29-07-2021, 07:41 PM
बयान - 20
चपला तहखाने में उतरी। नीचे एक लंबी-चौड़ी कोठरी नजर आई, जिसमें चौखट के सिवाय किवाड़ के पल्ले नहीं थे। पहले चपला ने उसे खूब गौर करके देखा, फिर अंदर गई। दरवाजे के भीतर पैर रखते ही ऊपर वाले चौखटे के बीचोंबीच से लोहे का एक तख्ता बड़े जोर के साथ गिर पड़ा। चपला ने चौंक कर पीछे देखा, दरवाजा बंद पाया। सोचने लगी - ‘यह कोठरी है कि मूसेदानी? दरवाजा इसका बिल्कुल चूहेदानी की तौर पर है। अब क्या करें? और कोई रास्ता कहीं जाने का मालूम नहीं पड़ता, बिल्कुल अँधेरा हो गया, हाथ को हाथ दिखाई नहीं पड़ता।’ चपला अधेरे में चारों तरफ घूमने और टटोलने लगी।
घूमते-घूमते चपला का पैर एक गड्ढे में जा पड़ा, साथ ही इसके कुछ आवाज हुई और दरवाजा खुल गया, कोठरी में चाँदना भी पहुँच गया। यह वह दरवाजा नहीं था जो पहले बंद हुआ था, बल्कि एक दूसरा ही दरवाजा था। चपला ने पास जा कर देखा, इसमें भी कहीं किवाड़ के पल्ले नहीं दिखाई पड़े। आखिर उस दरवाजे की राह से कोठरी के बाहर हो एक बाग में पहुँची। देखा कि छोटे-छोटे फूलों के पेड़ों में रंग-बिरंगे फूल खिले हुए हैं, एक तरफ से छोटी नहर के जरिए से पानी अंदर पहुँच कर बाग में छिड़काव का काम कर रहा है मगर क्यारियाँ इसमें की कोई भी दुरुस्त नहीं हैं। सामने एक बारहदरी नजर आई, धीरे-धीरे घूमती वहाँ पहुँची।
यह बारहदरी बिल्कुल स्याह पत्थर से बनी हुई थी। छत, जमीन, खंबे सब स्याह पत्थर के थे। बीच में संगमरमर के सिंहासन पर हाथ भर का एक सुर्ख चौखूटा पत्थर रखा हुआ था। चपला ने उसे देखा, उस पर यह खुदा हुआ था - ‘यह तिलिस्म है, इसमें फँसने वाला कभी निकल नहीं सकता, हाँ अगर कोई इसको तोड़े तो सब कैदियों को छुड़ा ले और दौलत भी उसके हाथ लगे। तिलिस्म तोड़ने वाले के बदन में खूब ताकत भी होनी चाहिए नहीं तो मेहनत बेफायदा है।’
चपला को इसे पढ़ने के साथ ही यकीन हो गया कि अब जान गई, जिस राह से मैं आई हूँ उस राह से बाहर जाना कभी नहीं हो सकता। कोठरी का दरवाजा बंद हो गया, बाहर वाले दरवाजे को कमंद से बाँधना व्यर्थ हुआ, मगर शायद वह दरवाजा खुला हो जिससे इस बाग में आई हूँ। यह सोच कर चपला फिर उसी दरवाजे की तरफ गई मगर उसका कोई निशान तक नहीं मिला, यह भी नहीं मालूम हुआ कि किस जगह दरवाजा था। फिर लौट कर उसी बारहदरी में पहुँची और सिंहासन के पास गई, जी में आया कि इस पत्थर को उठा लूँ, अगर किसी तरह बाहर निकलने का मौका मिले तो इसको भी साथ लेती जाऊँगी, लोगों को दिखाऊँगी। पत्थर उठाने के लिए झुकी मगर उस पर हाथ रखा ही था, कि बदन में सनसनाहट पैदा हुई और सिर घूमने लगा, यहाँ तक कि बेहोश हो कर जमीन पर गिर पड़ी।
जब तक दिन बाकी था चपला बेहोश पड़ी रही, शाम होते-होते होश में आई। उठ कर नहर के किनारे गई, हाथ-मुँह धोए, जी ठिकाने हुआ। उस बाग में अंगूर बहुत लगे हुए थे मगर उदासी और घबराहट के सबब चपला ने एक दाना भी न खाया, फिर उसी बारहदरी में पहुँची। रात हो गई, और धीरे-धीरे वह बारहदरी चमकने लगी। जैसे-जैसे रात बीतती जाती थी बारहदरी की चमक भी बढ़ती थी। छत, दीवार, जमीन और खंबे सब चमक रहे थे, कोई जगह उस बारहदरी में ऐसी न थी जो दिखाई न देती हो, बल्कि उसकी चमक से सामने वाला थोड़ा हिस्सा बाग का भी चमक रहा था।
