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चन्द्रकान्ता - देवकीनन्दन खत्री रचित उपन्यास
#69
बयान - 9

जब दरबार बर्खास्त हुआ आधी रात जा चुकी थी। फतहसिंह दीवान साहब को ले कर अपने खेमे में गए। थोड़ी देर बाद कुमार के खेमे में तेजसिंह, देवीसिंह, और ज्योतिषी जी फिर इकट्ठे हुए। उस वक्त सिवाय इन चारों आदमियों के और कोई वहाँ न था।

कुमार – ‘क्यों तेजसिंह, बुढ़िया की बात तो ठीक निकली।’

तेजसिंह – ‘जी हाँ, मगर महाराज शिवदत्त के खत से तो कुछ और ही बात पाई जाती है।’

देवीसिंह – ‘उसके लिखने का कौन ठिकाना, कहीं वह धोखा न देता हो।’

ज्योतिषी – ‘इस वक्त बहुत सोच-विचार कर काम करने का मौका है। चाहे शिवदत्त कैसी ही सफाई दिखाए मगर दुश्मन का विश्वास कभी न करना चाहिए।’

तेजसिंह – ‘आप ज्योतिषी हैं, विचारिए तो यह खत शिवदत्त ने सच्चे दिल से लिखी है या खुटाई रख कर।’

ज्योतिषी - (कुछ विचार कर) ‘यह खत तो उसने सच्चे दिल से लिखा है, मगर यह विश्वास नहीं होता कि आगे भी उसका दिल साफ बना रहेगा।’

तेजसिंह – ‘आजकल तो ऐसे-ऐसे मामले हो रहे हैं कि किसी के सिर-पैर का कुछ पता ही नहीं लगता। अगर यह खत उसने सच्चे दिल से ही लिखा है तो अपने छूटने का खुलासा हाल क्यों नहीं लिखा?’

ज्योतिषी – ‘इसका भी जरूर कोई सबब होगा।’

कुमार – ‘क्या आप रमल से नहीं बता सकते कि वह कैसे छूटा।’

ज्योतिषी – ‘जी नहीं, तिलिस्म में रमल काम नहीं करता और वह तहखाना तिलिस्मी है जिसमें महाराज शिवदत्त कैद किए गए थे।’

तेजसिंह – ‘कुछ समझ में नहीं आता।’

देवीसिंह – ‘वह चुड़ैल भी कोई पूरी ऐयार मालूम होती है।’

ज्योतिषी – ‘कभी नहीं, मैं सोच चुका हूँ, ऐयारी का तो वह नाम भी नहीं जानती।’

कुमार – ‘खैर, जो कुछ होगा देखा जाएगा, अब कल से तिलिस्म तोड़ने में जरूर हाथ लगाना चाहिए।’

तेजसिंह – ‘हाँ, कल जरूर तिलिस्म की कार्रवाई शुरू हो।’

कुमार – ‘अच्छा अब तुम लोग भी जाओ।’

तीनों ऐयार कुमार से विदा हो अपने-अपने डेरे में गए। दूसरे दिन कुँवर वीरेंद्रसिंह तीनों ऐयारों को साथ ले तिलिस्म में गए, तिलिस्मी किताब और ताली भी साथ ले ली। दालान में पहुँच कर तहखाने का ताला खोल पत्थर की चट्टान को निकाल कर अलग किया और नीचे उतर कर कोठरी में होते हुए बाग में पहुँचे जहाँ थोड़ी-सी जमीन खोद कर छोड़ आए थे।

उसी जमीन को ये लोग मिल कर फिर खोदने लगे। आठ-नौ हाथ जमीन खोदने के बाद एक संदूक मालूम पड़ा, जिसके ऊपर का पल्ला बंद था और ताले का मुँह एक छोटे से तांबे के पत्तर से ढ़का हुआ था, जिससे अंदर मिट्टी न जाने।

कुमार ने चाहा कि संदूक को बाहर निकाल लें मगर न हो सका, ज्यों-ज्यों चारों तरफ से मिट्टी हटाते थे, नीचे से संदूक चौड़ा निकल आता था। कोशिश करने पर भी इसका पता न लग सका कि वह जमीन में कितने नीचे तक गड़ा हुआ है। आखिर लाचार हो कर कुमार ने तिलिस्मी किताब खोली और पढ़ने लगे। यह लिखा हुआ था -

