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चन्द्रकान्ता - देवकीनन्दन खत्री रचित उपन्यास
#56
बयान - 24

रात-भर जगन्नाथ ज्योतिषी रमल फेंकने और विचार करने में लगे रहे। कुँवर वीरेंद्रसिंह, तेजसिंह और देवीसिंह भी रात-भर पास ही बैठे रहे। सब बातों को देख-भाल कर ज्योतिषी जी ने कहा - ‘रमल से मालूम होता है कि इस तिलिस्म के तोड़ने की तरकीब एक पत्थर पर खुदी हुई है और वह पत्थर भी इसी खँडहर में किसी जगह पड़ा हुआ है। उसको तलाश करके निकालना चाहिए तब सब पता चलेगा। स्नान-पूजा से छुट्टी पा कुछ खा-पी कर इस तिलिस्म में घूमना चाहिए, जरूर उस पत्थर का भी पता लगेगा।’

सब कामों से छुट्टी पा कर दोपहर को सब लोग खँडहर में घुसे। देखते-भालते उसी चबूतरे के पास पहुँचे जिस पर पत्थर का वह आदमी सोया हुआ था जिसे देवीसिंह ने धौल जमाई थी। उस आदमी को फिर उसी तरह सोता पाया।

ज्योतिषी जी ने तेजसिंह से कहा - ‘यह देखो ईंटों का ढेर लगा हुआ है, शायद इसे चपला ने इकट्ठा किया हो और इसके ऊपर चढ़ कर इस आदमी को देखा हो। तुम भी इस पर चढ़ के खूब गौर से देखो तो सही किताब में जो इसके हाथ में है क्या लिखा है?’ तेजसिंह ने ऐसा ही किया और उस ईंट के ढेर पर चढ़ कर देखा। उस किताब में लिखा था -

8 पहल – 5 - अंक

6 हाथ – 3 - अंगुल

जमा पूँजी – 0 - जोड़, ठीक माप तोड़।

तेजसिंह ने ज्योतिषी जी को समझाया कि इस पत्थर की किताब में ऐसा लिखा है, मगर इसका मतलब क्या है कुछ समझ में नहीं आता। ज्योतिषी जी ने कहा - ‘मतलब भी मालूम हो जाएगा, तुम एक कागज पर इसकी नकल उतार लो।’ तेजसिंह ने अपने बटुए में से कागज-कलम-दवात निकाल उस पत्थर की किताब में जो लिखा था उसकी नकल उतार ली।

ज्योतिषी जी ने कहा - ‘अब घूम कर देखना चाहिए कि इस मकान में कहीं आठ पहल का कोई खंबा या चबूतरा किसी जगह पर है या नहीं।’ सब कोई उस खँडहर में घूम-घूम कर आठ पहल का खंबा या चबूतरा तलाश करने लगे। घूमते-घूमते उस दालान में पहुँचे जहाँ तहखाना था। एक सिरा कमंद का तहखाने की किवाड़ के साथ और दूसरा सिरा जिस खंबे के साथ बँधा हुआ था, उसी खंबे को आठ पहल का पाया। उस खंबे के ऊपर कोई छत न थी, ज्योतिषी जी ने कहा - ‘इसकी लंबाई हाथ से नापनी चाहिए।’ तेजसिंह ने नापा, 6 हाथ 7 अंगुल हुआ, देवीसिंह ने नापा 6 हाथ 5 अंगुल हुआ, बाद इसके ज्योतिषी जी ने नापा, 6 हाथ 10 अंगुल पाया, सब के बाद कुँवर वीरेंद्रसिंह ने नापा, 6 हाथ 3 अंगुल हुआ।

ज्योतिषी जी ने खुश हो कर कहा - ‘बस यही खंबा है, इसी का पता इस किताब में लिखा है, इसी के नीचे ‘जमा पूँजी’ यानी वह पत्थर जिसमें तिलिस्म तोड़ने की तरकीब लिखी हुई है गड़ा है। यह भी मालूम हो गया कि यह तिलिस्म कुमार के हाथ से ही टूटेगा, क्योंकि उस किताब में जिसकी नकल कर लाए हैं उसका नाप 6 हाथ 3 अंगुल लिखा है जो कुमार ही के हाथ से हुआ, इससे मालूम होता है कि यह तिलिस्म कुमार ही के हाथ से फतह भी होगा। अब इस कमंद को खोल डालना चाहिए जो इस खंबे और किवाड़ के पल्ले में बँधी हुई है।’

