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चन्द्रकान्ता - देवकीनन्दन खत्री रचित उपन्यास
#51
बयान - 19

जब से कुमारी चंद्रकांता विजयगढ़ से गायब हुईं और महाराज शिवदत्त से लड़ाई लगी तब से महाराज जयसिंह और महल की औरतें तो उदास थीं ही, उनके सिवाय कुल विजयगढ़ की रियाया भी उदास थी, शहर में गम छाया हुआ था।

जब तेजसिंह और ज्योतिषी जी को कुमारी की खोज में भेज, वीरेंद्रसिंह लौट कर मय देवीसिंह के विजयगढ़ आए, तब सभी को यह आशा हुई कि राजकुमारी चंद्रकांता भी आती होंगी, लेकिन जब कुमार की जुबानी महाराज जयसिंह ने पूरा-पूरा हाल सुना तो तबीयत और परेशान हुई। महाराज शिवदत्त के गिरफ्तार होने का हाल सुन कर तो खुशी हुई मगर जब नाले में से कुमारी का फिर गायब हो जाना सुना तो पूरी नाउम्मीदी हो गई। दीवान हरदयालसिंह वगैरह ने बहुत समझाया और कहा कि कुमारी अगर पाताल में भी गई होंगी तो तेजसिंह खोज निकालेंगे, इसमें कोई संदेह नहीं, फिर भी महाराज के जी को भरोसा न हुआ। महल में महारानी की हालत तो और भी बुरी थी, खाना-पीना, बोलना बिल्कुल छूट गया था, सिवाय रोने और कुमारी की याद करने के दूसरा कोई काम न था।

कई दिन तक कुमार विजयगढ़ में रहे, बीच में एक दफा नौगढ़ जा कर अपने माता-पिता से भी मिल आए मगर तबीयत उनकी बिल्कुल नहीं लगती थी, जिधर जाते थे, उदासी ही दिखाई देती थी।

एक दिन रात को कुमार अपने कमरे में सोए हुए थे, दरवाजा बंद था, रात आधी से ज्यादा जा चुकी थी। चंद्रकांता की जुदाई में पड़े-पड़े क़ुछ सोच रहे थे, नींद बिल्कुल नहीं आ रही थी, दरवाजे के बाहर किसी के बोलने की आहट मालूम पड़ी बल्कि किसी के मुँह से ‘कुमारी’ ऐसा सुनने में आया। झट पलँग पर से उठ दरवाजे के पास आए और किवाड़ के साथ कान लगा सुनने लगे, इतनी बातें सुनने में आईं -

‘मैं सच कहता हूँ, तुम मानो चाहे न मानो। हाँ पहले मुझे जरूर यकीन था कि कुमारी पर कुँवर वीरेंद्रसिंह का प्रेम सच्चा है, मगर अब मालूम हो गया कि यह सिवाय विजयगढ़ का राज्य चाहने के, कुमारी से मुहब्बत नहीं रखते, अगर सच्ची मुहब्बत होती तो जरूर खोज...।’

इतनी बात सुनी थी कि दरबानों को कुछ चोर की आहट मालूम पड़ी, बातें करना छोड़ पुकार उठे - ‘कौन है।’ मगर कुछ मालूम न हुआ। बड़ी देर तक कुमार दरवाजे के पास बैठे रहे, परंतु फिर कुछ सुनने में न आया, हाँ इतना मालूम हुआ कि दरबानों में बातचीत हो रही थी।

कुमार और भी घबरा उठे, सोचने लगे कि जब दरबानों और सिपाहियों को यह विश्वास है कि कुमार चंद्रकांता के प्रेमी नहीं हैं तो जरूर महाराज का भी यही ख्याल होगा, बल्कि महल में महारानी भी यही सोचती होगी। अब विजयगढ़ में मेरा रहना ठीक नहीं, नौगढ़ जाने को भी जी नहीं चाहता क्योंकि वहाँ जाने से और भी लोगों के जी में बैठ जाएगा कि कुमार की मुहब्बत नकली और झूठी थी। तब कहाँ जाएँ, क्या करें? इन्हीं सब बातों को सोचते, सवेरा हो गया।