यह चमक काहे की है इसको जानने के लिए चपला ने जमीन, दीवार और खंबों पर हाथ फेरा मगर कुछ समझ में न आया। ताज्जुब, डर और नाउम्मीदी ने चपला को सोने न दिया, तमाम रात जागते ही बीती। कभी दीवार टटोलती, कभी उस सिंहासन के पास जा उस पत्थर को गौर से देखती जिसके छूने से बेहोश हो गई थी।
सवेरा हुआ, चपला फिर बाग में घूमने लगी। उस दीवार के पास पहुँची जिसके नीचे से बाग में नहर आई थी। सोचने लगी - ‘दीवार बहुत चौड़ी नहीं है, नहर का मुँह भी खुला है, इस राह से बाहर हो सकती हूँ, आदमी के जाने लायक रास्ता बखूबी है।’ बहुत सोचने-विचारने के बाद चपला ने वही किया, कपड़े सहित नहर में उतर गई, दीवार से उस तरफ हो जाने के लिए गोता मारा, काम पूरा हो गया अर्थात उस दीवार के बाहर हो गई। पानी से सिर निकाल कर देखा तो नहर को बाग के भीतर की बनिस्बत चौड़ी पाया। पानी के बाहर निकली और देखा कि दूर सब तरफ ऊँचे-ऊँचे पहाड़ दिखाई देते हैं जिनके बीचोबीच से यह नहर आई है और दीवार के नीचे से होकर बाग के अंदर गई है। चपला ने अपने कपड़े धूप में सुखाए, ऐयारी का बटुआ भीगा न था क्योंकि उसका कपड़ा रोगनी था। जब सब तरह से लैस हो चुकी, वहाँ से सीधे रवाना हुई। दोनों तरफ ऊँचे-ऊँचे पहाड़, बीच में नाला, किनारे पारिजात के पेड़ लगे हुए, पहाड़ के ऊपर किसी तरफ चढ़ने की जगह नहीं, अगर चढ़े भी तो थोड़ी दूर ऊपर जाने के बाद फिर उतरना पड़े। चपला नाले के किनारे रवाना हुई। दो पहर दिन चढ़े तक लगभग तीन कोस चली गई। आगे जाने के लिए रास्ता न मिला, क्योंकि सामने से भी एक पहाड़ ने रास्ता रोक रखा था जिसके ऊपर से गिरने वाला पानी का झरना नीचे नाले में आ कर बहता था। पहाड़ी के नीचे एक दालान था जो अंदाज में दस गज लंबा और गज भर चौड़ा होगा। गौर के साथ देखने से मालूम होता था कि पहाड़ काट के बनाया गया है। इसके बीचोबीच पत्थर का एक अजदहा (अजगर) था, जिसका मुँह खुला हुआ था और आदमी उसके पेट में बखूबी जा सकता था। सामने एक लंबा-चौड़ा संगमरमर का साफ चिकना पत्थर भी जमीन पर जमाया हुआ था।
अजदहे को देखने के लिए चपला उसके पास गई। संगमरमर के पत्थर पर पैर रखा ही था कि धीरे-धीरे अजदहे ने दम खींचना शुरू किया, और कुछ ही देर बाद यहाँ तक खींचा कि चपला का पैर न जम सका, वह खिंच कर उसके पेट में चली गई साथ ही बेहोश भी हो गई। जब चपला होश में आई उसने अपने को एक कोठरी में पाया जो बहुत तंग सिर्फ दस-बारह आदमियों के बैठने लायक होगी। कोठरी के बगल में ऊपर जाने के लिए सीढ़ियाँ बनी हुई थीं। चपला थोड़ी देर तक अचंभे में भरी हुई बैठी रही, तरह-तरह के ख्याल उसके जी में पैदा होने लगे, अक्ल चकरा गई कि यह क्या मामला है। आखिर चपला ने अपने को सँभाला और सीढ़ी के रास्ते छत पर चढ़ गई, जाते ही सीढ़ी का दरवाजा बंद हो गया, नीचे उतरने की जगह न थी, इधर-उधर देखने लगी। चारों तरफ ऊँचे-ऊँचे पहाड़, सामने एक छोटा-सी खोह नजर पड़ी जो बहुत अँधेरी न थी क्योंकि आगे की तरफ से उसमें रोशनी पहुँच रही थी।
