25-07-2021, 09:07 PM
बयान - 18
तेजसिंह के जाने के बाद ज्योतिषी जी अकेले पड़ गए, सोचने लगे कि रमल के जरिए पता लगाना चाहिए कि चंद्रकांता और चपला कहाँ हैं। बस्ता खोल पटिया निकाल रमल फेंक गिनने लगे। घड़ी भर तक खूब गौर किया। यकायक ज्योतिषी जी के चेहरे पर खुशी झलकने लगी और होंठों पर हँसी आ गई, झटपट रमल और पटिया बाँध उसी तहखाने की तरफ दौड़े जहाँ तेजसिंह, महारानी को लिए जा रहे थे। ऐयार तो थे ही, दौड़ने में कसर न की, जहाँ तक बन पड़ा तेजी से दौड़े।
तेजसिंह कदम-कदम झपटे हुए चले जा रहे थे। लगभग पाँच कोस गए होंगे कि पीछे से आवाज आई - ‘ठहरो-ठहरो।’ फिर के देखा तो ज्योतिषी जगन्नाथ जी बड़ी तेजी से चले आ रहे हैं, ठहर गए, जी में खुटका हुआ कि यह क्यों दौड़े आ रहे हैं।
जब पास पहुँचे इनके चेहरे पर कुछ हँसी देख तेजसिंह का जी ठिकाने हुआ। पूछा - ‘क्यों क्या है जो आप दौड़े आए हैं?’
ज्योतिषी जी – ‘है क्या, बस हम भी आपके साथ उसी तहखाने में चलेंगे।’
तेजसिंह – ‘सो क्यों?’
ज्योतिषी जी – ‘इसका हाल भी वहीं मालूम होगा, यहाँ न कहेंगे।’
तेजसिंह – ‘तो वहाँ दरवाजे पर पट्टी भी बाँधनी पड़ेगी, क्योंकि पहले वाले ताले का हाल जब से कुमार को धोखा दे कर बद्रीनाथ ने मालूम कर लिया तब से एक और ताला हमने उसमें लगाया है जो पहले ही से बना हुआ था मगर आलकस से उसको काम में नहीं लाते थे क्योंकि खोलने और बंद करने में जरा देर लगती है। हम यह निश्चय कर चुके हैं कि इस ताले का भेद किसी को न बताएँगे।’
ज्योतिषी जी – ‘मैं तो अपनी आँखों पर पट्टी न बँधाऊँगा और उस तहखाने में भी जरूर जाऊँगा। तुम झख मारोगे और ले चलोगे।’
तेजसिंह – ‘वाह क्या खूब। भला कुछ हाल तो मालूम हो।’
ज्योतिषी जी – ‘हाल क्या, बस पौ बारह है। कुमारी चंद्रकांता को वहीं दिखा दूँगा।’
तेजसिंह – ‘हाँ? सच कहो।।’
ज्योतिषी जी – ‘अगर झूठ निकले तो उसी तहखाने में मुझको हलाल करके मार डालना।’
तेजसिंह – ‘खूब कही, तुम्हें मार डालूँगा तो तुम्हारा क्या बिगड़ेगा, बह्महत्या तो मेरे सिर चढ़ेगी।’
ज्योतिषी जी – ‘इसका भी ढंग मैं बता देता हूँ जिसमें तुम्हारे ऊपर ब्रह्महत्या न चढ़े।’
तेजसिंह – ‘वह क्या?’
