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चन्द्रकान्ता - देवकीनन्दन खत्री रचित उपन्यास
#49
बयान - 17

एक बहुत बड़े नाले में जिसके चारों तरफ बहुत ही घना जंगल था, पंडित जगन्नाथ ज्योतिषी के साथ तेजसिंह बैठे हैं। बगल में साधारण-सी डोली रखी हुई है, पर्दा उठा हुआ है, एक औरत उसमें बैठी तेजसिंह से बातें कर रही है। यह औरत चुनारगढ़ के महाराज शिवदत्त की रानी कलावती कुँवर है। पीछे की तरफ एक हाथ डोली पर रखे चंपा भी खड़ी है।

महारानी – ‘मैं चुनारगढ़ जाने में राजी नहीं हूँ, मुझको राज्य नहीं चाहिए, महाराज के पास रहना मेरे लिए स्वर्ग है। अगर वे कैद हैं तो मेरे पैर में भी बेड़ी डाल दो मगर उन्हीं के चरणों में रखो।’

तेजसिंह – ‘नहीं, मैं यह नहीं कहता कि जरूर आप भी उसी कैदखाने में जाइए, जिसमें महाराज हैं। आपकी खुशी हो तो चुनारगढ़ जाइए, हम लोग बड़ी हिफाजत से पहुँचा देंगे। कोई जरूरत आपको यहाँ लाने की नहीं थी, ज्योतिषी जी ने कई दफा आपके पतिव्रत धर्म की तारीफ की थी और कहा था कि महाराज की जुदाई में महारानी को बड़ा ही दुख होता होगा, यह जान हम लोग आपको ले आए थे नहीं तो खाली चंपा को ही छुड़ाने गए थे। अब आप कहिए तो चुनारगढ़ पहुँचा दें नहीं तो महाराज के पास ले जाएँ, क्योंकि सिवाय मेरे और किसी के जरिए आप महाराज के पास नहीं पहुँच सकतीं, और फिर महाराज क्या जाने कब तक कैद रहें।

महारानी – ‘तुम लोगों ने मेरे ऊपर बड़ी कृपा की, सचमुच मुझे महाराज से इतनी जल्दी मिलाने वाला और कोई नहीं जितनी जल्दी तुम मिला सकते हो। अभी मुझको उनके पास पहुँचाओ, देर मत करो, मैं तुम लोगों का बड़ा जस मानूँगी।’

तेजसिंह – ‘तो इस तरह डोली में आप नहीं जा सकतीं, मैं बेहोश करके आपको ले जा सकता हूँ।’

महारानी – ‘मुझको यह भी मंजूर है, किसी तरह वहाँ पहुँचाओ।’

तेजसिंह – ‘अच्छा तब लीजिए इस शीशी को सूँघिए।’

महारानी को अपने पति के साथ बड़ी ही मुहब्बत थी, अगर तेजसिंह उनको कहते कि तुम अपना सिर दे दो तब महाराज से मुलाकात होगी तो वह उसको भी कबूल कर लेतीं।

महारानी बेखटके शीशी सूँघ कर बेहोश हो गईं।

ज्योतिषी जी ने कहा - ‘अब इनको ले जाइए उसी तहखाने में छोड़ आइए। जब तक आप न आएँगे मैं इसी जगह में रहूँगा। चंपा को भी चाहिए कि विजयगढ़ जाए, हम लोग तो कुमारी चंद्रकांता की खोज में घूम ही रहे हैं, ये क्यों दुख उठाती है।’

तेजसिंह ने कहा - ‘चंपा, ज्योतिषी जी ठीक कहते हैं, तुम जाओ, कहीं ऐसा न हो कि फिर किसी आफत में फँस जाओ।’

चंपा ने कहा - ‘जब तक कुमारी का पता न लगेगा मैं विजयगढ़ कभी न जाऊँगी। अगर मैं इन बुर्दाफरोशों के हाथ फँसी तो अपनी ही चालाकी से छूट भी गई, आप लोगों को मेरे लिए कोई तकलीफ न करनी पड़ी।’

तेजसिंह ने कहा - ‘तुम्हारा कहना ठीक है, हम यह नहीं कहते कि हम लोगों ने तुमको छुड़ाया। हम लोग तो कुमारी चंद्रकांता को ढूँढ़ते हुए यहाँ तक पहुँच गए और उन्हीं की उम्मीद में बुर्दाफराशों के डेरे देख डाले। उनको तो न पाया मगर महारानी और तुम फँसी हुई दिखाई दीं, छुड़ाने की फिक्र हुई। पन्नालाल, रामनारायण और चुन्नीलाल को महारानी को छुड़ाने के लिए कोशिश करते देख, हम लोग यह समझ कर अलग हो गए कि मेहनत वे लोग करें, मौके में मौका हम लोगों को भी काम करने का मिल ही जाएगा। सो ऐसा ही हुआ भी, तुम अपनी ही चालाकी से छूट कर बाहर निकल गईं, हमने महारानी को गायब किया। खैर, इन सब बातों को जाने दो, तुम यह बताओ कि घर न जाओगी तो क्या करोगी? कहाँ ढूँढोगी? कहीं ऐसा न हो कि हम लोग तो कुमारी को खोज कर विजयगढ़ ले जाएँ और तुम महीनों तक मारी-मारी फिरो।’

चंपा ने कहा - ‘मैं एकदम से ऐसी बेवकूफ नहीं, आप बेफिक्र रहें।’

तेजसिंह को लाचार हो कर चंपा को उसकी मर्जी पर छोड़ना पड़ा और ज्योतिषी जी को भी उसी जंगल में छोड़ महारानी की गठरी बाँध कर कैदखाने वाले खोह की तरफ रवाना हुए जिसमें महाराज बंद थे। चंपा भी एक तरफ को रवाना हो गई।
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RE: चन्द्रकान्ता - देवकीनन्दन खत्री रचित उपन्यास - by usaiha2 - 25-07-2021, 08:59 PM



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