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चन्द्रकान्ता - देवकीनन्दन खत्री रचित उपन्यास
#62
बयान - 2

कुँवर वीरेंद्रसिंह बैठे फतहसिंह से बातें कर रहे थे कि एक मालिन जो जवान और कुछ खूबसूरत भी थी हाथ में जंगली फूलों की डाली लिए कुमार के बगल से इस तरह निकली जैसे उसको यह मालूम नहीं कि यहाँ कोई है। मुँह से कहती जाती थी - ‘आज जंगली फूलों का गहना बनाने में देर हो गई, जरूर कुमारी खफा होंगी, देखें क्या दुर्दशा होती है।’

इस बात को दोनों ने सुना। कुमार ने फतहसिंह से कहा - ‘मालूम होता है यह उन्हीं की मालिन है, इसको बुला के पूछो तो सही।’

फतहसिंह ने आवाज दी, उसने चौंक कर पीछे देखा, फतहसिंह ने हाथ के इशारे से फिर बुलाया, वह डरती-काँपती उनके पास आ गई। फतहसिंह ने पूछा - ‘तू कौन है और फूलों के गहने किसके वास्ते लिए जा रही है?’

उसने जवाब दिया - ‘मैं मालिन हूँ, यह नहीं कह सकती कि किसके यहाँ रहती हूँ, और ये फूल के गहने किसके वास्ते लिए जाती हूँ। आप मुझको छोड़ दें, मैं बड़ी गरीब हूँ, मेरे मारने से कुछ हाथ न लगेगा, हाथ जोड़ती हूँ, मेरी जान मत लीजिए।’

ऐसी-ऐसी बातें कह मालिन रोने और गिड़गिड़ाने लगी। फूलों की डलियाँ आगे रखी हुई थी जिनकी तेज खुशबू फैल रही थी। इतने में एक नकाबपोश वहाँ आ पहुँचा और कुमार की तरफ मुँह करके बोला - ‘आप इसके फेर में न पड़ें, यह ऐयार है, अगर थोड़ी देर और फूलों की खुशबू दिमाग में चढ़ेगी तो आप बेहोश हो जाएँगे।’

उस नकाबपोश ने इतना कहा ही था कि वह मालिन उठ कर भागने लगी, मगर फतहसिंह ने झट हाथ पकड़ लिया। सवार उसी वक्त चला गया। कुमार ने फतहसिंह से कहा - ‘मालूम नहीं सवार कौन है, और मेरे साथ यह नेकी करने की उसको क्या जरूरत थी?’

फतहसिंह ने जवाब दिया - ‘इसका हाल मालूम होना मुश्किल है क्योंकि वह खुद अपने को छिपा रहा है, खैर, जो हो यहाँ ठहरना मुनासिब नहीं, देखिए अगर यह सवार न आता तो हम लोग फँस ही चुके थे।’

कुमार ने कहा - ‘तुम्हारा यह कहना बहुत ठीक है, खैर, अब चलो और इसको अपने साथ लेते चलो, वहाँ चल कर पूछ लेंगे कि यह कौन है।’

जब कुमार अपने खेमे में फतहसिंह और उस ऐयार को लिए हुए पहुँचे तो बोले - ‘अब इससे पूछो इसका नाम क्या है?’ फतहसिंह ने जवाब दिया - ‘भला यह ठीक-ठीक अपना नाम क्यों बताएगा, देखिए मैं अभी मालूम किए लेता हूँ।’

फतहसिंह ने गरम पानी मँगवा कर उस ऐयार का मुँह धुलाया, अब साफ पहचाने गए कि यह पंडित बद्रीनाथ हैं। कुमार ने पूछा - ‘क्यों अब तुम्हारे साथ क्या किया जाए?’

बद्रीनाथ ने जवाब दिया - ‘जो मुनासिब हो कीजिए।’

कुमार ने फतहसिंह से कहा - ‘इनकी तुम हिफाजत करो, जब तेजसिंह आएँगे तो वही इनका फैसला करेंगे।’ यह सुन फतहसिंह बद्रीनाथ को ले अपने खेमे में चले गए। शाम को बल्कि कुछ रात बीते तेजसिंह, देवीसिंह और ज्योतिषी जी लौट कर आए और कुमार के खेमे में गए।

उन्होंने पूछा - ‘कहो कुछ पता लगा?’

