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चन्द्रकान्ता - देवकीनन्दन खत्री रचित उपन्यास
#61
तीसरा अध्याय


बयान - 1

वह नाजुक औरत जिसके हाथ में किताब है और जो सब औरतों के आगे-आगे आ रही है, कौन और कहाँ की रहने वाली है, जब तक यह न मालूम हो जाए तब तक हम उसको वनकन्या के नाम से लिखेंगे।

धीरे-धीरे चल कर वनकन्या जब उन पेड़ों के पास पहुँची जिधर आड़ में कुँवर वीरेंद्रसिंह और फतहसिंह छिपे खड़े थे, तो ठहर गई और पीछे फिर के देखा। इसके साथ एक और जवान, नाजुक तथा चंचल औरत अपने हाथ में एक तस्वीर लिए हुए चल रही थी जो वनकन्या को अपनी तरफ देखते देख आगे बढ़ आई। वनकन्या ने अपनी किताब उसके हाथ में दे दी और तस्वीर उससे ले ली।

तस्वीर की तरफ देख लंबी साँस ली, साथ ही आँखें डबडबा आईं, बल्कि कई बूँद आँसुओं की भी गिर पड़ीं। इस बीच में कुमार की निगाह भी उसी तस्वीर पर जा पड़ी, एकटक देखते रहे और जब वनकन्या बहुत दूर निकल गई तब फतहसिंह से बातचीत करने लगे।

कुमार – ‘क्यों फतहसिंह, यह कौन है कुछ जानते हो?’

फतहसिंह - ‘मैं कुछ भी नहीं जानता मगर इतना कह सकता हूँ कि किसी राजा की लड़की है।’

कुमार – ‘यह किताब जो इसके हाथ में है जरूर वही है जो मुझको तिलिस्म से मिली थी, जिसको शिवदत्त के ऐयारों ने चुराया था, जिसके लिए तेजसिंह और बद्रीनाथ में बदाबदी हुई और जिसकी खोज में हमारे ऐयार लगे हुए हैं।’

फतहसिंह - ‘मगर फिर वह किताब इसके हाथ कैसे लगी?’

कुमार – ‘इसका तो ताज्जुब हुआ है मगर इससे भी ज्यादा ताज्जुब की एक बात और है, शायद तुमने ख्याल नहीं किया।’

फतहसिंह – ‘नहीं, वह क्या?’

कुमार – ‘वह तस्वीर भी मेरी ही है जिसको बगल वाली औरत के हाथ से उसने लिया था।’

फतहसिंह - ‘यह तो आपने और भी आश्चर्य की बात सुनाई।’

कुमार – ‘मैं तो अजब हैरानी में पड़ा हूँ, कुछ समझ ही नहीं आता कि क्या मामला है। अच्छा चलो पीछे-पीछे देखें ये सब जाती कहाँ हैं।’

फतहसिंह - ‘चलिए।’

कुमार और फतहसिंह उसी तरफ चले जिधर वे औरतें गई थीं। थोड़ी ही दूर गए होंगे कि पीछे से किसी ने आवाज दी। फिर के देखा तो तेजसिंह पर नजर पड़ी। ठहर गए, जब पास पहुँचे उन्हें घबराए हुए और बदहोशो-हवास देख कर पूछा - ‘क्यों क्या है जो ऐसी सूरत बनाए हो?’

तेजसिंह ने कहा - ‘है क्या, बस हम आपसे जिंदगी भर के लिए जुदा होते हैं।’

इससे ज्यादा न बोल सके, गला भर आया, आँखों से आँसुओं की बूँदे टपाटप गिरने लगीं। तेजसिंह की अधूरी बात सुन और उनकी ऐसी हालत देख कुमार भी बेचैन हो गए, मगर यह कुछ भी न जान पड़ा कि तेजसिंह के इस तरह बेदिल होने का क्या सबब है।

फतहसिंह से इनकी यह दशा देखी न गई। अपने रूमाल से दोनों की आँखें पोंछीं, इसके बाद तेजसिंह से पूछा - ‘आपकी ऐसी हालत क्यों हो रही है, कुछ मुँह से तो कहिए। क्या सबब है जो जन्म भर के लिए आप कुमार से जुदा होंगे?’