ज्योतिषी जी – ‘कुछ मुश्किल नहीं है, पहले * कर डालना तब हलाल करना।’
ज्योतिषी जी की बात पर तेजसिंह हँस पड़े और बोले - ‘अच्छा भाई चलो, क्या करें, आपका हुक्म मानना भी जरूरी है।’
दूसरे दिन शाम को ये लोग उस तहखाने के पास पहुँचे। ज्योतिषी जी के सामने ही तेजसिंह ताला खोलने लगे। पहले उस शेर के मुँह में हाथ डाल के उसकी जुबान बाहर निकाली, इसके बाद दूसरा ताला खोलने लगे।
दरवाजे के दोनों तरफ दो पत्थर संगमरमर के दीवार के साथ जड़े थे। दाहिनी तरफ के संगमरमर वाले पत्थर पर तेजसिंह ने जोर से लात मारी, साथ ही एक आवाज हुई और वह पत्थर दीवार के अंदर घुस कर जमीन के साथ सट गया। छोटे से हाथ भर के चबूतरे पर एक साँप चक्कर मारे बैठा देखा जिसकी गरदन पकड़ कर कई दफा पेच की तरह घुमाया, दरवाजा खुल गया। महारानी की गठरी लिए तेजसिंह और ज्योतिषी जी अंदर गए, भीतर से दरवाजा बंद कर लिया। भीतर दरवाजे के बाएँ तरफ की दीवार में एक सूराख हाथ जाने लायक था, उसमें हाथ डाल के तेजसिंह ने कुछ किया, जिसका हाल ज्योतिषी जी को मालूम न हो सका।
ज्योतिषी जी ने पूछा - ‘इसमें क्या है?’
तेजसिंह ने जवाब दिया - ‘इसके भीतर एक किल्ली है जिसके घुमाने से वह पत्थर बंद हो जाता है जिस पर बाहर मैंने लात मारी और जिसके अंदर साँप दिखाई पड़ा था। इस सूराख से सिर्फ उस पत्थर के बंद करने का काम चलता है खुल नहीं सकता, खोलते समय इधर भी वही तरकीब करनी पड़ेगी जो दरवाजे के बाहर की गई थी।’
दरवाजा बंद कर ये लोग आगे बढ़े। मैदान में जा कर महारानी की गठरी खोल उन्हें होश में लाए और कहा - ‘हमारे साथ-साथ चली आइए, आपको महाराज के पास पहुँचा दें।’ महरानी इन लोगों के साथ-साथ आगे बढ़ीं।
तेजसिंह ने ज्योतिषी जी से पूछा - ‘बताइए चंद्रकांता कहाँ हैं?’
ज्योतिषी जी ने कहा - ‘मैं पहले कभी इसके अंदर आया नहीं जो सब जगहें मेरी देखी हों, आप आगे चलिए, महाराज शिवदत्त को ढूँढ़िए, चंद्रकांता भी दिखाई दे जाएगी।’
घूमते-फिरते महाराज शिवदत्त को ढूँढ़ते ये लोग उस नाले के पास पहुँचे जिसका हाल पहले भाग में लिख चुके हैं। यकायक सभी की निगाह महाराज शिवदत्त पर पड़ी जो नाले के उस पार एक पत्थर के ढोंके पर खड़े ऊपर की तरफ मुँह किए कुछ देख रहे थे।
महारानी तो महाराज को देख दीवानी-सी हो गईं, किसी से कुछ न पूछा कि इस नाले में कितना पानी है या उस पार कैसे जाना होगा, झट कूद पड़ीं। पानी थोड़ा ही था, पार हो गईं और दौड़ कर रोती महाराज शिवदत्त के पैरों पर गिर पड़ीं। महाराज ने उठा कर गले से लगा लिया, तब तक तेजसिंह और ज्योतिषी जी भी नाले के पार हो महाराज शिवदत्त के पास पहुँचे।
ज्योतिषी जी को देखते ही महाराज ने पूछा - ‘क्योंजी, तुम यहाँ कैसे आए? क्या तुम भी तेजसिंह के हाथ फँस गए।’
ज्योतिषी जी ने कहा - ‘नहीं तेजसिंह के हाथ क्यों, हाँ उन्होंने कृपा करके मुझे अपनी मंडली में मिला लिया है, अब हम वीरेंद्रसिंह की तरफ हैं आपसे कुछ वास्ता नहीं।’
ज्योतिषी जी की बात सुन कर महाराज को बड़ा गुस्सा आया, लाल-लाल आँखें कर उनकी तरफ देखने लगे।
