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चन्द्रकान्ता - देवकीनन्दन खत्री रचित उपन्यास
#66
बयान - 6

देवीसिंह और ज्योतिषी जी वनकन्या की टोह में निकल कर थोड़ी ही दूर गए होंगे कि एक नकाबपोश सवार मिला। जिसने पुकार कर कहा - ‘देवीसिंह कहाँ जाते हो? तुम्हारी चालाकी हम लोगों से न चलेगी, अभी कल आप लोगों की खातिर की गई है और जल में गोते दे कर कपड़े सब छीन लिए गए, अब क्या गिरफ्तार ही होना चाहते हो? थोड़े दिन सब्र करो, हम लोग तुम लोगों को ऐयारी सिखला कर पक्का करेंगे तब काम चलेगा।’

नकाबपोश सवार की बातें सुन देवीसिंह मन में हैरान हो गए पर ज्योतिषी जी की तरफ देख कर बोले - ‘सुन लीजिए। यह सवार साहब हम लोगों को ऐयारी सिखानेवाला है’ नकाबपोश – ‘ज्योतिषी जी क्या सुनेंगे, यह भी तो शर्माते होंगे क्योंकि इनके रमल को हम लोगों ने बेकार कर दिया, हजार दफा फेंकें मगर पता खाक न लगेगा।’

देवीसिंह – ‘अगर इस इलाके में रहोगे तो बिना पता लगाए न छोड़ेंगे।’

नकाबपोश – ‘रहेंगे नहीं तो जाएँगे कहाँ? रोज मिलेंगे मगर पता न लगने देंगे।’

बात करते-करते देवीसिंह ने चालाकी से कूद कर सवार के मुँह पर से नकाब खींच ली। देखा कि तमाम चेहरे पर रोली मली हुई है, कुछ पहचान न सके।

सवार ने फुर्ती के साथ देवीसिंह की पगड़ी उतार ली और एक खत उनके सामने फेंक घोड़ा दौड़ा कर निकल गया। देवीसिंह ने शर्मिंदगी के साथ खत उठा कर देखा, लिफाफे पर लिखा हुआ था - ‘कुँवर वीरेंद्रसिंह’

ज्योतिषी जी ने देवीसिंह से कहा - ‘न मालूम ये लोग कहाँ के रहने वाले हैं। मुझे तो मालूम होता है कि इस मंडली में जितने हैं, सब ऐयार ही हैं।’

देवीसिंह - (खत जेब में रख कर) ‘इसमें तो शक नहीं, देखिए हर दफा हम ही लोग नीचा देखते हैं, समझा था कि नकाब उतार लेने से सूरत मालूम होगी, मगर उसकी चालाकी तो देखिए चेहरा रंग कर तब नकाब डाले हुए था।’

ज्योतिषी – ‘खैर, देखा जाएगा, इस वक्त तो फिर से लश्कर में चलना पड़ा क्योंकि खत कुमार को देना चाहिए, देखें इससे क्या हाल मालूम होता है? अगर इस पर कुमार का नाम न लिखा होता तो पढ़ लेते।’

देवीसिंह – ‘हाँ चलो, पहले खत का हाल सुन लें तब कोई कार्रवाई सोचें।’

दोनों आदमी लौट कर लश्कर में आए और कुँवर वीरेंद्रसिंह के डेरे में पहुँच कर सब हाल कह खत हाथ में दे दिया। कुमार ने पढ़ा, यह लिखा हुआ था -

‘चाहे जो हो, पर मैं आपके सामने तब तक नहीं आ सकती जब तक आप नीचे लिखी बातों का लिख कर इकरार न कर लें –

1. चंद्रकांता से और मुझसे एक ही दिन एक ही सायत में शादी हो।

2. चंद्रकांता से रुतबे में मैं किसी तरह कम न समझी जाऊँ क्योंकि मैं हर तरह हर दर्जे में उसके बराबर हूँ।

अगर इन दोनों बातों का इकरार आप न करेंगे तो कल ही मैं अपने घर का रास्ता लूँगी। सिवाय इसके यह भी कहे देती हूँ कि बिना मेरी मदद के चाहे आप हजार बरस भी कोशिश करें मगर चंद्रकांता को नहीं पा सकते।’