तेजसिंह ने कमंद खोल कर अलग किया, ज्योतिषी जी ने तेजसिंह की तरफ देख के कहा - ‘सब बातें तो मिल गईं, आठ पहल भी हुआ और नाप से 6 हाथ 3 अंगुल भी है, यह देखिए, इस तरफ 5 का अंक भी दिखाई देता है, बाकी रह गया, ठीक नाप तोड़, सो कुमार के हाथ से इसका नाप भी ठीक हुआ, अब यही इसको तोड़ें।’

कुँवर वीरेंद्रसिंह ने उसी जगह से एक बड़ा भारी पत्थर (चूने का ढोंका) ले लिया जिसका मसाला सख्त और मजबूत था। इसी ढोंके को ऊँचा करके जोर से उस खंबे पर मारा जिससे वह खंबा हिल उठा, दो-तीन दफा में बिल्कुल कमजोर हो गया, तब कुमार ने बगल में दबा कर जोर दिया और जमीन से निकाल डाला। खंबा उखाड़ने पर उसके नीचे एक लोहे का संदूक निकला जिसमें ताला लगा हुआ था। बड़ी मुश्किल से इसका भी ताला तोड़ा। भीतर एक और संदूक निकला, उसका भी ताला तोड़ा। और एक संदूक निकला। इसी तरह दर्जे-ब-दर्जे सात संदूक उसमें से निकले। सातवें संदूक में एक पत्थर निकला, जिस पर कुछ लिखा हुआ था, कुमार ने उसे निकाल लिया और पढ़ा, यह लिखा हुआ था -

‘सँभाल के काम करना, तिलिस्म तोड़ने में जल्दी मत करना, अगर तुम्हारा नाम वीरेंद्रसिंह है तो यह दौलत तुम्हारे ही लिए है।

बगुले के मुँह की तरफ जमीन पर जो पत्थर संगमरमर का जड़ा है, वह पत्थर नहीं मसाला जमाया हुआ है। उसको उखाड़ कर सिरके में खूब महीन पीस कर बगुले के सारे अंग पर लेप कर दो। वह भी मसाले ही का बना हुआ है, दो घंटे में बिल्कुल गल कर बह जाएगा। उसके नीचे जो कुछ तार-चर्खे पहिये पुर्जे हो सब तोड़ डालो। नीचे एक कोठरी मिलेगी जिसमें बगुले के बिगड़ जाने से बिल्कुल उजाला हो गया होगा। उस कोठरी से एक रास्ता नीचे उस कुएँ में गया है जो पूरब वाले दालान में है। वहाँ भी मसाले से बना एक बूढ़ा आदमी हाथ में किताब लिए दिखाई देगा। उसके हाथ से किताब ले लो, मगर एकाएक मत छीनो नहीं तो धोखा खाओगे। पहले उसका दाहिना बाजू पकड़ो, वह मुँह खोल देगा, उसका मुँह काफूर से खूब भर दो, थोड़ी ही देर में वह भी गल के बह जाएगा, तब किताब ले लो। उसके सब पन्ने भोजपत्र के होंगे। जो कुछ उसमें लिखा हो वैसा करो।

-विक्रम।’

कुमार ने पढ़ा, सभी ने सुना। घंटे भर तक तो सिवाय तिलिस्म बनाने वाले की तारीफ के किसी की जुबान से दूसरी बात न निकली। बाद इसके यह राय ठहरी कि अब दिन भी थोड़ा रह गया है, डेरे में चल कर आराम किया जाए, कल सवेरे ही कुल कामों से छुट्टी पा कर तिलिस्म की तरफ झुकें।
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RE: चन्द्रकान्ता - देवकीनन्दन खत्री रचित उपन्यास - by usaiha2 - 29-07-2021, 07:51 PM



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