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चन्द्रकान्ता - देवकीनन्दन खत्री रचित उपन्यास
#54
बयान - 21

कुमारी के पास आते हुए चपला को नीचे से कुँवर वीरेंद्रसिंह वगैरह सभी ने देखा। ऊपर से चपला पुकार कर कहने लगी - ‘जिस खोह में हम लोगों को शिवदत्त ने कैद किया था उसके लगभग सात कोस दक्षिण एक पुराने खँडहर में एक बड़ा भारी पत्थर का करामाती बगुला है, वही कुमारी को निगल गया था। वह तिलिस्म किसी तरह टूटे तो हम लोगों की जान बचे, दूसरी कोई तरकीब हम लोगों के छूटने की नहीं हो सकती। मैं बहुत सँभल कर उस तिलिस्म में गई थी पर तो भी फँस गई। तुम लोग जाना तो बहुत होशियारी के साथ उसको देखना। मैं यह नहीं जानती कि वह खोह चुनारगढ़ से किस तरफ है, हम लोगों को दुष्ट शिवदत्त ने कैद किया था।’

चपला की बात बखूबी सभी ने सुनी, कुमार को महाराज शिवदत्त पर बड़ा ही गुस्सा आया। सामने मौजूद ही थे कहीं ढूँढ़ने जाना तो था ही नहीं, तलवार खींच मारने के लिए झपटे। महाराज शिवदत्त की रानी जो उन्हीं के पास बैठी सब तमाशा देखती और बातें सुनती थीं, कुँवर वीरेंद्रसिंह को तलवार खींच के महाराज शिवदत्त की तरफ झपटते देख दौड़ कर कुमार के पैरों पर गिर पड़ीं और बोलीं - ‘पहले मुझको मार डालिए, क्योंकि मैं विधवा होकर मुर्दों से बुरी हालत में नहीं रह सकती।’

तेजसिंह ने कुमार का हाथ पकड़ लिया और बहुत कुछ समझा-बुझा कर ठंडा किया।

कुमार ने तेजसिंह से कहा - ‘अगर मुनासिब समझो और हर्ज न हो तो कुमारी के माँ-बाप को भी यहाँ ला कर कुमारी का मुँह दिखला दो, भला कुछ उन्हें भी तो ढाँढ़स हो।’

तेजसिंह ने कहा - ‘यह कभी नहीं हो सकता, इस तहखाने को आप मामूली न समझिए, जो कुछ कहना होगा मुँहजबानी सब हाल उनको समझा दिया जाएगा। अब यह फिक्र करनी चाहिए जिससे कुमारी की जान छूटे। चलिए सब कोई महाराज जयसिंह को यह हाल कहते हुए उस खँडहर तक चलें जिसका पता चपला ने दिया है।’

यह कह कर तेजसिंह ने चपला को पुकार कर कहा - ‘देखो हम लोग उस खँडहर की तरफ जाते हैं। क्या जाने कितने दिन उस तिलिस्म को तोड़ने में लगे। तुम राजकुमारी को ढाँढ़स देती रहना, किसी तरह की तकलीफ न होने पाए। क्या करें कोई ऐसी तरकीब भी नजर नहीं आती कि कपड़े या खाने-पीने की चीजें तुम तक पहुँचाई जाएँ।’

चपला ने ऊपर से जवाब दिया - ‘कोई हर्ज नहीं, खाने-पीने की कुछ तकलीफ न होगी क्योंकि इस जगह बहुत से मेवों के पेड़ हैं, और पत्थरों में से छोटे-छोटे कई झरने पानी के जारी हैं। आप लोग बहुत होशियारी से काम कीजिएगा। इतना मुझे मालूम हो गया कि बिना कुमार के यह तिलिस्म नहीं टूटने का, मगर तुम लोग भी इनका साथ मत छोड़ना, बड़ी हिफाजत रखना।’

