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चन्द्रकान्ता - देवकीनन्दन खत्री रचित उपन्यास
#71
बयान - 11

तेजसिंह को तिलिस्म में से खजाने के संदूकों को निकलवा कर नौगढ़ भेजवाने में कई दिन लगे क्योंकि उसके साथ पहरे वगैरह का बहुत कुछ इंतजाम करना पड़ा। रोज तिलिस्म में जाते और पहर दिन जब बाकी रहता तिलिस्म से बाहर निकल आया करते। जब तक कुल असबाब नौगढ़ रवाना नहीं कर दिया गया, तब तक तिलिस्म तोड़ने की कार्रवाई बंद रही।

एक रात कुमार अपने पलँग पर सोए हुए थे। आधी रात जा चुकी थी,कुमारी चंद्रकांता और वनकन्या की याद में अच्छी तरह नींद नहीं आ रही थी, कभी जागते कभी सो जाते। आखिर एक गहरी नींद ने अपना असर यहाँ तक जमाया कि सुबह क्या, बल्कि दो घड़ी दिन चढ़े तक आँख खुलने न दीं।

जब कुमार की नींद खुली अपने को उस खेमे में न पाया जिसमें सोए थे अथवा जो तिलिस्म के पास जंगल में था, बल्कि उसकी जगह एक बहुत सजे हुए कमरे को देखा जिसकी छत में कई बेशकीमती झाड़ और शीशे लटक रहे थे। ताज्जुब में पड़ इधर-उधर देखने लगे। मालूम हुआ कि यह एक बहुत भारी दीवानखाना है, जिसमें तीन तरफ संगमरमर की दीवार और चौथी तरफ बड़े-बड़े खूबसूरत दरवाजे हैं जो इस समय बंद हैं। दीवारों पर कई दीवारें लगी हुई हैं, जिनमें दिन निकल आने पर भी अभी तक मोमबत्तियाँ जल रही हैं। ऊपर उसके चारों तरफ बड़ी-बड़ी खूबसूरत और हसीन औरतों की तस्वीरें लटक रही थीं। लंबी दीवार के बीचोंबीच एक तस्वीर, आदमी के कद के बराबर सोने के चौखटे में जड़ी, दीवार के साथ लगी हुई थी।

कुमार की निगाह तमाम तस्वीरों पर से दोड़ती हुई उस बड़ी तस्वीर पर आ कर अटक गई। सोचने लगे बल्कि धीमी आवाज में इस तरह बोलने लगे जैसे अपने ‘बगल’ में बैठे हुए किसी दोस्त को कोई कहता हो - ‘अहा, इस तस्वीर से बढ़ कर इस दीवानखाने में कोई चीज नहीं है और बेशक यह तस्वीर भी उसी की है जिसके इश्क ने मुझे तबाह कर रखा है। वाह क्या साफ भोली सूरत दिखलाई है।’

कुमार झट से उठ बैठे और उस तस्वीर के पास जा कर खड़े हो गए। दीवानखाने के दरवाजे बंद थे मगर हर एक दरवाजे के ऊपर छोटे-छोटे मोखे (सूराख) बने हुए थे जिनमें शीशे की टट्टियाँ लगी हुई थीं, उन्हीं में से सीधी रोशनी ठीक उस लंबी-चौड़ी तस्वीर पर पड़ रही थी जिसको देखने के लिए कुमार पलँग पर से उतर कर उसके पास गए थे। असल में वह तस्वीर कुमारी चंद्रकांता की थी।