ज्योतिषी जी ने कहा - ‘अब आप बेफायदा गुस्सा करते हैं, इससे क्या होगा? जहाँ जी में आया तहाँ रहे। जो अपनी इज्जत करे उसी के साथ रहना ठीक है। आप खुद सोच लीजिए और याद कीजिए कि मुझको आपने कैसी-कैसी कड़ी बातें कही थीं। उस वक्त यह भी न सोचा कि ब्राह्मण है। अब क्यों मेरी तरफ लाल-लाल आँखें करके देखते हैं।’
ज्योतिषी जी की बातें सुन कर शिवदत्त ने सिर नीचा कर लिया और कुछ जवाब न दिया। इतने में एक बारीक आवाज आई - ‘तेजसिंह।’
तेजसिंह ने सिर उठा कर उधर देखा जिधर से आवाज आई थी, चंद्रकांता पर नजर पड़ी जिसे देखते ही इनकी आँखों से आँसू निकल पड़े। हाय, क्या सूरत हो रही है, सिर के बाल खुले हैं, गुलाब-सा मुँह कुम्हला गया, बदन पर मैल चढ़ा हुआ है, कपड़े फटे हुए हैं, पहाड़ के ऊपर एक छोटी-सी गुफा के बाहर खड़ी ‘तेजसिंह-तेजसिंह’, पुकार रही है।
तेजसिंह उस तरफ दौड़े और चाहा कि पहाड़ पर चढ़ कर कुमारी के पास पहुँच जाएँ मगर न हो सका, कहीं रास्ता न मिला। बहुत परेशान हुए लेकिन कोई काम न चला, लाचार हो कर ऊपर चढ़ने के लिए कमंद फेंकी मगर वह चौथाई दूर भी न गई, ज्योतिषी जी से कमंद ले कर अपने कमंद में जोड़ कर फिर फेंकी, आधी दूर भी न पहुँची। हर तरह की तरकीबें की मगर कोई मतलब न निकला, लाचार हो कर आवाज दी और पूछा - ‘कुमारी, आप यहाँ कैसे आईं?’
तेजसिंह की आवाज कुमारी के कान तक बखूबी पहुँची मगर कुमारी की आवाज जो बहुत ही बारीक थी तेजसिंह के कानों तक पूरी-पूरी न आई। कुमारी ने कुछ जवाब दिया, साफ-साफ तो समझ में न आया, हाँ इतना समझ पड़ा - ‘किस्मत...आई...तरह...निकालो...।’
हाय-हाय कुमारी से अच्छी तरह बात भी नहीं कर सकते। यह सोच तेजसिंह बहुत घबराए, मगर इससे क्या हो सकता था, कुमारी ने कुछ और कहा जो बिल्कुल समझ में न आया, हाँ यह मालूम हो रहा था कि कोई बोल रहा है। तेजसिंह ने फिर आवाज दी और कहा - ‘आप घबराइए नहीं, कोई तरकीब निकालता हूँ जिससे आप नीचे उतर आएँ।’ इसके जवाब में कुमारी मुँह से कुछ न बोली, उसी जगह एक जंगली पेड़ था जिसके पत्ते जरा बड़े और मोटे थे, एक पत्ता तोड़ लिया और एक छोटे नुकीले पत्थर की नोक से उस पत्ते पर कुछ लिखा, अपनी धोती में से थोड़ा-सा कपड़ा फाड़ उसमें वह पत्ता और एक छोटा-सा पत्थर बाँधा इस अंदाज से फेंका कि नाले के किनारे कुछ जल में गिरा। तेजसिंह ने उसे ढूँढ़ कर निकाला, गिरह खोली, पत्तो पर गोर से निगाह डाली, लिखा था - ‘तुम जा कर पहले कुमार को यहाँ ले आओ।’
तेजसिंह ने ज्योतिषी जी को वह पत्ता दिखलाया और कहा - ‘आप यहाँ ठहरिए मैं जा कर कुमार को बुला लाता हूँ। तब तक आप भी कोई तरकीब सोचिए जिससे कुमारी नीचे उतर सकें।’
ज्योतिषी जी ने कहा - ‘अच्छी बात है, तुम जाओ, मैं कोई तरकीब सोचता हूँ।’
इस कैफियत को महारानी ने भी बखूबी देखा मगर यह जान न सकी कि कुमारी ने पत्तों पर क्या लिख कर फेंका और तेजसिंह कहाँ चले गए तो भी महारानी को चंद्रकांता की बेबसी पर रुलाई आ गई और उसी तरफ टकटकी लगा कर देखती रहीं। तेजसिंह वहाँ से चल कर फाटक खोल खोह के बाहर हुए और फिर दोहरा ताला लगा विजयगढ़ की तरफ रवाना हुए।