तेजसिंह ने अपने को सँभाल कर कहा - ‘तिलिस्मी किताब हम लोगों के हाथ न लगी और न मिलने की कोई उम्मीद है इसलिए अपने कौल पर सिर मुंड़ा के निकल जाना पड़ेगा।’

इसका जवाब कुँवर वीरेंद्रसिंह और फतहसिंह कुछ दिया ही चाहते थे कि देवीसिंह और पंडित जगन्नाथ ज्योतिषी भी घूमते हुए आ पहुँचे। ज्योतिषी जी ने पुकार कर कहा - ‘तेजसिंह, घबराइए मत, अगर आपको किताब न मिली तो उन लोगों के पास भी न रही, जो मैंने पहले कहा था वही हुआ, उस किताब को कोई तीसरा ही ले गया।’

अब तेजसिंह का जी कुछ ठिकाने हुआ। कुमार ने कहा - ‘वाह खूब, आप भी रोए और मुझको भी रुलाया। जिसके हाथ में किताब पहुँची उसे मैंने देखा मगर उसका हाल कहने का कुछ मौका तो मिला नहीं, तुम पहले से ही रोने लगे।’ इतना कह के कुमार ने उस तरफ देखा जिधर वे औरतें गई थीं मगर कुछ दिखाई न पड़ा।

तेजसिंह ने घबरा कर कहा - ‘आपने किसके हाथ में किताब देखी? वह आदमी कहाँ है?’

कुमार ने जवाब दिया - ‘मैं क्या बताऊँ कहाँ है, चलो उस तरफ शायद दिखाई दे जाए, हाय विपत-पर-विपत बढ़ती ही जाती है।’

आगे-आगे कुमार तथा पीछे-पीछे तीनों ऐयार और फतहसिंह उस तरफ चले जिधर वे औरतें गई थीं, मगर तेजसिंह, देवीसिंह और ज्योतिषी जी हैरान थे कि कुमार किसको खोज रहे हैं, वह किताब किसके हाथ लगी है, या जब देखा ही था तो छीन क्यो न लिया। कई दफा चाहा कि कुमार से इन बातों को पूछें मगर उनको घबराए हुए इधर-उधर देखते और लंबी-लंबी साँसें लेते देख तेजसिंह ने कुछ न पूछा। पहर भर तक कुमार ने चारों तरफ खोजा मगर फिर उन औरतों पर निगाह न पड़ी। आखिर आँखें डबडबा आईं और एक पेड़ के नीचे खड़े हो गए।

तेजसिंह ने पूछा - ‘आप कुछ खुलासा कहिए भी तो कि क्या मामला है?’

कुमार ने कहा - ‘अब इस जगह कुछ न कहेंगे। लश्कर में चलो, फिर जो कुछ है सुन लेना।’

सब कोई लश्कर में पहुँचे। कुमार ने कहा - ‘पहले तिलिस्मी खँडहर में चलो। देखें बद्रीनाथ की क्या कैफियत है।’ यह कह कर खँडहर की तरफ चले, ऐयार सब पीछे-पीछे रवाना हुए। खँडहर के दरवाजे के अंदर पैर रखा ही था कि सामने से पंडित बद्रीनाथ, पन्नालाल वगैरह आते दिखाई पड़े।

कुमार – ‘यह देखो वह लोग इधर ही चले आ रहे हैं। मगर हैं, यह बद्रीनाथ छूट कैसे गए?’

