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चन्द्रकान्ता - देवकीनन्दन खत्री रचित उपन्यास
#44
बयान - 12

दोपहर के वक्त एक नाले के किनारे सुंदर साफ चट्टान पर दो कमसिन औरतें बैठी हैं। दोनों की मैली-फटी साड़ी, दोनों के मुँह पर मिट्टी, खुले बाल, पैरों पर खूब धूल पड़ी हुई और चेहरे पर बदहवासी और परेशानी छाई हुई है।

चारों तरफ भयानक जंगल, खूनी जानवरों की भयानक आवाजें आ रही हैं। जब कभी जोर से हवा चलती है तो पेड़ों की सरसराहट से जंगल और भी डरावना मालूम पड़ता है। इन दोनों औरतों के सामने नाले के उस पार एक तेंदुआ पानी पीने के लिए उतरा, उन्होने उस तेंदुए को देखा मगर वह खूनी जानवर इन दोनों को न देख सका, क्योंकि जहाँ वे दोनों बैठी थीं सामने ही एक मोटा जामुन का पेड़ था।

इन दोनों में से एक जो ज्यादा नाजुक थी उस तेंदुए को देख डरी और धीरे से दूसरे से बोली - ‘प्यारी सखी, देखो कहीं वह इस पार न उतर आए।’

उसने कहा - ‘नहीं सखी वह इस पार न आएगा, अगर आने का इरादा भी करेगा तो मैं पहले ही इन तीरों से उसको मार गिराऊँगी जो उस नाले के सिपाहियों को मार कर लेती आई हूँ। इस वक्त हमारे पास दो सौ तीर हैं और हम दोनों तीर चलाने वाली हैं, लो तुम भी एक तीर चढ़ा लो।’ यह सुन उसने भी एक तीर कमान पर चढ़ाया मगर उसकी कोई जरूरत न पड़ी। वह तेंदुआ पानी पी कर तुरंत ऊपर चढ़ गया और देखते-देखते गायब हो गया, तब इन दोनों में बातें होने लगी -

कुमारी – ‘क्यों चपला, कुछ मालूम पड़ता है कि हम लोग किस जगह आ पहुँचे और यह कौन-सा जंगल है तथा विजयगढ़ की राह किधर है?’

चपला – ‘कुमारी, कुछ समझ में नहीं आता, बल्कि अभी तक मुझको भागने की धुन में यह भी नहीं मालूम कि किस तरफ चली आई। विजयगढ़ किधर है, चुनारगढ़ कहाँ छोड़ा, और नौगढ़ का रास्ता कहाँ है? सिवाय तुम्हारे साथ महल में रहने या विजयगढ़ की हद में घूमने के कभी इन जंगलों में तो आना ही नहीं हुआ। हाँ चुनारगढ़ से सीधे विजयगढ़ का रास्ता जानती हूँ, मगर उधर मैं इस सबब से नहीं गई कि आजकल हमारे दुश्मनों का लश्कर रास्ते में पड़ा है, कहीं ऐसा न हो कोई देख ले, इसलिए मैं जंगल ही जंगल दूसरी तरफ भागी। खैर, देखो ईश्वर मालिक है, कुछ न कुछ रास्ते का पता लग ही जाएगा। मेरे बटुए में मेवा हैं, लो इसको खा लो और पानी पी लो फिर देखा जाएगा।’

कुमारी – ‘इसको किसी और वक्त के वास्ते रहने दो। क्या जाने हम लोगों को कितने दिन दु:ख भोगना पड़े। यह जंगल खूब घना है, चलो बेर-मकोय तोड़ कर खाएँ। अच्छा तो न मालूम पड़ेगा मगर समय काटना है।’

चपला – ‘अच्छा जैसी तुम्हारी मर्जी।’

चपला और चंद्रकांता दोनों वहाँ से उठीं। नाले के ऊपर इधर-उधर घूमने लगीं। दिन दोपहर से ज्यादा ढल चुका था। पेड़ों की छाँह में घूमती जंगली बेरों को तोड़ती खाती वे दोनों एक टूटे-फूटे उजाड़ मकान के पास पहुँचीं जिसको देखने से मालूम होता था कि यह मकान जरूर किसी बड़े राजा का बनाया हुआ होगा मगर अब टूट-फूट गया है।

चपला ने कुमारी चंद्रकांता से कहा - ‘बहिन तुम मकान के टूटे दरवाजे पर बैठो, मैं फल तोड़ लाऊँ तो इसी जगह बैठ कर दोनों खाएँ और इसके बाद तब इस मकान के अंदर घुस कर देखें कि क्या है। जब तक विजयगढ़ का रास्ता न मिले यही खँडहर हम लोगों के रहने के लिए अच्छा होगा, इसी में गुजारा करेंगे। कोई मुसाफिर या चरवाहा इधर से आ निकलेगा तो विजयगढ़ का रास्ता पूछ लेंगे और तब यहाँ से जाएँगे।’

कुमारी ने कहा - ‘अच्छी बात है, मैं इसी जगह बैठती हूँ, तुम कुछ फल तोड़ो लेकिन दूर मत जाना।’

चपला ने कहा - ‘नहीं मैं दूर न जाऊँगी, इसी जगह तुम्हारी आँखों के सामने रहूँगी।’ यह कह कर चपला फल तोड़ने चली गई।
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RE: चन्द्रकान्ता - देवकीनन्दन खत्री रचित उपन्यास - by usaiha2 - 25-07-2021, 08:46 PM



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