तेजसिंह के जाने के बाद ज्योतिषी जी अकेले पड़ गए, सोचने लगे कि रमल के जरिए पता लगाना चाहिए कि चंद्रकांता और चपला कहाँ हैं। बस्ता खोल पटिया निकाल रमल फेंक गिनने लगे। घड़ी भर तक खूब गौर किया। यकायक ज्योतिषी जी के चेहरे पर खुशी झलकने लगी और होंठों पर हँसी आ गई, झटपट रमल और पटिया बाँध उसी तहखाने की तरफ दौड़े जहाँ तेजसिंह, महारानी को लिए जा रहे थे। ऐयार तो थे ही, दौड़ने में कसर न की, जहाँ तक बन पड़ा तेजी से दौड़े।
तेजसिंह कदम-कदम झपटे हुए चले जा रहे थे। लगभग पाँच कोस गए होंगे कि पीछे से आवाज आई - ‘ठहरो-ठहरो।’ फिर के देखा तो ज्योतिषी जगन्नाथ जी बड़ी तेजी से चले आ रहे हैं, ठहर गए, जी में खुटका हुआ कि यह क्यों दौड़े आ रहे हैं।
जब पास पहुँचे इनके चेहरे पर कुछ हँसी देख तेजसिंह का जी ठिकाने हुआ। पूछा - ‘क्यों क्या है जो आप दौड़े आए हैं?’
ज्योतिषी जी – ‘है क्या, बस हम भी आपके साथ उसी तहखाने में चलेंगे।’
तेजसिंह – ‘सो क्यों?’
ज्योतिषी जी – ‘इसका हाल भी वहीं मालूम होगा, यहाँ न कहेंगे।’
तेजसिंह – ‘तो वहाँ दरवाजे पर पट्टी भी बाँधनी पड़ेगी, क्योंकि पहले वाले ताले का हाल जब से कुमार को धोखा दे कर बद्रीनाथ ने मालूम कर लिया तब से एक और ताला हमने उसमें लगाया है जो पहले ही से बना हुआ था मगर आलकस से उसको काम में नहीं लाते थे क्योंकि खोलने और बंद करने में जरा देर लगती है। हम यह निश्चय कर चुके हैं कि इस ताले का भेद किसी को न बताएँगे।’
ज्योतिषी जी – ‘मैं तो अपनी आँखों पर पट्टी न बँधाऊँगा और उस तहखाने में भी जरूर जाऊँगा। तुम झख मारोगे और ले चलोगे।’
तेजसिंह – ‘वाह क्या खूब। भला कुछ हाल तो मालूम हो।’
ज्योतिषी जी – ‘हाल क्या, बस पौ बारह है। कुमारी चंद्रकांता को वहीं दिखा दूँगा।’
तेजसिंह – ‘हाँ? सच कहो।।’
ज्योतिषी जी – ‘अगर झूठ निकले तो उसी तहखाने में मुझको हलाल करके मार डालना।’
तेजसिंह – ‘खूब कही, तुम्हें मार डालूँगा तो तुम्हारा क्या बिगड़ेगा, बह्महत्या तो मेरे सिर चढ़ेगी।’
ज्योतिषी जी – ‘इसका भी ढंग मैं बता देता हूँ जिसमें तुम्हारे ऊपर ब्रह्महत्या न चढ़े।’
तेजसिंह – ‘वह क्या?’
ज्योतिषी जी – ‘कुछ मुश्किल नहीं है, पहले * कर डालना तब हलाल करना।’
ज्योतिषी जी की बात पर तेजसिंह हँस पड़े और बोले - ‘अच्छा भाई चलो, क्या करें, आपका हुक्म मानना भी जरूरी है।’
दूसरे दिन शाम को ये लोग उस तहखाने के पास पहुँचे। ज्योतिषी जी के सामने ही तेजसिंह ताला खोलने लगे। पहले उस शेर के मुँह में हाथ डाल के उसकी जुबान बाहर निकाली, इसके बाद दूसरा ताला खोलने लगे।
दरवाजे के दोनों तरफ दो पत्थर संगमरमर के दीवार के साथ जड़े थे। दाहिनी तरफ के संगमरमर वाले पत्थर पर तेजसिंह ने जोर से लात मारी, साथ ही एक आवाज हुई और वह पत्थर दीवार के अंदर घुस कर जमीन के साथ सट गया। छोटे से हाथ भर के चबूतरे पर एक साँप चक्कर मारे बैठा देखा जिसकी गरदन पकड़ कर कई दफा पेच की तरह घुमाया, दरवाजा खुल गया। महारानी की गठरी लिए तेजसिंह और ज्योतिषी जी अंदर गए, भीतर से दरवाजा बंद कर लिया। भीतर दरवाजे के बाएँ तरफ की दीवार में एक सूराख हाथ जाने लायक था, उसमें हाथ डाल के तेजसिंह ने कुछ किया, जिसका हाल ज्योतिषी जी को मालूम न हो सका।
ज्योतिषी जी ने पूछा - ‘इसमें क्या है?’