कुमार का इश्क वनकन्या पर पूरे दर्जे का था। चंद्रकांता से किसी तरह वनकन्या की चाह कम न थी, मगर इस खत को पढ़ने से उनको कई तरह की फिक्रों ने आ घेरा। सोचने लगे कि यह कैसे हो सकता है कि कुमारी से और इससे एक ही सायत में शादी हो, वह कब मंजूर करेगी और महाराज जयसिंह ही कब इस बात को मानेंगे। सिवाय इसके यहाँ यह भी लिखा है कि बिना मेरी मदद के आप चंद्रकांता से नहीं मिल सकते, यह क्या बात है? खैर, सो सब जो भी हो वनकन्या के बिना मेरी जिंदगी मुश्किल है, मैं जरूर उसके लिखे मुताबिक इकरारनामा लिख दूँगा, पीछे समझा जाएगा। कुमारी चंद्रकांता मेरी बात जरूर मान लेगी।

देवीसिंह और ज्योतिषी जी को भी कुमार ने वह खत दिखाया। वे लोग भी हैरान थे कि वनकन्या ने यह क्या लिखा और इसका जवाब क्या देना चाहिए।

दिन और रात-भर कुमार इसी सोच में रहे कि इस खत का क्या जवाब दिया जाए। दूसरे दिन सुबह होते-होते तेजसिंह भी पंडित बद्रीनाथ ऐयार की गठरी पीठ पर लादे हुए आ पहुँचे।

कुमार ने पूछा - ‘वापस क्यों आ गए?’

तेजसिंह – ‘क्या बताएँ मामला ही बिगड़ गया।’

कुमार – ‘सो क्या?’

तेजसिंह – ‘तहखाने का दरवाजा नहीं खुलता।’

कुमार – ‘किसी ने भीतर से तो बंद नहीं कर लिया।’

तेजसिंह – ‘नहीं भीतर तो कोई ताला ही नहीं है।’

ज्योतिषी – ‘दो बातों में से एक बात जरूर है, या तो कोई नया आदमी पहुँचा जिसने दरवाजा खोलने की कोशिश में बिगाड़ दिया, या फिर महाराज शिवदत्त ने भीतर से कोई चालाकी की।’

तेजसिंह – ‘भला शिवदत्त अंदर से बंद करके अपने को और बला में क्यों फँसाएँगे? इसमें तो उनका हर्ज ही है कुछ फायदा नहीं।’

कुमार – ‘कहीं वनकन्या ने तो कोई तरकीब नहीं की।’

तेजसिंह – ‘आप भी गजब करते हैं, कहाँ बेचारी वनकन्या कहाँ वह तिलिस्मी तहखाना।’

कुमार – ‘तुमको मालूम ही नहीं। उसने मुझे खत लिखा है कि - बिना मेरी मदद के तुम चंद्रकांता से नहीं मिल सकते। और भी दो बातें लिखी हैं। मैं इसी सोच में था कि क्या जवाब दूँ और वह कौन-सी बात है जिसमें मुझको वनकन्या की मदद की जरूरत पड़ेगी, मगर अब तुम्हारे लौट आने से शक पैदा होता है।’

देवीसिंह – ‘मुझे भी कुछ उन्हीं का बखेड़ा मालूम होता है।’

तेजसिंह – ‘अगर वनकन्या को हमारे साथ कुछ फसाद करना होता तो तिलिस्मी किताब क्यों वापस देती? देखिए उस खत में क्या लिखा है जो किताब के साथ आया था।’

ज्योतिषी – ‘यह भी तुम्हारा कहना ठीक है।’

तेजसिंह - (कुमार से) ‘भला वह खत तो दीजिए जिसमें वनकन्या ने यह लिखा है कि बिना हमारी मदद के चंद्रकांता से मुलाकात नहीं हो सकती।’

कुमार ने वह खत तेजसिंह के हाथ में दे दी, पढ़ कर तेजसिंह बड़े सोच में पड़ गए कि यह क्या बात है, कुछ अक्ल काम नहीं करती।

कुमार ने कहा - ‘तुम लोग यह जानते ही हो कि वनकन्या की मुहब्बत मेरे दिल में कैसा असर कर गई है, बिना देखे एक घड़ी चैन नहीं पड़ता, तो फिर उसके लिखे बमूजिब इकरारनामा लिख देने में क्या हर्ज है, जब वह खुश होगी तो उससे जरूर ही कुछ न कुछ भेद मिलेगा।’

तेजसिंह – ‘जो मुनासिब समझो कीजिए, चंद्रकांता बेचारी तो कुछ न बोलेगी मगर महाराज जयसिंह यह कब मंजूर करेंगे कि एक ही मड़वे में दोनों के साथ शादी हो। क्या जाने वह कौन, कहाँ की रहने वाली और किसकी लड़की है?’