महाराज शिवदत्त और उनकी रानी को उसी तहखाने में छोड़ कुँवर वीरेंद्रसिंह, तेजसिंह, देवीसिंह और ज्योतिषी जी चारों आदमी वहाँ से बाहर निकले। दोहरा ताला लगा दिया। इसके बाद सब हाल कहने के लिए कुमार ने देवीसिंह को नौगढ़ अपने माँ-बाप के पास भेज दिया और यह भी कह दिया कि नौगढ़ से होकर कल ही तुम लौट के विजयगढ़ आ जाना, हम लोग वहाँ चलते हैं, तुम आओगे तब कहीं जाएँगे।’ यह सुन देवीसिंह नौगढ़ की तरफ रवाना हुए।

सवेरे ही से कुँवर वीरेंद्रसिंह विजयगढ़ से गायब थे, बिना किसी से कुछ कहे ही चले गए थे इसलिए महाराज जयसिंह बहुत ही उदास हो कई जासूसों को चारों तरफ खोजने के लिए भेज चुके थे। शाम होते-होते ये लोग विजयगढ़ पहुँचे और महाराज से मिले। महाराज ने कहा - ‘कुमार तुम इस तरह बिना कहे-सुने जहाँ जी में आता है चले जाते हो, हम लोगों को इससे तकलीफ होती है, ऐसा न किया करो।’

इसका जवाब कुमार ने कुछ न दिया मगर तेजसिंह ने कहा - ‘महाराज, जरूरत ही ऐसी थी कि कुमार को बड़े सवेरे यहाँ से जाना पड़ा, उस वक्त आप आराम में थे, इसलिए कुछ कह न सके।’

इसके बाद तेजसिंह ने कुल हाल, लड़ाई से चुनारगढ़ जाना, महाराज शिवदत्त की रानी को चुराना, खोह में कुमारी का पता लगाना, ज्योतिषी जी की मुलाकात, बुर्दाफरोशों की कैफियत, उस तहखाने में कुमारी और चपला को देख उनकी जुबानी तिलिस्म का हाल आदि सब-कुछ हाल पूरा-पूरा ब्यौरेवार कह सुनाया, आखिर में यह भी कहा कि अब हम लोग तिलिस्म तोड़ने जाते हैं।

इतना लंबा-चौड़ा हाल सुन कर महाराज हैरान हो गए। बोले - ‘तुम लोगों ने बड़ा ही काम किया इसमें कोई शक नहीं, हद के बाहर काम किया, अब तिलिस्म तोड़ने की तैयारी है, मगर वह तिलिस्म दूसरे के राज्य में है। चाहे वहाँ का राजा तुम्हारे यहाँ कैद हो तो भी पूरे सामान के साथ तुम लोगों को जाना चाहिए, मैं भी तुम लोगों के साथ चलूँ तो ठीक हो।’

तेजसिंह ने कहा - ‘आपको तकलीफ करने की कोई जरूरत नहीं है, थोड़ी फौज साथ जाएगी वही बहुत है।’

महाराज ने कहा - ‘ठीक है, मेरे जाने की कोई जरूरत नहीं मगर इतना होगा कि चल कर उस तिलिस्म को मैं भी देख आऊँगा।

तेजसिंह ने कहा - ‘जैसी मर्जी।’

महाराज ने दीवान हरदयालसिंह को हुक्म दिया कि हमारी आधी फौज और कुमार की कुल फौज रात-भर में तैयार हो जाए, कल यहाँ से चुनारगढ़ की तरफ कूच होगा।’

बमूजिब हुक्म के सब इंतजाम दीवान साहब ने कर दिया।

 दूसरे दिन नौगढ़ से लौट कर देवीसिंह भी आ गए। बड़ी तैयारी के साथ चुनारगढ़ की तरफ तिलिस्म तोड़ने के लिए कूच हुआ। 

दीवान हरदयालसिंह विजयगढ़ में छोड़ दिए गए।
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RE: चन्द्रकान्ता - देवकीनन्दन खत्री रचित उपन्यास - by usaiha2 - 29-07-2021, 07:45 PM



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