कुमार उस तस्वीर के पास जा कर खड़े हो गए और फिर उसी तरह बोलने लगे जैसे किसी दूसरे को जो पास ही खड़ा हो सुना रहे हैं - ‘अहा, क्या अच्छी और साफ तस्वीर बनी हुई है। इसमें ठीक उतना ही बड़ा कद है, वैसी ही बड़ी-बड़ी आँखें हैं जिनमें काजल की लकीरें कैसी साफ मालूम हो रही हैं। अहा। गालों पर गुलाबीपन कैसा दिखलाया है, बारीक होंठों में पान की सुर्खी और मुस्कुराहट साफ मालूम हो रही है, कानों में बाले, माथे में बेंदी और नाक में नथ तो हई है मगर यह गले की गोप क्या ही अच्छी और साफ बनाई है जिसके बीच के चमकते हुए मानिक और अगल-बगल के कुंदन की उभाड़ (हसली) में तो हद दर्जे की कारीगरी खर्च की गई है। ‘गोप’ ही क्या, सभी गहने अच्छे हैं। गले की माला, हाथों के बाजूबंद, कंगन, छंद, पहुँची, अँगूठी सभी चीजें अच्छी बनाई हैं, और देखो एक बगल चपला दूसरी तरफ चंपा क्या मजे में अपनी ठुड्डी पर उँगली रखे खड़ी हैं।’

‘हाय, चंद्रकांता कहाँ होगी।’ इतना कह एक लंबी साँस ले एकटक उस तस्वीर की तरफ देखने लगे।

ऊपर की तरफ कहीं से पाजेब की छन्न से आवाज आई जिसे सुनते ही कुमार चौंक पड़े। ऊपर की तरफ कई छोटी-छोटी खिड़कियाँ थीं जो सब-की-सब बंद थीं। यह आवाज कहाँ से आई? इस घर में कौन औरत है? इतनी देर तक तो कुमार अपने पूरे होशो-हवास में न थे मगर अब चौंके और सोचने लगे - ‘हैं, इस जगह मैं कैसे आ गया? कौन उठा लाया? उसने मेरे साथ बड़ी नेकी की जो मेरी प्यारी चंद्रकांता की तस्वीर मुझे दिखला दी, मगर कहीं ऐसा न हो कि मैं यह बातें स्वप्न में देखता होऊँ? जरूर यह स्वप्न है, चलो फिर उसी पलँग पर सो रहें।’

यह सोच फिर कुमार उसी पलँग पर आ कर लेट गए, आँखें बंद कर लीं, मगर नींद कहाँ से आती। इतने में फिर पाजेब की आवाज ने कुमार को चौंका दिया। अबकी दफा उठते ही सीधे दरवाजों की तरफ गए और सातों दरवाजों को धक्का दिया, सब खुल गए। एक छोटा-सा हरा-भरा बाग दिखाई पड़ा। दिन अनुमानत पहर-भर के चढ़ चुका होगा।

यह बाग बिल्कुल जंगली फूलों और लताओं से भरा हुआ था, बीच में एक छोटा-सा तालाब भी दिखाई पड़ा। कुमार सीधे तालाब के पास चले गए जो बिल्कुल पत्थर का बना हुआ था। एक तरफ उसके खूबसूरत सीढ़ियाँ उतरने के लिए बनी हुई थीं, ऊपर उन सीढ़ियों के दोनों तरफ दो बड़े-बड़े जामुन के पेड़ लगे हुए थे जो बहुत ही घने थे। तमाम सीढ़ियों पर बल्कि कुछ जल तक उन दोनों की छाया पहुँची हुई थी और दोनों पेड़ों के नीचे छोटे-छोटे संगमरमर के चबूतरे बने हुए थे। बाएँ तरफ के चबूतरे पर नरम गलीचा बिछा हुआ था, बगल में एक टोंटीदार चाँदी का गड़वा, उसके पास ही शहतूत के पत्तो पर बना-बनाया दातून एक तरफ से चिरा हुआ था, बगल में एक छोटी-सी चाँदी की चौकी पर धोती-गमछा और पहनने के खूबसूरत और कीमती कपड़े भी रखे हुए थे।

दाहिनी तरफ वाले संगमरमर के चबूतरे पर चाँदी की एक चौकी थी जिस पर पूजा का सामान धारा हुआ था। छोटे-छोटे कई जड़ाऊ पँचपात्र, तश्तरी, कटोरियाँ सब साफ की हुई थीं और नरम ऊनी आसन बिछा हुआ था जिस पर एक छोटा-सा बेल भी पड़ा था।