तेजसिंह – ‘कुछ पता न लगा, दिन भर परेशान हुए मगर कोई काम न चला।’

कुमार - ‘(ऊँची साँस ले कर) ‘फिर अब क्या किया जाएगा?’

तेजसिंह – ‘किया क्या जाएगा, आज-कल में पता लगेगा ही।’

कुमार – ‘हमने भी एक ऐयार को गिरफ्तार किया है।’

तेजसिंह – ‘हैं, किसको? वह कहाँ है।’

कुमार – ‘फतहसिंह के पहरे में है, उसको बुला के देखो कौन है।’

देवीसिंह को भेज कर फतहसिंह को मय ऐयार के बुलवाया। जब बद्रीनाथ की सूरत देखी तो खुश हो गए और बोले - ‘क्यों, अब क्या इरादा है?’

बद्रीनाथ – 'जो पहले था वही अब भी है?’

तेजसिंह – ‘अब भी शिवदत्त का साथ छोड़ोगे या नहीं?’

बद्रीनाथ – ‘महाराज शिवदत्त का साथ क्यों छोड़ने लगे?’

तेजसिंह –‘तो फिर कैद हो जाओगे।’

बद्रीनाथ – ‘चाहे जो हो।’

तेजसिंह – ‘यह न समझना कि तुम्हारे साथी लोग छुड़ा ले जाएँगे, हमारा कैद-खाना ऐसा नहीं है।’

बद्रीनाथ – ‘उस कैदखाने का हाल भी मालूम है, वहाँ भेजो भी तो सही।’

देवीसिंह – ‘वाह रे निडर।’

तेजसिंह ने फतहसिंह से कहा - ‘इनके ऊपर सख्त पहरा मुकर्रर कीजिए। अब रात हो गई है, कल इनको बड़े घर पहुँचाया जाएगा।’

फतहसिंह ने अपने मातहत सिपाहियों को बुला कर बद्रीनाथ को उनके सुपुर्द किया, इतने ही में चोबदार ने आ कर एक खत उनके हाथ में दिया और कहा कि एक नकाबपोश सवार बाहर हाजिर है जिसने यह खत राजकुमार को देने के लिए दिया है। तेजसिंह ने लिफाफे को देखा, यह लिखा हुआ था -

‘कुँवर वीरेंद्रसिंह जी के चरण कमलों में - ‘तेजसिंह ने कुमार के हाथ में दिया, उन्होंने खोल कर पढ़ा -


बरवा ( मराठीशब्दकोश में बरवा की परिभाषा
बरवा-पौथरी (राग।) या क्रोध एक छाया, एक ऋषब, एक नरम है गांधार, नरम माध्यम, पांचवें, तीव्र भावना, कोमल और गंभीर अवसाद आवाजें हैं पूर्ण audava हैं।)


‘सुख सम्पत्ति सब त्याग्यो जिनके हेत।

वे निरमोही ऐसे, सुधिहु न लेत॥

राज छोड़ बन जोगी भसम रमाय।

विरह अनल की धूनी तापत हाय॥’

- कोई वियोगिनी

पढ़ते ही आँखें डबडबा आईं, बँधे गले से अटक कर बोले - ‘उसको अंदर बुलाओ जो खत लाया है।’ हुक्म पाते ही चोबदार उस नकाबपोश सवार को लेने बाहर गया मगर तुरंत वापस आ कर बोला - ‘वह सवार तो मालूम नहीं कहाँ चला गया।’

इस बात को सुनते ही कुमार के जी को कितना दुख हुआ वे ही जानते होंगे। वह खत तेजसिंह के हाथ में दिया, उन्होंने भी पढ़ा - ‘इसके पढ़ने से मालूम होता है यह खत उसी ने भेजा है जिसकी खोज में दिन भर हम लोग हैरान हुए और यह तो साफ ही है कि वह भी आपकी मुहब्बत में डूबी हुई है, फिर आपको इतना रंज न करना चाहिए।’

कुमार ने कहा - ‘इस खत ने तो इश्क की आग में घी का काम किया। उसका ख्याल और भी बढ़ गया घट कैसे सकता है। खैर, अब जाओ तुम लोग भी आराम करो, कल जो कुछ होगा देखा जाएगा।’
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RE: चन्द्रकान्ता - देवकीनन्दन खत्री रचित उपन्यास - by usaiha2 - 30-07-2021, 12:04 PM



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