तेजसिंह ने जवाब दिया - ‘इसके भीतर एक किल्ली है जिसके घुमाने से वह पत्थर बंद हो जाता है जिस पर बाहर मैंने लात मारी और जिसके अंदर साँप दिखाई पड़ा था। इस सूराख से सिर्फ उस पत्थर के बंद करने का काम चलता है खुल नहीं सकता, खोलते समय इधर भी वही तरकीब करनी पड़ेगी जो दरवाजे के बाहर की गई थी।’
दरवाजा बंद कर ये लोग आगे बढ़े। मैदान में जा कर महारानी की गठरी खोल उन्हें होश में लाए और कहा - ‘हमारे साथ-साथ चली आइए, आपको महाराज के पास पहुँचा दें।’ महरानी इन लोगों के साथ-साथ आगे बढ़ीं।
तेजसिंह ने ज्योतिषी जी से पूछा - ‘बताइए चंद्रकांता कहाँ हैं?’
ज्योतिषी जी ने कहा - ‘मैं पहले कभी इसके अंदर आया नहीं जो सब जगहें मेरी देखी हों, आप आगे चलिए, महाराज शिवदत्त को ढूँढ़िए, चंद्रकांता भी दिखाई दे जाएगी।’
घूमते-फिरते महाराज शिवदत्त को ढूँढ़ते ये लोग उस नाले के पास पहुँचे जिसका हाल पहले भाग में लिख चुके हैं। यकायक सभी की निगाह महाराज शिवदत्त पर पड़ी जो नाले के उस पार एक पत्थर के ढोंके पर खड़े ऊपर की तरफ मुँह किए कुछ देख रहे थे।
महारानी तो महाराज को देख दीवानी-सी हो गईं, किसी से कुछ न पूछा कि इस नाले में कितना पानी है या उस पार कैसे जाना होगा, झट कूद पड़ीं। पानी थोड़ा ही था, पार हो गईं और दौड़ कर रोती महाराज शिवदत्त के पैरों पर गिर पड़ीं। महाराज ने उठा कर गले से लगा लिया, तब तक तेजसिंह और ज्योतिषी जी भी नाले के पार हो महाराज शिवदत्त के पास पहुँचे।
ज्योतिषी जी को देखते ही महाराज ने पूछा - ‘क्योंजी, तुम यहाँ कैसे आए? क्या तुम भी तेजसिंह के हाथ फँस गए।’
ज्योतिषी जी ने कहा - ‘नहीं तेजसिंह के हाथ क्यों, हाँ उन्होंने कृपा करके मुझे अपनी मंडली में मिला लिया है, अब हम वीरेंद्रसिंह की तरफ हैं आपसे कुछ वास्ता नहीं।’
ज्योतिषी जी की बात सुन कर महाराज को बड़ा गुस्सा आया, लाल-लाल आँखें कर उनकी तरफ देखने लगे।
ज्योतिषी जी ने कहा - ‘अब आप बेफायदा गुस्सा करते हैं, इससे क्या होगा? जहाँ जी में आया तहाँ रहे। जो अपनी इज्जत करे उसी के साथ रहना ठीक है। आप खुद सोच लीजिए और याद कीजिए कि मुझको आपने कैसी-कैसी कड़ी बातें कही थीं। उस वक्त यह भी न सोचा कि ब्राह्मण है। अब क्यों मेरी तरफ लाल-लाल आँखें करके देखते हैं।’
ज्योतिषी जी की बातें सुन कर शिवदत्त ने सिर नीचा कर लिया और कुछ जवाब न दिया। इतने में एक बारीक आवाज आई - ‘तेजसिंह।’