चपला लाचार हो कर उस खोह में घुसी। थोड़ी ही दूर जा कर एक छोटा-सा दालान मिला, यहाँ पहुँच कर देखा कि कुमारी चंद्रकांता बहुत से बड़े-बड़े पत्ते आगे रखे हुए बैठी है और पत्तों पर पत्थर की नोक से कुछ लिख रही है। नीचे झाँक कर देखा तो बहुत ही ढालवीं पहाड़ी, उतरने की जगह नहीं, उसके नीचे कुँवर वीरेंद्रसिंह और ज्योतिषी जी खड़े ऊपर की तरफ देख रहे हैं।
कुमारी चंद्रकांता के कान में चपला के पैर की आहट पहुँची, फिर के देखा, पहचानते ही उठ खड़ी हुई और बोली - ‘वाह सखी, खूब पहुँची। देख सब कोई नीचे खड़े हैं, कोई ऐसी तरकीब नजर नहीं आती कि मैं उन तक पहुँचूँ। उन लोगों की आवाज मेरे कान तक पहुँचती है मगर मेरी कोई नहीं सुनता। तेजसिंह ने पूछा है कि तुम किस राह से यहाँ आई हो, उसी का जवाब इस पत्तों पर लिख रही हूँ, इसे नीचे फेंकूँगी।’
चपला ने पहले खूब ध्यान करके चारों तरफ देखा, नीचे उतरने की कोई तरकीब नजर न आई, तब बोली - ‘कोई जरूरत नहीं है पत्तों पर लिखने की। मैं पुकार के कहे देती हूँ, मेरी आवाज वे लोग बखूबी सुनेंगे, पहले यह बताओ तुमको बगुला निगल गया था या किसी दूसरी राह से आई हो?’
कुमारी ने कहा - ‘हाँ मुझको वही बगुला निगल गया था जिसको तुमने उस खँडहर में देखा होगा, शायद तुमको भी वही निगल गया हो।’
चपला ने कहा - ‘नहीं मैं दूसरी राह से आई हूँ, पहले उस खँडहर का पता इन लोगों को दे लूँ तब बातें करूँ, जिससे ये लोग भी कोई बंदोबस्त हम लोगों के छुड़ाने का करें। जहाँ तक मैं सोचती हूँ मालूम होता है कि हम लोग कई दिनों तक यहाँ फँसे रहेंगे, खैर, जो होगा देखा जाएगा।’
चपला तहखाने में उतरी। नीचे एक लंबी-चौड़ी कोठरी नजर आई, जिसमें चौखट के सिवाय किवाड़ के पल्ले नहीं थे। पहले चपला ने उसे खूब गौर करके देखा, फिर अंदर गई। दरवाजे के भीतर पैर रखते ही ऊपर वाले चौखटे के बीचोंबीच से लोहे का एक तख्ता बड़े जोर के साथ गिर पड़ा। चपला ने चौंक कर पीछे देखा, दरवाजा बंद पाया। सोचने लगी - ‘यह कोठरी है कि मूसेदानी? दरवाजा इसका बिल्कुल चूहेदानी की तौर पर है। अब क्या करें? और कोई रास्ता कहीं जाने का मालूम नहीं पड़ता, बिल्कुल अँधेरा हो गया, हाथ को हाथ दिखाई नहीं पड़ता।’ चपला अधेरे में चारों तरफ घूमने और टटोलने लगी।
घूमते-घूमते चपला का पैर एक गड्ढे में जा पड़ा, साथ ही इसके कुछ आवाज हुई और दरवाजा खुल गया, कोठरी में चाँदना भी पहुँच गया। यह वह दरवाजा नहीं था जो पहले बंद हुआ था, बल्कि एक दूसरा ही दरवाजा था। चपला ने पास जा कर देखा, इसमें भी कहीं किवाड़ के पल्ले नहीं दिखाई पड़े। आखिर उस दरवाजे की राह से कोठरी के बाहर हो एक बाग में पहुँची। देखा कि छोटे-छोटे फूलों के पेड़ों में रंग-बिरंगे फूल खिले हुए हैं, एक तरफ से छोटी नहर के जरिए से पानी अंदर पहुँच कर बाग में छिड़काव का काम कर रहा है मगर क्यारियाँ इसमें की कोई भी दुरुस्त नहीं हैं। सामने एक बारहदरी नजर आई, धीरे-धीरे घूमती वहाँ पहुँची।
