25-07-2021, 05:55 PM
बयान – 6
तेजसिंह चंद्रकांता और चपला का पता लगाने के लिए कुँवर वीरेंद्रसिंह से विदा हो फौज के हाते के बाहर आए और सोचने लगे कि अब किधर जाएँ, कहाँ ढूँढ़े? दुश्मन की फौज में देखने की तो कोई जरूरत नहीं क्योंकि वहाँ चंद्रकांता को कभी नहीं रखा होगा, इससे चुनारगढ़ ही चलना ठीक है। यह सोच कर चुनारगढ़ ही की तरफ रवाना हुए और दूसरे दिन सवेरे वहाँ पहुँचे। सूरत बदल कर इधर-उधर घूमने लगे। जगह-जगह पर अटकते और अपना मतलब निकालने की फिक्र करते थे, मगर कुछ फायदा न हुआ, कुमारी की खबर कुछ भी मालूम न हुई। रात को तेजसिंह सूरत बदल किले के अंदर घुस गए और इधर-उधर ढूँढ़ने लगे। घूमते-घूमते मौका पा कर वे एक काले कपड़े से अपने बदन को ढाँक, कमंद फेंक महल पर चढ़ गए। इस समय आधी रात जा चुकी होगी। छत पर से तेजसिंह ने झाँक कर देखा तो सन्नाटा मालूम पड़ा, मगर रोशनी खूब हो रही थी। तेजसिंह नीचे उतरे और एक दालान में खड़े हो कर देखने लगे। सामने एक बड़ा कमरा था जो कि बहुत खूबसूरती के साथ बेशकीमती असबाबों और तस्वीरों से सजा हुआ था। रोशनी ज्यादा न थी सिर्फ शमादान जल रहे थे, बीच में ऊँची मसनद पर एक औरत सो रही थी। चारों तरफ उसके कई औरतें भी फर्श पर पड़ी हुई थीं। तेजसिंह आगे बढ़े और एक-एक करके रोशनी बुझाने लगे, यहाँ तक कि सिर्फ उस कमरे में एक रोशनी रह गई और सब बुझ गईं। अब तेजसिंह उस कमरे की तरफ बढ़े, दरवाजे पर खड़े हो कर देखा तो पास से वह सूरत बखूबी दिखाई देने लगी जिसको दूर से देखा था। तमाम बदन शबनमी से ढ़का हुआ मगर खूबसूरत चेहरा खुला था, करवट के सबब कुछ हिस्सा मुँह का नीचे के मखमली तकिए पर होने से छिपा हुआ था, गोरा रंग, गालों पर सुर्खी जिस पर एक लट खुल कर आ पड़ी थी जो बहुत ही भली मालूम होती थी। आँख के पास शायद किसी जख्म का घाव था, मगर यह भी भला मालूम होता था। तेजसिंह को यकीन हो गया कि बेशक महाराज शिवदत्त की रानी यही है। कुछ देर सोचने के बाद उन्होंने अपने बटुए में से कलम-दवात और एक टुकड़ा कागज का निकाला और जल्दी से उस पर यह लिखा -
‘न मालूम क्यों इस वक्त मेरा जी चंद्रकांता से मिलने को चाहता है। जो हो, मैं तो उससे मिलने जाती हूँ। रास्ते और ठिकाने का पता मुझे लग चुका है।’
इसके बाद पलँग के पास जा बेहोशी का धतूरा रानी की नाक के पास ले गए जो साँस लेती दफा उसके दिमाग पर चढ़ गया और वह एकदम से बेहोश हो गई। तेजसिंह ने नाक पर हाथ रख कर देखा, बेहोशी की साँस चल रही थी, झट रानी को तो कपड़े में बाँधा और पुर्जा जो लिखा था वह तकिए के नीचे रखा और वहाँ से उसी कमंद के जरिए से बाहर हुए और गंगा किनारे वाली खिड़की जो भीतर से बंद थी, खोल कर तेजी के साथ पहाड़ी की तरफ निकल गए। बहुत दूर जा एक दर्रे में रानी को और ज्यादा बेहोश करके रख दिया और फिर लौट कर किले के दरवाजे पर आ एक तरफ किनारे छिप कर बैठ गए।