आज कुमार ने स्नान-पूजा और भोजन से जल्दी ही छुट्टी कर ली। पहर दिन चढ़ा होगा, अपनी सवारी का घोड़ा मँगवाया और सवार हो किले के बाहर निकले। कई आदमी साथ हुए मगर कुमार के मना करने से रुक गए, लेकिन देवीसिंह ने साथ न छोड़ा। इन्होंने हजार मना किया पर एक न माना, साथ चले ही गए। कुमार ने इस नीयत से घोड़ा तेज किया, जिससे देवीसिंह पीछे छूट जाए और इनका भी साथ न रहे, मगर देवीसिंह ऐयारी में कुछ कम न थे, दौड़ने की आदत भी ज्यादा थी, अस्तु घोड़े का संग न छोड़ा। इसके सिवाय पहाड़ी जंगल की ऊबड़-खाबड़ जमीन होने के सबब कुमार का घोड़ा भी उतना तेज नहीं जा सकता था, जितना कि वे चाहते थे।

देवीसिंह बहुत थक गए, कुमार को भी उन पर दया आ गई। जी में सोचने लगे कि यह मुझसे बड़ी मुहब्बत रखता है। जब तक इसमें जान है मेरा संग न छोड़ेगा, ऐसे आदमी को जान-बूझ कर दुख देना मुनासिब नहीं। कोई गैर तो नहीं कि साथ रखने में किसी तरह की कबाहट हो, आखिर कुमार ने घोड़ा रोका और देवीसिंह की तरफ देख कर हँसे।

हाँफते-हाँफते देवीसिंह ने कहा - ‘भला कुछ यह भी तो मालूम हो कि आप का इरादा क्या है, कहीं सनक तो नहीं गए?’ कुमार घोड़े पर से उतर पड़े और बोले - ‘अच्छा इस घोड़े को चरने के लिए छोड़ो फिर हमसे सुनो कि हमारा क्या इरादा है।’ देवीसिंह ने जीनपोश कुमार के लिए बिछा कर घोड़े को चरने के वास्ते छोड़ दिया और उनके पास बैठ कर पूछा - ‘अब बताइए, आप क्या सोच कर विजयगढ़ से बाहर निकले।’ इसके जवाब में कुमार ने रात का बिल्कुल किस्सा कह सुनाया और कहा कि कुमारी का पता न लगेगा तो मैं विजयगढ़ या नौगढ़ न जाऊँगा।’

देवीसिंह ने कहा - ‘यह सोचना बिल्कुल भूल है। हम लोगों से ज्यादा आप क्या पता लगाएँगे? तेजसिंह और ज्योतिषी जी खोजने गए ही हैं, मुझे भी हुक्म हो तो जाऊँ। आपके किए कुछ न होगा। अगर आपको बिना कुमारी का पता लगाए विजयगढ़ जाना पसंद नहीं तो नौगढ़ चलिए, वहाँ रहिए, जब पता लग जाएगा विजयगढ़ चले जाइएगा। अब आप अपने घर के पास भी आ पहुँचे हैं।’

कुमार ने सोच कर कहा - ‘यहाँ से मेरा घर बनिस्बत विजयगढ़ के दूर होगा कि नजदीक? मैं तो बहुत आगे बढ़ आया हूँ।’

देवीसिंह ने कहा - ‘नहीं, आप भूलते हैं, न मालूम किस धुन में आप घोड़ा फेंके चले आए, पूरब-पश्चिम का ध्यान तो रहा ही नहीं, मगर मैं खूब जानता हूँ कि यहाँ से नौगढ़ केवल दो कोस है और वह देखिए वह बड़ा-सा पीपल का पेड़ जो दिखाई देता है, वह उस खोह के पास ही है, जहाँ महाराज शिवदत्त कैद हैं। (तेजसिंह को आते देख कर) हैं, यह तेजसिंह कहाँ से चले आ रहे हैं? देखिए कुछ न कुछ पता जरूर लगा होगा।’

तेजसिंह दूर से दिखाई पड़े मगर कुमार से न रहा गया, खुद उनकी तरफ चले।

तेजसिंह ने भी इन दोनों को देखा और कुमार को अपनी तरफ आते देख दौड़ कर उनके पास पहुँचे। बेसब्री के साथ पहले कुमार ने यही पूछा - ‘क्यों, कुछ पता चला?’