‘ताली में रस्सी बाँध कर जब बाग में उसे घसीटते फिरोगे तो एक जगह वह ताली जमीन से चिपक जाएगी। वहाँ की मिट्टी ताली उठा लेना, बाद इसके उस जमीन को खोदना, जब तक कि एक संदूक का मुँह न दिखाई पड़े। जब संदूक के ऊपर का हिस्सा निकल आए, खोदना बंद कर देना क्योंकि असल में यह संदूक नहीं दरवाजा है। बाग के बीचोंबीच जो फव्वारा है, उसके पूरब तरफ ठीक सात हाथ हट कर जमीन खोदना, एक हाँडी निकलेगी, उसी में उसकी ताली है, उसे ला कर उस तहखाने का ताला खोलना, सीढ़ियाँ दिखलाई पड़ेंगी, उसी रास्ते से नीचे उतरना।

भीतर से वह तहखाना बहुत अँधेरा और धुएँ से भरा हुआ होगा, खबरदार कोई रोशनी मत करना क्योंकि आग या मशाल के लगने ही से वह धुआँ जल उठेगा जिससे बड़ा उपद्रव होगा और तुम लोगों की जान न बचेगी। मुँह पर कपड़ा लपेट कर उस तहखाने में उतरना, टटोलते हुए जिधर रास्ता मिले जल्दी-जल्दी चले जाना जिससे नाक के रास्ते धुआँ दिमाग में न चढ़ने पाए। थोड़ी ही दूर जा कर एक चमकती कोठरी मिलेगी, जिसमें की कुल चीजें दिखाई पड़ती होंगी। तमाम कोठरी में नीचे से ऊपर तक तार लगे होंगे। बहुत खोज करने की कोई जरूरत नहीं, तलवार से जल्दी-जल्दी इन तारों को काट कर बाहर निकल आना।’

इतना पढ़ कर कुमार ने छोड़ दिया। लिखे बमूजिब बाग के बीचोंबीच वाले फव्वारे से सात हाथ पूरब हट कर जमीन खोदी, हाँडी निकली, उसमें से ताली निकाल कर तहखाने का मुँह खोला।

देवीसिंह ने कहा - ‘अब अपने-अपने मुँह पर कपड़ा लपेटते जाओ। तिलिस्म क्या है जान जोखम है, रोशनी मत करो, अँधेरा में टटोलते चलो, आँख रहते अंधे बनो और जल्दी-जल्दी चलो, दिमाग में धुआँ भी न चढ़ने पाए।’

देवीसिंह की बात सुन कर कुमार हँस पड़े। सभी ने मुँह पर कपड़े लपेटे और घुस कर चमकती हुई कोठरी में पहुँचे। जहाँ तक हो सका जल्दी-जल्दी उन तारों को काट कर तहखाने से बाहर निकल आए।

मुँह पर कपड़ा तो लपेटे हुए थे फिर पर भी थोड़ा-बहुत धुआँ दिमाग में चढ़ ही गया जिससे सभी की तबीयत घबरा गई। तहखाने के बाहर निकल कर दो घंटे तक चारों आदमी बेसुध पड़े रहे, जब होश-हवाश ठिकाने हुए तब तेजसिंह ने ज्योतिषी जी से पूछा - ‘अब दिन कितना बाकी है?’

उन्होंने जवाब दिया - ‘अभी चार घंटा बाकी है।’

कुमार ने कहा - ‘अब कोई काम करने का वक्त नहीं रहा। एक घंटे में क्या हो सकता है?’ ज्येतिषी जी की भी यही राय ठहरी। आखिर चारों आदमी बाग से बाहर रवाना हुए और कोठरी तथा तहखाने के रास्ते होकर खँडहर के दालान में आए। पहले की तरह चट्टान को तहखाने के मुँह पर रख, ताला बंद कर दिया और खँडहर के बाहर होकर अपने खेमे में चले आए।

थोड़ी देर आराम करने के बाद कुमार के जी में आया कि जरा जंगल में इधर-उधर घूम कर हवा खानी चाहिए। तेजसिंह से कहा, वह भी इस बात पर मुस्तैद हो गए, आखिर तीनों ऐयारों को साथ ले कर लश्कर के बाहर हुए। कुमार घोड़े पर और तीनों ऐयार पैदल थे।

कुमार धीरे-धीरे जा रहे थे। कोस भर के करीब गए होंगे कि एक मोटे से साखू के पेड़ में कुछ लिखा हुआ एक कागज चिपका नजर पड़ा।

तेजसिंह ने कहा - ‘देखो यह कैसा कागज चिपका है और क्या लिखा है?’ यह सुन कर देवीसिंह ने उस पेड़ के पास जा कर कागज पढ़ा, यह लिखा हुआ था-