यह बारहदरी बिल्कुल स्याह पत्थर से बनी हुई थी। छत, जमीन, खंबे सब स्याह पत्थर के थे। बीच में संगमरमर के सिंहासन पर हाथ भर का एक सुर्ख चौखूटा पत्थर रखा हुआ था। चपला ने उसे देखा, उस पर यह खुदा हुआ था - ‘यह तिलिस्म है, इसमें फँसने वाला कभी निकल नहीं सकता, हाँ अगर कोई इसको तोड़े तो सब कैदियों को छुड़ा ले और दौलत भी उसके हाथ लगे। तिलिस्म तोड़ने वाले के बदन में खूब ताकत भी होनी चाहिए नहीं तो मेहनत बेफायदा है।’
चपला को इसे पढ़ने के साथ ही यकीन हो गया कि अब जान गई, जिस राह से मैं आई हूँ उस राह से बाहर जाना कभी नहीं हो सकता। कोठरी का दरवाजा बंद हो गया, बाहर वाले दरवाजे को कमंद से बाँधना व्यर्थ हुआ, मगर शायद वह दरवाजा खुला हो जिससे इस बाग में आई हूँ। यह सोच कर चपला फिर उसी दरवाजे की तरफ गई मगर उसका कोई निशान तक नहीं मिला, यह भी नहीं मालूम हुआ कि किस जगह दरवाजा था। फिर लौट कर उसी बारहदरी में पहुँची और सिंहासन के पास गई, जी में आया कि इस पत्थर को उठा लूँ, अगर किसी तरह बाहर निकलने का मौका मिले तो इसको भी साथ लेती जाऊँगी, लोगों को दिखाऊँगी। पत्थर उठाने के लिए झुकी मगर उस पर हाथ रखा ही था, कि बदन में सनसनाहट पैदा हुई और सिर घूमने लगा, यहाँ तक कि बेहोश हो कर जमीन पर गिर पड़ी।
जब तक दिन बाकी था चपला बेहोश पड़ी रही, शाम होते-होते होश में आई। उठ कर नहर के किनारे गई, हाथ-मुँह धोए, जी ठिकाने हुआ। उस बाग में अंगूर बहुत लगे हुए थे मगर उदासी और घबराहट के सबब चपला ने एक दाना भी न खाया, फिर उसी बारहदरी में पहुँची। रात हो गई, और धीरे-धीरे वह बारहदरी चमकने लगी। जैसे-जैसे रात बीतती जाती थी बारहदरी की चमक भी बढ़ती थी। छत, दीवार, जमीन और खंबे सब चमक रहे थे, कोई जगह उस बारहदरी में ऐसी न थी जो दिखाई न देती हो, बल्कि उसकी चमक से सामने वाला थोड़ा हिस्सा बाग का भी चमक रहा था।
यह चमक काहे की है इसको जानने के लिए चपला ने जमीन, दीवार और खंबों पर हाथ फेरा मगर कुछ समझ में न आया। ताज्जुब, डर और नाउम्मीदी ने चपला को सोने न दिया, तमाम रात जागते ही बीती। कभी दीवार टटोलती, कभी उस सिंहासन के पास जा उस पत्थर को गौर से देखती जिसके छूने से बेहोश हो गई थी।
सवेरा हुआ, चपला फिर बाग में घूमने लगी। उस दीवार के पास पहुँची जिसके नीचे से बाग में नहर आई थी। सोचने लगी - ‘दीवार बहुत चौड़ी नहीं है, नहर का मुँह भी खुला है, इस राह से बाहर हो सकती हूँ, आदमी के जाने लायक रास्ता बखूबी है।’ बहुत सोचने-विचारने के बाद चपला ने वही किया, कपड़े सहित नहर में उतर गई, दीवार से उस तरफ हो जाने के लिए गोता मारा, काम पूरा हो गया अर्थात उस दीवार के बाहर हो गई। पानी से सिर निकाल कर देखा तो नहर को बाग के भीतर की बनिस्बत चौड़ी पाया। पानी के बाहर निकली और देखा कि दूर सब तरफ ऊँचे-ऊँचे पहाड़ दिखाई देते हैं जिनके बीचोबीच से यह नहर आई है और दीवार के नीचे से होकर बाग के अंदर गई है। चपला ने अपने कपड़े धूप में सुखाए, ऐयारी का बटुआ भीगा न था क्योंकि उसका कपड़ा रोगनी था। जब सब तरह से लैस हो चुकी, वहाँ से सीधे रवाना हुई। दोनों तरफ ऊँचे-ऊँचे पहाड़, बीच में नाला, किनारे पारिजात के पेड़ लगे हुए, पहाड़ के ऊपर किसी तरफ चढ़ने की जगह नहीं, अगर चढ़े भी तो थोड़ी दूर ऊपर जाने के बाद फिर उतरना पड़े। चपला नाले के किनारे रवाना हुई। दो पहर दिन