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चन्द्रकान्ता - देवकीनन्दन खत्री रचित उपन्यास
#45
बयान - 13

चपला खाने के लिए कुछ फल तोड़ने चली गई। इधर चंद्रकांता अकेली बैठी-बैठी घबरा उठी। जी में सोचने लगी कि जब तक चपला फल तोड़ती है तब तक इस टूटे-फूटे मकान की सैर करें, क्योंकि यह मकान चाहे टूट कर खँडहर हो रहा है मगर मालूम होता है किसी समय में अपना सानी न रखता होगा।

कुमारी चंद्रकांता वहाँ से उठ कर खँडहर के अंदर गई। फाटक इस टूटे-फूटे मकान का दुरुस्त और मजबूत था। यद्पी उसमें किवाड़ न लगे थे, मगर देखने वाला यही कहेगा कि पहले इसमें लकड़ी या लोहे का फाटक जरूर लगा रहा होगा।

कुमारी ने अंदर जा कर देखा कि बड़ा भारी चौखूटा मकान है। बीच की इमारत तो टूटी-फूटी है मगर हाता चारों तरफ का दुरुस्त मालूम पड़ता है। और आगे बढ़ी, एक दालान में पहुँची, जिसकी छत गिरी हुई थी, पर खंबे खड़े थे। इधर-उधर ईंट-पत्थर के ढेर थे, जिन पर धीरे-धीरे पैर रखती और आगे बढ़ी। बीच में एक मैदान देखई पड़ा जिसको बड़े गौर से कुमारी देखने लगी। साफ मालूम होता था कि पहले यह बाग था क्योंकि अभी तक संगमरमर की क्यारियाँ बनी हुई थीं। छोटी-छोटी नहरें जिनसे छिड़काव का काम निकलता होगा अभी तक तैयार थीं। बहुत से फव्वारे बेमरम्मत दिखाई पड़ते थे मगर उन सभी पर मिट्टी की चादर पड़ी हुई थी। बीचोंबीच उस खँडहर के एक बड़ा भारी पत्थर का बगुला बना हुआ दिखाई दिया जिसको अच्छी तरह से देखने के लिए कुमारी उसके पास गई और उसकी सफाई और कारीगरी को देख उसके बनाने वाले की तारीफ करने लगी। वह बगुला सफेद संगमरमर का बना हुआ था और काले पत्थर के कमर बराबर ऊँचे तथा मोटे खंबे पर बैठाया हुआ था। उसके पैर दिखाई नहीं दे रहे थे, यही मालूम होता था कि पेट सटा कर इस पत्थर पर बैठा है। कम-से-कम पंद्रह हाथ के घेरे में उसका पेट होगा। लंबी चोंच, बाल और पर उसके ऐसी कारीगरी के साथ बनाए हुए थे कि बार-बार उसके बनाने वाले कारीगर की तारीफ मुँह से निकलती थी। जी में आया कि और पास जा कर बगुले को देखे। पास गई, मगर वहाँ पहुँचते ही उसने मुँह खोल दिया। चंद्रकांता यह देख घबरा गई कि यह क्या मामला है, कुछ डर भी मालूम हुआ, सामना छोड़ बगल में हो गई। अब उस बगुले ने पर भी फैला दिए।

कुमारी को चपला ने बहुत ढीठ कर दिया था। कभी-कभी जब जिक्र आ जाता तो चपला यही कहती थी कि दुनिया में भूत-प्रेत कोई चीज नहीं, जादू-मंत्र सब खेल कहानी है, जो कुछ है ऐयारी है। इस बात का कुमारी को भी पूरा यकीन हो चुका था। यही सबब था कि चंद्रकांता इस बगुले के मुँह खोलने और पर फैलाने से नहीं डरी, अगर किसी दूसरी ऐसी नाजुक औरत को कहीं ऐसा मौका पड़ता तो शायद उसकी जान निकल जाती। जब बगुले को पर फैलाते देखा तो कुमारी उसके पीछे हो गई, बगुले के पीछे की तरफ एक पत्थर जमीन में लगा था, जिस पर कुमारी ने पैर रखा ही था कि बगुला एक दफा हिला और जल्दी से घूम अपनी चोंच से कुमारी को उठा कर निगल गया, तब घूम कर अपने ठिकाने हो गया। पर समेट लिए और मुँह बंद कर लिया।
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RE: चन्द्रकान्ता - देवकीनन्दन खत्री रचित उपन्यास - by usaiha2 - 25-07-2021, 08:51 PM



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