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चन्द्रकान्ता - देवकीनन्दन खत्री रचित उपन्यास
#40
बयान - 8

जिस जंगल में कुमार और देवीसिंह बैठे थे और उस सिपाही को पेड़ से बाँधा था वह बहुत ही घना था। वहाँ जल्दी किसी की पहुँच नहीं हो सकती थी। तेजसिंह के चले जाने पर कुमार और देवीसिंह एक साफ पत्थर की चट्टान पर बैठे बातें कर रहे थे। सवेरा होने ही वाला था कि पूरब की तरफ से किसी का फेंका हुआ एक छोटा-सा पत्थर कुमार के पास आ गिरा। ये दोनों ताज्जुब से उस तरफ देखने लगे कि एक पत्थर और आया मगर किसी को लगा नहीं।

देवीसिंह ने जोर से आवाज दी - ‘कौन है जो छिप कर पत्थर मारता है, सामने क्यों नहीं आता है?’

जवाब में आवाज आई - ‘शेर की बोली बोलने वाले गीदड़ों को दूर से ही मारा जाता है।’

यह आवाज सुनते ही कुमार को गुस्सा चढ़ आया, झट तलवार के कब्जे पर हाथ रख कर उठ खड़े हुए।

देवीसिंह ने हाथ पकड़ कर कहा - ‘आप क्यों गुस्सा करते हैं, मैं अभी उस नालायक को पकड़ लाता हूँ, वह है क्या चीज?’ यह कह देवीसिंह उस तरफ गए जिधर से आवाज आई थी। इनके आगे बढ़ते ही एक और पत्थर पहुँचा जिसे देख देवीसिंह तेजी के साथ आगे बढ़े। एक आदमी दिखाई पड़ा मगर घने पेड़ों में अँधेरा ज्यादा होने के सबब उसकी सूरत नहीं नजर आई। वह देवीसिंह को अपनी तरफ आते देख एक और पत्थर मार कर भागा। देवीसिंह भी उसके पीछे दौड़े मगर वह कई दफा इधर-उधर लोमड़ी की तरह चक्कर लगा कर उन्हीं घने पेड़ों में गायब हो गया। देवीसिंह भी इधर-उधर खोजने लगे, यहाँ तक कि सवेरा हो गया, बल्कि दिन निकल आया लेकिन साफ दिखाई देने पर भी कहीं उस आदमी का पता न लगा। आखिर लाचार हो कर देवीसिंह उस जगह फिर आए जिस जगह कुमार को छोड़ गए थे। देखा तो कुमार नहीं। इधर-उधर देखा कहीं पता नहीं। उस सिपाही के पास आए जिसको पेड़ के साथ बाँध दिया था, देखा तो वह भी नहीं। जी उड़ गया, आँखों में आँसू भर आए, उसी चट्टान पर बैठे और सिर पर हाथ रख कर सोचने लगे, अब क्या करें, किधर ढूँढ़े, कहाँ जाएँ। अगर ढूँढ़ते-ढूँढ़ते कहीं दूर निकल गए और इधर तेजसिंह आए और हमको न देखा तो उनकी क्या दशा होगी?

इन सब बातों को सोच देवीसिंह और थोड़ी देर इधर-उधर देख-भाल कर फिर उसी जगह चले आए और तेजसिंह की राह देखने लगे। बीच-बीच में इस तरह कई दफा देवीसिंह ने उठ-उठ कर खोज की, मगर कुछ काम न निकला।
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RE: चन्द्रकान्ता - देवकीनन्दन खत्री रचित उपन्यास - by usaiha2 - 25-07-2021, 06:07 PM



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