तेजसिंह – ‘बड़े ताज्जुब की बात है।’

देवीसिंह – ‘कहीं किताब उन लोगों के हाथ तो नहीं लग गई। अगर ऐसा हुआ तो बड़ी मुश्किल होगी।’

फतहसिंह - ‘इससे निश्चिंत रहो, वह किताब इनके हाथ अब तक नहीं लगी। हाँ, आगे मिल जाए तो मैं नहीं कह सकता, क्योंकि अभी थोड़ी ही देर हुई है वह दूसरे के हाथ में देखी जा चुकी है।

इतने में बद्रीनाथ वगैरह पास आ गए। पन्नालाल ने पुकार के कहा - ‘क्यों तेजसिंह, अब तो हार गए न।’

तेजसिंह – ‘हम क्यों हारे।’

बद्रीनाथ – ‘क्यों नहीं हारे, हम छूट भी गए और किताब भी न दी।’

तेजसिंह – ‘किताब तो हम पा गए, तुम चाहे अपने आप छूटो या मेरे छुड़ाने से छूटो। किताब पाना ही हमारा जीतना हो गया, अब तुमको चाहिए कि महाराज शिवदत्त को छोड़ कर कुमार के साथ रहो।’

बद्रीनाथ – ‘हमको वह किताब दिखा दो, हम अभी ताबेदारी कबूल करते हैं।’

तेजसिंह – ‘तो तुम ही क्यों नहीं दिखा देते, जब तुम्हारे पास नहीं तो साबित हो गया कि हम पा गए।’

बद्रीनाथ – ‘बस-बस, हम बेफिक्र हो गए, तुम्हारी बातचीत से मालूम हो गया कि तुमने किताब नहीं पाई और उसे कोई तीसरा ही उड़ा ले गया, अभी तक हम डरे हुए थे।’

देवीसिंह – ‘फिर आखिर हारा कौन यह भी तो कहो?’

बद्रीनाथ – ‘कोई भी नहीं हारा।’

कुमार – ‘अच्छा यह तो कहो तुम छूटे कैसे।’

बद्रीनाथ – ‘बस ईश्वर ने छुड़ा दिया, जानबूझ के कोई तरकीब नहीं की गई। पन्नालाल ने उसके सिर पर एक लकड़ी रखी, उस पत्थर के आदमी ने मुझको छोड़ लकड़ी पकड़ी, बस मैं छूट गया। उसके हाथ में वह लकड़ी अभी तक मौजूद है।’

कुमार – ‘अच्छा हुआ, दोनों की ही बात रह गई।’

बद्रीनाथ – ‘कुमार, मेरा जी तो चाहता है कि आपके साथ रहूँ मगर क्या करूँ, नमकहरामी नहीं कर सकता, कोई तो सबब होना चाहिए। अब मुझे आज्ञा हो तो विदा होऊँ।’

कुमार – ‘अच्छा जाओ।’

ज्योतिषी – ‘अच्छा हमारी तरफ नहीं होते तो न सही मगर ऐयारी तो बंद करो।’

तेजसिंह – ‘वाह ज्योतिषी जी, आखिर वेदपाठी ही रहे। ऐयारी से क्या डरना? ये लोग जितना जी चाहें जोर लगा लें।’

पन्नालाल – ‘खैर, देखा जाएगा, अभी तो जाते है, जय माया की।’

तेजसिंह – ‘जय माया की।’

बद्रीनाथ वगैरह वहाँ से चले गए। फिर कुमार भी तिलिस्म में न गए और अपने डेरे में चले आए। रात को कुमार के डेरे में सब ऐयार और फतहसिंह इकट्ठे हुए। दरबानों को हुक्म दिया कि कोई अंदर न आने पाए।

तेजसिंह ने कुमार से पूछा - ‘अब बताइए किताब किसके हाथ में देखी थी, वह कौन है, और आपने किताब लेने की कोशिश क्यों नहीं की?’

कुमार ने जवाब दिया - ‘यह तो मैं नहीं जानता कि वह कौन है लेकिन जो भी हो, अगर कुमारी चंद्रकांता से बढ़ के नहीं है तो किसी तरह कम भी नहीं है। उसके हुस्न ने मुझे उससे किताब छिनने न दी।’

तेजसिंह - (ताज्जुब से) ‘कुमारी चंद्रकांता से और उस किताब से क्या संबंध? खुलासा कहिए तो कुछ मालूम हो।’

कुमार – ‘क्या कहें हमारी तो अजब हालत है।’ (ऊँची साँस ले कर चुप ही रहे)