कुमार इस बात पर गौर कर रहे थे कि वे कहाँ आ पहुँचे, उन्हें कौन लाया, इस जगह का नाम क्या है तथा यह बाग और कमरा किसका है? इतने में ही उस पेड़ की तरफ निगाह जा पड़ी जिसके नीचे पूजा का सब सामान सजाया हुआ था। एक कागज चिपका हुआ नजर पड़ा। उसके पास गए, देखा कि कुछ लिखा हुआ है। पढ़ा, यह लिखा था –

‘कुँवर वीरेंद्रसिंह, यह सब सामान तुम्हारे ही वास्ते है। इसी बावड़ी में नहाओ और इन सब चीजों को बरतो, क्योंकि आज के दिन तुम हमारे मेहमान हो।’

कुमार और भी सोच में पड़ गए कि यह क्या, सामान तो इतना लंबा-चौड़ा रखा गया है मगर आदमी कोई भी नजर नहीं पड़ता, जरूर यह जगह परियों के रहने की है और वे लोग भी इसी बाग में फिरती होंगी, मगर दिखाई नहीं पड़तीं। अच्छा इस बाग में पहले घूम कर देख लें कि क्या-क्या है फिर नहाना-धोना होगा, आखिर इतना दिन तो चढ़ ही चुका है। अगर कहीं दरवाजा नजर पड़ा तो इस बाग के बाहर हो जाएँगे, मगर नहीं, इस बाग का मालिक कौन है और वह मुझे यहाँ क्यों लाया, जब तक इसका हाल मालूम न हो इस बाग से कैसे जाने को जी चाहेगा? यही सब सोच कर कुमार उस बाग में घूमने लगे।

जिस कमरे में नींद से कुमार की आँख खुली थी वह बाग के पश्चिम तरफ था। पूरब तरफ कोई इमारत न थी क्योंकि निकलता हुआ सूरज पहले ही से दिखाई पड़ा था जो इस वक्त नेजे बराबर ऊँचा आ चुका होगा। घूमते हुए बाग के उत्तर तरफ एक और कमरा नजर पड़ा जो पूरब तरफ वाले कमरे के साथ सटा हुआ था।

कुमार ने चाहा कि उस कमरे की भी सैर करें मगर न हो सका, क्योंकि उसके सब दरवाजे बंद थे, अस्तु आगे बढ़े और जंगली फूलों, बेलों और खूबसूरत क्यारियों को देखते हुए बाग के दक्षिण तरफ पहुँचे। एक छोटी-सी कोठरी नजर पड़ी जिसकी दीवार पर कुछ लिखा हुआ था, पढ़ने से मालूम हुआ कि पाखाना है। उसी जगह लकड़ी की चौकी पर पानी से भरा हुआ एक लोटा भी रखा था।

दिन डेढ़ पहर से ज्यादा चढ़ चुका होगा, कुमार की तबीयत घबराई हुई थी, आखिर सोच-विचार कर चौकी पर से लोटा उठा लिया और पाखाने गए, बाद इसके बावड़ी में हाथ-मुँह धोए, सीढ़ियों के ऊपर जामुन के पेड़ तले चौकी पर बैठ कर दातुन किया, बावली में स्नान करके उन्हीं कपड़ों को पहना जो उनके लिए संगमरमर के चबूतरे पर रखे हुए थे, दूसरे पर बैठ के संध्या-पूजा की।

जब इन सब कामों से छुट्टी पा चुके तो फिर उसी कमरे की तरफ आए जिसमें सोते से आँख खुली थी और कुमारी चंद्रकांता की तस्वीर देखी थी, मगर उस कमरे के कुल किवाड़ बंद पाए, खोलने की कोशिश की मगर खुल न सके। बाहर दालान में खूब कड़ी धूप फैली हुई थी। धूप के मारे तबीयत घबरा उठी, यही जी चाहता था कि कहीं ठंडी जगह मिले तो आराम किया जाए। आखिर उस जगह से हट कुमार घूमते हुए उस दूसरी तरफ वाले कमरे को देखने चले जिसमें किवाड़ पहर भर पहले बंद पाए थे, वे अब खुले हुए दिखलाई पड़े, अंदर गए।