चढ़े तक लगभग तीन कोस चली गई। आगे जाने के लिए रास्ता न मिला, क्योंकि सामने से भी एक पहाड़ ने रास्ता रोक रखा था जिसके ऊपर से गिरने वाला पानी का झरना नीचे नाले में आ कर बहता था। पहाड़ी के नीचे एक दालान था जो अंदाज में दस गज लंबा और गज भर चौड़ा होगा। गौर के साथ देखने से मालूम होता था कि पहाड़ काट के बनाया गया है। इसके बीचोबीच पत्थर का एक अजदहा (अजगर) था, जिसका मुँह खुला हुआ था और आदमी उसके पेट में बखूबी जा सकता था। सामने एक लंबा-चौड़ा संगमरमर का साफ चिकना पत्थर भी जमीन पर जमाया हुआ था।
अजदहे को देखने के लिए चपला उसके पास गई। संगमरमर के पत्थर पर पैर रखा ही था कि धीरे-धीरे अजदहे ने दम खींचना शुरू किया, और कुछ ही देर बाद यहाँ तक खींचा कि चपला का पैर न जम सका, वह खिंच कर उसके पेट में चली गई साथ ही बेहोश भी हो गई। जब चपला होश में आई उसने अपने को एक कोठरी में पाया जो बहुत तंग सिर्फ दस-बारह आदमियों के बैठने लायक होगी। कोठरी के बगल में ऊपर जाने के लिए सीढ़ियाँ बनी हुई थीं। चपला थोड़ी देर तक अचंभे में भरी हुई बैठी रही, तरह-तरह के ख्याल उसके जी में पैदा होने लगे, अक्ल चकरा गई कि यह क्या मामला है। आखिर चपला ने अपने को सँभाला और सीढ़ी के रास्ते छत पर चढ़ गई, जाते ही सीढ़ी का दरवाजा बंद हो गया, नीचे उतरने की जगह न थी, इधर-उधर देखने लगी। चारों तरफ ऊँचे-ऊँचे पहाड़, सामने एक छोटा-सी खोह नजर पड़ी जो बहुत अँधेरी न थी क्योंकि आगे की तरफ से उसमें रोशनी पहुँच रही थी।
चपला लाचार हो कर उस खोह में घुसी। थोड़ी ही दूर जा कर एक छोटा-सा दालान मिला, यहाँ पहुँच कर देखा कि कुमारी चंद्रकांता बहुत से बड़े-बड़े पत्ते आगे रखे हुए बैठी है और पत्तों पर पत्थर की नोक से कुछ लिख रही है। नीचे झाँक कर देखा तो बहुत ही ढालवीं पहाड़ी, उतरने की जगह नहीं, उसके नीचे कुँवर वीरेंद्रसिंह और ज्योतिषी जी खड़े ऊपर की तरफ देख रहे हैं।
कुमारी चंद्रकांता के कान में चपला के पैर की आहट पहुँची, फिर के देखा, पहचानते ही उठ खड़ी हुई और बोली - ‘वाह सखी, खूब पहुँची। देख सब कोई नीचे खड़े हैं, कोई ऐसी तरकीब नजर नहीं आती कि मैं उन तक पहुँचूँ। उन लोगों की आवाज मेरे कान तक पहुँचती है मगर मेरी कोई नहीं सुनता। तेजसिंह ने पूछा है कि तुम किस राह से यहाँ आई हो, उसी का जवाब इस पत्तों पर लिख रही हूँ, इसे नीचे फेंकूँगी।’
चपला ने पहले खूब ध्यान करके चारों तरफ देखा, नीचे उतरने की कोई तरकीब नजर न आई, तब बोली - ‘कोई जरूरत नहीं है पत्तों पर लिखने की। मैं पुकार के कहे देती हूँ, मेरी आवाज वे लोग बखूबी सुनेंगे, पहले यह बताओ तुमको बगुला निगल गया था या किसी दूसरी राह से आई हो?’
कुमारी ने कहा - ‘हाँ मुझको वही बगुला निगल गया था जिसको तुमने उस खँडहर में देखा होगा, शायद तुमको भी वही निगल गया हो।’
चपला ने कहा - ‘नहीं मैं दूसरी राह से आई हूँ, पहले उस खँडहर का पता इन लोगों को दे लूँ तब बातें करूँ, जिससे ये लोग भी कोई बंदोबस्त हम लोगों के छुड़ाने का करें। जहाँ तक मैं सोचती हूँ मालूम होता है कि हम लोग कई दिनों तक यहाँ फँसे रहेंगे, खैर, जो होगा देखा जाएगा।’