‘क्यों, अब तुमको मालूम हुआ कि मैं कैसी आफत हूँ। कहती थी कि मुझसे शादी कर लो तो एक घंटे में तिलिस्म तोड़ कर चंद्रकांता से मिलने की तरकीब बता दूँ। लेकिन तुमने न माना, आखिर मैंने भी गुस्से में आ कर महाराज शिवदत्त को छुड़ा दिया। अब क्या इरादा है? शादी करोगे या नहीं? अगर मंजूर हो तो जवाब लिख कर इसी पेड़ से चिपका दो, मैं तुरंत तुम्हारे पास चली आऊँगी, और अगर नामंजूर हो तो साफ जवाब दे दो। अब की दफा मैं चंद्रकांता और चपला को जान से मार कलेजा ठंडा करूँगी। मुझे तिलिस्म में जाते कितनी देर लगती है। दिन में तेरह दफा जाऊँ और आऊँ। अपनी भलाई और मेरी जवानी की तरफ ख्याल करो। मेरे सामने तुम्हारे ऐयारों की ऐयारी कुछ न चलेगी। उस दिन देवीसिंह ने मेरा पीछा किया था मगर क्या कर सके? मेरी, मानो, जिद्द मत करो, मेरे ही कहने से शिवदत्त तुम्हारा दोस्त बना है, अब भी समझ जाओ।

- तुम्हारी सूरजमुखी।’

इसे पढ़ देवीसिंह ने हाथ के इशारे से सभी को अपने पास बुलाया और कहा - ‘आप लोग भी इसे पढ़ लीजिए।’

आखिर में ‘सूरजमुखी’ पढ़ कर सभी को हँसी आ गई। कुमार ने कहा - ‘देखो इस चुड़ैल ने अपना नाम कैसे मजे का लिखा है।’

तेजसिंह ने ज्योतिषी जी से कहा - ‘देखिए यह सब क्या लिखा है।’

ज्योतिषी जी ने जवाब दिया - ‘चाहे जो भी हो, मगर मैं भी ठीक कहे देता हूँ कि वह चुड़ैल कुमार का कुछ बिगाड़ नहीं सकती। इस लिखावट की तरफ ख्याल न कीजिए।’

कुमार ने कहा - ‘आपका कहना ठीक है मगर वह जो कहती है उसे कर दिखाती है।’

इतना कह कुमार आगे बढ़े। घूमते समय कई पेड़ों पर इसी तरह के लिखे हुए कागज चिपके हुए दिखाई पड़े। ज्योतिषी जी के कहने से कुमार की तबीयत न भरी, उदास हो कर अपने लश्कर में लौट आए और तीनों ऐयारों के साथ अपने खेमे में चले गए।

थोड़ी देर उसी सूरजमुखी की बातचीत होती रही। पहर रात गई होगी जब तेजसिंह ने कुमार से कहा - ‘हम लोग इस वक्त बालादवी को जाते हैं, शायद कोई नई बात नजर पड़ जाए।’ यह कह कर तेजसिंह, देवीसिंह और ज्योतिषी जी कुमार से विदा हो गश्त लगाने चले गए। कुमार भी कुछ भोजन करके पलँग पर जा लेटे। नींद काहे को आनी थी, पड़े-पड़े कुमारी चंद्रकांता की बेबसी, वनकन्या की चाह, और बूढ़ी चुड़ैल की शैतानी को सोचते-सोचते आधी रात से भी ज्यादा गुजर गई। इतने में खेमे के अंदर किसी के आने की आहट मिली, दरवाजे की तरफ देखा तो तेजसिंह नजर पड़े। बोले - ‘कहो तेजसिंह, कोई नई खबर लाए क्या।’

तेजसिंह – ‘हाँ एक बढ़िया चीज हाथ लगी है?’

कुमार – ‘क्या है? कहाँ है? देखूँ।’

तेजसिंह – ‘खेमे के बाहर चलिए तो दिखाऊँ।’

कुमार – ‘चलो।’

कुँवर वीरेंद्रसिंह तेजसिंह के पीछे-पीछे खेमे के बाहर हुए। देखा कि कुछ दूर पर रोशनी हो रही है और बहुत से आदमी इकट्ठे हैं। पूछा - ‘यह भीड़ कैसी है?’