भीतर से यह कमरा बहुत साफ संगमरमर के फर्श का था, मालूम होता था कि अभी कोई इसे धो कर साफ कर गया है। बीच में एक कश्मीरी गलीचा बिछा हुआ था। आगे उसके कई तरह की भोजन की चीजें चाँदी और सोने के बरतनों में सजाई हुई रखी थीं। आसन पर एक खत पड़ा था जिसे कुमार ने उठा कर पढ़ा, यह लिखा हुआ था -

‘आप किसी तरह घबराएँ नहीं, यह मकान आपके एक दोस्त का है जहाँ हर तरह से आपकी खातिर की जाएगी। इस वक्त आप भोजन करके बगल की कोठरी में जहाँ आपके लिए पलँग बिछा है कुछ देर आराम करें।’

इसे पढ़ कर कुमार जी में सोचने लगे कि अब क्या करना चाहिए? भूख बड़े जोर की लगी है पर बिना मालिक के इन चीजों को खाने को जी नहीं चाहता और कुछ पता भी नहीं लगता कि इस मकान का मालिक कौन है जो छिप-छिप कर हमारी खातिरदारी की चीजें तैयार कर रहा है, पर मालूम नहीं होता कि कौन किधर से आता है, कहाँ खाना बनाता है, मालिक मकान या उसके नौकर-चाकर किस जगह रहते हैं या किस राह से आते-जाते हैं। उन लोगों को जब इसी जगह छिपे रहना मँजूर था तो मुझे यहाँ लाने की जरूरत ही क्या थी?

उसी आसन पर बैठे हुए बड़ी देर तक कुमार तरह-तरह की बातें सोचते रहे, यहाँ तक कि भूख ने उन्हें बेताब कर दिया, आखिर कब तक भूखे रहते? लाचार भोजन की तरफ हाथ बढ़ाया, मगर फिर कुछ सोच कर रुक गए और हाथ खींच लिया।

भोजन करने के लिए तैयार होकर फिर कुमार के रुक जाने से बड़े जोर के साथ हँसने की आवाज आई जिसे सुन कर कुमार और भी हैरान हुए। इधर-उधर देखने लगे मगर कुछ पता न लगा, ऊपर की तरफ कई खिड़कियाँ दिखाई पड़ीं मगर कोई आदमी नजर न आया।

कुमार ऊपर वाली खिड़कियों की तरफ देख ही रहे थे कि एक आवाज आई - ‘आप भोजन करने में देर न कीजिए, कोई खतरे की जगह नहीं है।’

भूख के मारे कुमार विकल हो रहे थे, लाचार हो कर खाने लगे। सब चीजें एक-से-एक स्वादिष्ट बनी हुई थीं। अच्छी तरह से भोजन करने के बाद कुमार उठे, एक तरफ हाथ धोने के लिए लोटे में जल रखा हुआ था। अपने हाथ से लोटा उठा, हाथ धोए और उस बगल वाली कोठरी की तरफ चले। जैसा कि पुरजे में लिखा हुआ था उसी के मुताबिक सोने के लिए उस कोठरी में निहायत खूबसूरत पलँग बिछा हुआ पाया।

मसहरी पर लेट कर तरह-तरह की बातें सोचने लगे। इस मकान का मालिक कौन है और मुलाकात न करने में उसने क्या फायदा सोचा है, यहाँ कब तक पड़े रहना होगा, वहाँ लश्कर वालों की हमारी खोज में क्या दशा होगी इत्यादि बातों को सोचते-सोचते कुमार को नींद आ गई और बेखबर सो गए।
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RE: चन्द्रकान्ता - देवकीनन्दन खत्री रचित उपन्यास - by usaiha2 - 30-07-2021, 12:15 PM



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