तेजसिंह – ‘हाँ।’

कुमार – ‘कहाँ?’

तेजसिंह – ‘चलिए दिखाए देता हूँ।’

इतना सुनते ही कुमार तेजसिंह से लिपट गए और बड़ी खुशी के साथ बोले - ‘चलो देखें।’

तेजसिंह – ‘घोड़े पर सवार हो लीजिए, आप घबराते क्यों हैं, मैं तो आप ही को बुलाने जा रहा था, मगर आप यहाँ आ कर क्यों बैठे हैं।’

कुमार – ‘इसका हाल देवीसिंह से पूछ लेना, पहले वहाँ तो चलो।’

देवीसिंह ने घोड़ा तैयार किया, कुमार सवार हो गए। आगे-आगे तेजसिंह और देवीसिंह, पीछे-पीछे कुमार रवाना हुए और थोड़ी ही देर में खोह के पास जा पहुँचे। तेजसिंह ने कहा - ‘लीजिए अब आपके सामने ही ताला खोलता हूँ क्या करूँ, मगर होशियार रहिएगा, कहीं ऐयार लोग आपको धोखा दे कर इसका भी पता न लगा लें।’ ताला खोला गया और तीनों आदमी अंदर गए। जल्दी-जल्दी चल कर उस चश्मे के पास पहुँचे जहाँ ज्योतिषी जी बैठे हुए थे, उँगली के इशारे से बता कर तेजसिंह ने कहा - ‘देखिए वह ऊपर चंद्रकांता खड़ी हैं।’

कुमारी चंद्रकांता ऊँची पहाड़ी पर थीं, दूर से कुमार को आते देख मिलने के लिए बहुत घबरा गई। यही कैफियत कुमार की भी थी, रास्ते का ख्याल तो किया नहीं, ऊपर चढ़ने को तैयार हो गए, मगर क्या हो सकता था।

तेजसिंह ने कहा - ‘आप घबराते क्यों हैं, ऊपर जाने के लिए रास्ता होता तो आपको यहाँ लाने की जरूरत ही क्या थी, कुमारी ही को न ले जाते?’

दोनों की टकटकी बँध गई, कुमार वीरेंद्रसिंह कुमारी को देखने लगे और वह इनको। दोनों ही की आँखों से आँसू की नदी बह चली। कुछ करते नहीं बनता, हाय क्या टेढ़ा मामला है? जिसके वास्ते घर-बार छोड़ा, जिसके मिलने की उम्मीद में पहले ही जान से हाथ धो बैठे, जिसके लिए हजारों सिर कटे, जो महीनों से गायब रह कर आज दिखाई पड़ी, उससे मिलना तो दूर रहा अच्छी तरह बातचीत भी नहीं कर सकते। ऐसे समय में उन दोनों की क्या दशा थी वे ही जानते होंगे।

तेजसिंह ने ज्योतिषी जी की तरफ देख कर पूछा - ‘क्यों आपने कोई तरकीब सोची?’

ज्योतिषी जी ने जवाब दिया - ‘अभी तक कोई तरकीब नहीं सूझी, मगर मैं इतना जरूर कहूँगा कि बिना कोई भारी कारवाई किए कुमारी का ऊपर से उतरना मुश्किल है। जिस तरह से वे आई हैं, उसी तरह से बाहर होंगी, दूसरी तरकीब कभी पूरी नहीं हो सकती। मैंने रमल से भी राय ली थी, वह भी यही कहता है, सो अब जिस तरह हो सके कुमारी से यह पूछें और मालूम करें कि वह किस राह से यहाँ तक आईं, तब हम लोग ऊपर चल कर कोई काम करें, यह मामला तिलिस्म का है खेल नहीं है।’

तेजसिंह ने इस बात को पसंद किया, कुमारी से पुकार कर कहा - ‘आप घबराएँ नहीं, जिस तरह से पहले आपने पत्तों पर लिख कर फेंका था, उसी तरह अब फिर मुख्तसर में यह लिख कर फेंकिए कि आप किस राह से वहाँ पहुँची हैं।’
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RE: चन्द्रकान्ता - देवकीनन्दन खत्री रचित उपन्यास - by usaiha2 - 25-07-2021, 09:08 PM



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