तेजसिंह – ‘आपकी विचित्र ही दशा हो रही है, कुछ समझ में नहीं आता। (फतहसिंह की तरफ देख के) आप तो इनके साथ थे, आप ही खुलासा हाल कहिए, यह तो बारह दफा लंबी साँस लेगे तो डेढ़ बात कहेंगे। जगह-जगह तो इनको इश्क पैदा होता है, एक बला से छूटे नहीं दूसरी खरीदने को तैयार हो गए।’

फतहसिंह ने सब हाल खुलासा कह सुनाया। तेजसिंह बहुत हैरान हुए कि वह कौन थी और उसने कुमार को पहले कब देखा, कब आशिक हुई और तस्वीर कैसे उतरवा मँगाई?

ज्योतिषी जी ने कई दफा रमल फेंका मगर खुलासा हाल मालूम न हो सका। हाँ, इतना कहा कि किसी राजा की लड़की है। आधी रात तक सब कोई बैठे रहे, मगर कोई काम न हुआ, आखिर यह बात ठहरी कि जिस तरह बने उन औरतों को ढूँढ़ना चाहिए।

सब कोई अपने डेरे में आराम करने चले गए। रात-भर कुमार को वनकन्या की याद ने सोने न दिया। कभी उसकी भोली-भाली सूरत याद करते, कभी उसकी आँखों से गिरे हुए आँसुओं के ध्यान में डूबे रहते। इसी तरह करवटें बदलते और लंबी साँस लेते रात बीत गई बल्कि घंटा भर दिन चढ़ आया। पर कुमार अपने पलँग पर से न उठे।

तेजसिंह ने आ कर देखा तो कुमार चादर से मुँह लपेटे पड़े हैं, मुँह की तरफ का बिल्कुल कपड़ा गीला हो रहा है। दिल में समझ गए कि वनकन्या का इश्क पूरे तौर पर असर कर गया है, इस वक्त नसीहत करना भी उचित नहीं। आवाज दी - ‘आप सोते हैं या जागते हैं?’

कुमार - (मुँह खोल कर) ‘नहीं, जागते तो हैं।’

तेजसिंह – ‘फिर उठे क्यों नहीं? आप तो रोज सवेरे ही स्नान-पूजा से छुट्टी कर लेते हैं, आज क्या हुआ?’

‘नहीं कुछ नहीं’ कहते हुए कुमार उठ बैठे। जल्दी-जल्दी स्नान से छुट्टी पा कर भोजन किया। तेजसिंह वगैरह इनके पहले ही सब कामों से निश्चित हो चुके थे, उन लोगों ने भी कुछ भोजन कर लिया और उन औरतों को ढूँढ़ने के लिए जंगल में जाने को तैयार हुए। कुमार ने कहा - ‘हम भी चलेंगे।’ सभी ने समझाया कि आप चल कर क्या करेंगे हम लोग पता लगाते हैं, आपके चलने से हमारे काम में हर्ज होगा। मगर कुमार ने कहा - ‘कोई हर्ज न होगा, हम फतहसिंह को अपने साथ लेते चलते हैं, तुम्हारा जहाँ जी चाहे घूमना, हम उसके साथ इधर-उधर फिरेंगे।’

तेजसिंह ने फिर समझाया कि कहीं शिवदत्त के ऐयार लोग आपको धोखे में न फँसा लें, मगर कुमार ने एक मानी, आखिर लाचार हो कर कुमार और फतहसिंह को साथ ले जंगल की तरफ रवाना हुए।

थोड़ी दूर घने जंगल में जा कर उन लोगों को एक जगह बैठा कर तीनों ऐयार अलग-अलग उन औरतों की खोज में रवाना हुए, ऐयारों के चले जाने पर कुँवर वीरेंद्रसिंह फतहसिंह से बातें करने लगे मगर सिवाय वनकन्या के कोई दूसरा जिक्र कुमार की जुबान पर न था।
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RE: चन्द्रकान्ता - देवकीनन्दन खत्री रचित उपन्यास - by usaiha2 - 30-07-2021, 12:01 PM



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