तेजसिंह ने सिर उठा कर उधर देखा जिधर से आवाज आई थी, चंद्रकांता पर नजर पड़ी जिसे देखते ही इनकी आँखों से आँसू निकल पड़े। हाय, क्या सूरत हो रही है, सिर के बाल खुले हैं, गुलाब-सा मुँह कुम्हला गया, बदन पर मैल चढ़ा हुआ है, कपड़े फटे हुए हैं, पहाड़ के ऊपर एक छोटी-सी गुफा के बाहर खड़ी ‘तेजसिंह-तेजसिंह’, पुकार रही है।
तेजसिंह उस तरफ दौड़े और चाहा कि पहाड़ पर चढ़ कर कुमारी के पास पहुँच जाएँ मगर न हो सका, कहीं रास्ता न मिला। बहुत परेशान हुए लेकिन कोई काम न चला, लाचार हो कर ऊपर चढ़ने के लिए कमंद फेंकी मगर वह चौथाई दूर भी न गई, ज्योतिषी जी से कमंद ले कर अपने कमंद में जोड़ कर फिर फेंकी, आधी दूर भी न पहुँची। हर तरह की तरकीबें की मगर कोई मतलब न निकला, लाचार हो कर आवाज दी और पूछा - ‘कुमारी, आप यहाँ कैसे आईं?’
तेजसिंह की आवाज कुमारी के कान तक बखूबी पहुँची मगर कुमारी की आवाज जो बहुत ही बारीक थी तेजसिंह के कानों तक पूरी-पूरी न आई। कुमारी ने कुछ जवाब दिया, साफ-साफ तो समझ में न आया, हाँ इतना समझ पड़ा - ‘किस्मत...आई...तरह...निकालो...।’
हाय-हाय कुमारी से अच्छी तरह बात भी नहीं कर सकते। यह सोच तेजसिंह बहुत घबराए, मगर इससे क्या हो सकता था, कुमारी ने कुछ और कहा जो बिल्कुल समझ में न आया, हाँ यह मालूम हो रहा था कि कोई बोल रहा है। तेजसिंह ने फिर आवाज दी और कहा - ‘आप घबराइए नहीं, कोई तरकीब निकालता हूँ जिससे आप नीचे उतर आएँ।’ इसके जवाब में कुमारी मुँह से कुछ न बोली, उसी जगह एक जंगली पेड़ था जिसके पत्ते जरा बड़े और मोटे थे, एक पत्ता तोड़ लिया और एक छोटे नुकीले पत्थर की नोक से उस पत्ते पर कुछ लिखा, अपनी धोती में से थोड़ा-सा कपड़ा फाड़ उसमें वह पत्ता और एक छोटा-सा पत्थर बाँधा इस अंदाज से फेंका कि नाले के किनारे कुछ जल में गिरा। तेजसिंह ने उसे ढूँढ़ कर निकाला, गिरह खोली, पत्तो पर गोर से निगाह डाली, लिखा था - ‘तुम जा कर पहले कुमार को यहाँ ले आओ।’
तेजसिंह ने ज्योतिषी जी को वह पत्ता दिखलाया और कहा - ‘आप यहाँ ठहरिए मैं जा कर कुमार को बुला लाता हूँ। तब तक आप भी कोई तरकीब सोचिए जिससे कुमारी नीचे उतर सकें।’
ज्योतिषी जी ने कहा - ‘अच्छी बात है, तुम जाओ, मैं कोई तरकीब सोचता हूँ।’
इस कैफियत को महारानी ने भी बखूबी देखा मगर यह जान न सकी कि कुमारी ने पत्तों पर क्या लिख कर फेंका और तेजसिंह कहाँ चले गए तो भी महारानी को चंद्रकांता की बेबसी पर रुलाई आ गई और उसी तरफ टकटकी लगा कर देखती रहीं। तेजसिंह वहाँ से चल कर फाटक खोल खोह के बाहर हुए और फिर दोहरा ताला लगा विजयगढ़ की तरफ रवाना हुए।