत्री रचित उपन्यास - by usaiha2 - 30-07-2021, 12:17 PM



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