तेजसिंह ने कहा - ‘चलिए देखिए, बड़ी खुशी की बात है।’

कुमार के पास पहुँचते ही भीड़ हटा दी गई। कई मशाल जल रहे थे जिनकी रोशनी में कुमार ने देखा कि क्रूरसिंह की खून से भरी हुई लाश पड़ी है। कलेजे में एक खंजर घुसा हुआ, अभी तक मौजूद है।

कुमार ने तेजसिंह से कहा - ‘क्यों तेजसिंह, आखिर तुमने इसको मार ही डाला।’

तेजसिंह – ‘भला हम लोग एकाएक इस तरह किसी को मारते हैं?’

कुमार – ‘तो फिर किसने मारा?’

तेजसिंह – ‘मैं क्या जानूँ।’

कुमार – ‘फिर लाश को कहाँ से लाए?’

तेजसिंह – ‘बालादवी करते (गश्त लगाते) हम लोग इस तिलिस्मी खँडहर के पिछवाड़े चले गए। दूर से देखा कि तीन-चार आदमी खड़े हैं। जब तक हम लोग पास जाएँ, वे सब भाग गए। देखा तो क्रूर की लाश पड़ी थी। तब देवीसिंह को भेज यहाँ से डोली और कहार मँगवाए और इस लाश को ज्यों का त्यों उठवा लाए, अभी मरा नहीं है, बदन गर्म है मगर बचेगा नहीं।’

कुमार – ‘बड़े ताज्जुब की बात है। इसे किसने मारा? अच्छा वह खंजर तो निकालो जो इसके कलेजे में घुसा हुआ है।’

तेजसिंह ने खंजर निकाला और पानी से धो कर कुमार के पास लाए। मशाल की रोशनी में उसके कब्जे पर निगाह की तो कुछ खुदा हुआ मालूम पड़ा। खूब गौर करके देखा तो बारीक हरफों में ‘चपला’ का नाम खुदा हुआ था।

तेजसिंह ने ताज्जुब से कहा - ‘देखिए इस पर तो चपला का नाम खुदा है और इस खंजर को मैं बखूबी पहचानता हूँ, यह बराबर चपला के कमर में बँधा रहता था, मगर फिर यहाँ कैसे आया? क्या चपला ही ने इसे मारा है?’

देवीसिंह – ‘चपला बेचारी तो खोह में कुमारी चंद्रकांता के पास बैठी होगी जहाँ चिराग भी न जलता होगा।’

कुमार – ‘तो वहाँ से इस खंजर को कौन लाया?’

तेजसिंह – ‘इसके सिवाय यह भी सोचना चाहिए कि क्रूरसिंह यहाँ क्यों आया? वह तो महाराज शिवदत्त के साथ था और उनका दीवान खुद ही आया हुआ है जो कहता है कि महाराज अब आपसे दुश्मनी नहीं करेंगे।

कुमार – ‘किसी को भेज कर महाराज शिवदत्त के दीवान को बुलाओ।’

तेजसिंह ने देवीसिंह को कहा कि तुम ही जा कर बुला लाओ। देवीसिंह गए, उन्हें नींद से उठा कर कुमार का संदेशा दिया, वे बेचारे भी घबराए हुए जल्दी-जल्दी कुमार के पास आए। फतहसिंह भी उसी जगह पहुँचे। दीवान साहब क्रूरसिंह की लाश देखते ही बोले - ‘बस यह बदमाश तो अपनी सजा को पहुँच चुका मगर इसके साथी अहमद और नाजिम बाकी हैं, उनकी भी यही गति होती तो कलेजा ठंडा होता।’

कुमार ने पूछा - ‘क्या यह आपके यहाँ अब नहीं है।’

दीवान साहब ने जवाब दिया - ‘नहीं, जिस रोज महाराज तहखाने से छूट कर आए और हुक्म दिया कि हमारे यहाँ का कोई भी आदमी कुमार के साथ दुश्मनी का ख्याल न रखे उसी वक्त क्रूरसिंह अपने बाल-बच्चों तथा नाजिम और अहमद को साथ ले कर चुनारगढ़ से भाग गया, पीछे महाराज ने खोज भी कराई मगर कुछ पता न लगा।’

देखते-देखते क्रूरसिंह ने तीन-चार दफा हिचकी ली और दम तोड़ दिया।

कुमार ने तेजसिंह से कहा - ‘अब यह मर गया, इसको ठिकाने पहुँचाओ और खंजर को तुम अपने पास रखो, सुबह देखा जाएगा।’ तेजसिंह ने क्रूरसिंह की लाश को उठवा दिया और सब अपने-अपने खेमे में गए।
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RE: चन्द्रकान्ता - देवकीनन्दन खत्री रचित उपन्यास - by usaiha2 - 30-07-2021, 12:13 PM



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