कुमार – ‘उसकी खत में तो यह भी लिखा है कि मैं किसी तरह रुतबे में कुमारी से कम नहीं हूँ।’

ये बातें हो ही रही थीं कि चोबदार ने आ कर अर्ज किया - ‘एक सिपाही बाहर आया है और जो हाजिर होकर कुछ कहना चाहता है।’

कुमार ने कहा - ‘उसे ले आओ।’ चोबदार उस सिपाही को अंदर ले आया, सभी ने देखा कि अजीब रंग-ढंग का आदमी है। नाटा-सा कद, काला रंग, टाट का चपकन पायजामा जिसके ऊपर से लैस टंकी हुई, सिर पर दौरी की तरह बाँस की टोपी, ढाल-तलवार लगाए था। उसने झुक कर कुमार को सलाम किया।

सभी को उसकी सूरत देख कर हँसी आई मगर हँसी को रोका। तेजसिंह ने पूछा - ‘तुम कौन हो और कहाँ से आए हो?’ उस बाँके जवान ने कहा - ‘मैं देवता हूँ, दैत्यों की मंडली से आ रहा हूँ, कुमार से उस खत का जवाब चाहता हूँ जो कल एक सवार ने देवीसिंह और जगन्नाथ ज्योतिषी को दी थी।’

तेजसिंह – ‘भला तुमने ज्योतिषी जी और देवीसिंह का नाम कैसे जाना?’

बाँका – ‘ज्योतिषी जी को तो मैं तब से जानता हूँ जब से वे इस दुनिया में नहीं आए थे, और देवीसिंह तो हमारे चेले ही हैं।’

देवीसिंह – ‘क्यों बे शैतान, हम कब से तेरे चेले हुए? बेअदबी करता है?’

बाँका – ‘बेअदबी तो आप करते हैं कि उस्ताद को बे-बे करके बुलाते हैं, कुछ इज्जत नहीं करते।’

देवीसिंह – ‘मालूम होता है तेरी मौत तुझको यहाँ ले आई है।’

बाँका – ‘मैं तो स्वयं मौत हूँ।’

देवीसिंह – ‘इस बेअदबी का मजा चखाऊँ तुझको?’

बाँका – ‘मैं कुछ ऐसे-वैसे का भेजा नहीं आया हूँ, मुझको उसने भेजा है जिसको तुम दिन में साढ़े सत्रह दफा झुक कर सलाम करोगे।’

देवीसिंह और कुछ कहा ही चाहते थे कि तेजसिंह ने रोक दिया और कहा - ‘चुप रहो, मालूम होता है यह कोई ऐयार या मसखरा है, तुम खुद ऐयार होकर जरा दिल्लगी में रंज हो जाते हो।’

बाँका – ‘अगर अब भी न समझोगे तो समझाने के लिए मैं चंपा को बुला लाऊँगा।’

उस बाँके-टेढ़े जवान की बात पर सब लोग एकदम हँस पड़े, मगर हैरान थे कि वह कौन है? अजब तमाशा तो यह कि वनकन्या के कुल आदमी हम लोगों का रत्ती-रत्ती हाल जानते हैं और हम लोग कुछ नहीं समझ सकते कि वे कौन हैं।

तेजसिंह उस शैतान की सूरत को गौर से देखने लगे।

वह बोला - ‘आप मेरी सूरत क्या देखते हैं। मैं ऐयार नहीं हूँ, अपनी सूरत मैंने रंगी नहीं है, पानी मंगाइए धो कर दिखा दूँ, मैं आज से काला नहीं हूँ, लगभग चार सौ वर्षों से मेरा यही रंग रहा है।’

तेजसिंह हँस पड़े और बोले - ‘जो हो अच्छे हो, मुझे और जाँचने की कोई जरूरत नहीं, अगर दुश्मन का आदमी होता तो ऐसा करते भी मगर तुमसे क्या? ऐयार हो तो, मसखरे हो तो, इसमें कोई शक नहीं कि दोस्त के आदमी हो।’

यह सुन उसने झुक कर सलाम किया और कुमार की तरफ देख कर कहा - ‘मुझको जवाब मिल जाए क्योंकि बड़ी दूर जाना है।’

कुमार ने उसी खत की पीठ पर यह लिख दिया - ‘मुझको सब-कुछ दिलोजान से मंजूर है।’ बाद इसके अपनी अँगूठी से मोहर कर उस बाँके जवान के हवाले किया, वह खत ले कर खेमे के बाहर हो गया।
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RE: चन्द्रकान्ता - देवकीनन्दन खत्री रचित उपन्यास - by usaiha2 - 30-07-2021, 12:11 PM



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