तेजसिंह चंद्रकांता और चपला का पता लगाने के लिए कुँवर वीरेंद्रसिंह से विदा हो फौज के हाते के बाहर आए और सोचने लगे कि अब किधर जाएँ, कहाँ ढूँढ़े? दुश्मन की फौज में देखने की तो कोई जरूरत नहीं क्योंकि वहाँ चंद्रकांता को कभी नहीं रखा होगा, इससे चुनारगढ़ ही चलना ठीक है। यह सोच कर चुनारगढ़ ही की तरफ रवाना हुए और दूसरे दिन सवेरे वहाँ पहुँचे। सूरत बदल कर इधर-उधर घूमने लगे। जगह-जगह पर अटकते और अपना मतलब निकालने की फिक्र करते थे, मगर कुछ फायदा न हुआ, कुमारी की खबर कुछ भी मालूम न हुई। रात को तेजसिंह सूरत बदल किले के अंदर घुस गए और इधर-उधर ढूँढ़ने लगे। घूमते-घूमते मौका पा कर वे एक काले कपड़े से अपने बदन को ढाँक, कमंद फेंक महल पर चढ़ गए। इस समय आधी रात जा चुकी होगी। छत पर से तेजसिंह ने झाँक कर देखा तो सन्नाटा मालूम पड़ा, मगर रोशनी खूब हो रही थी। तेजसिंह नीचे उतरे और एक दालान में खड़े हो कर देखने लगे। सामने एक बड़ा कमरा था जो कि बहुत खूबसूरती के साथ बेशकीमती असबाबों और तस्वीरों से सजा हुआ था। रोशनी ज्यादा न थी सिर्फ शमादान जल रहे थे, बीच में ऊँची मसनद पर एक औरत सो रही थी। चारों तरफ उसके कई औरतें भी फर्श पर पड़ी हुई थीं। तेजसिंह आगे बढ़े और एक-एक करके रोशनी बुझाने लगे, यहाँ तक कि सिर्फ उस कमरे में एक रोशनी रह गई और सब बुझ गईं। अब तेजसिंह उस कमरे की तरफ बढ़े, दरवाजे पर खड़े हो कर देखा तो पास से वह सूरत बखूबी दिखाई देने लगी जिसको दूर से देखा था। तमाम बदन शबनमी से ढ़का हुआ मगर खूबसूरत चेहरा खुला था, करवट के सबब कुछ हिस्सा मुँह का नीचे के मखमली तकिए पर होने से छिपा हुआ था, गोरा रंग, गालों पर सुर्खी जिस पर एक लट खुल कर आ पड़ी थी जो बहुत ही भली मालूम होती थी। आँख के पास शायद किसी जख्म का घाव था, मगर यह भी भला मालूम होता था। तेजसिंह को यकीन हो गया कि बेशक महाराज शिवदत्त की रानी यही है। कुछ देर सोचने के बाद उन्होंने अपने बटुए में से कलम-दवात और एक टुकड़ा कागज का निकाला और जल्दी से उस पर यह लिखा -
‘न मालूम क्यों इस वक्त मेरा जी चंद्रकांता से मिलने को चाहता है। जो हो, मैं तो उससे मिलने जाती हूँ। रास्ते और ठिकाने का पता मुझे लग चुका है।’
इसके बाद पलँग के पास जा बेहोशी का धतूरा रानी की नाक के पास ले गए जो साँस लेती दफा उसके दिमाग पर चढ़ गया और वह एकदम से बेहोश हो गई। तेजसिंह ने नाक पर हाथ रख कर देखा, बेहोशी की साँस चल रही थी, झट रानी को तो कपड़े में बाँधा और पुर्जा जो लिखा था वह तकिए के नीचे रखा और वहाँ से उसी कमंद के जरिए से बाहर हुए और गंगा किनारे वाली खिड़की जो भीतर से बंद थी, खोल कर तेजी के साथ पहाड़ी की तरफ निकल गए। बहुत दूर जा एक दर्रे में रानी को और ज्यादा बेहोश करके रख दिया और फिर लौट कर किले के दरवाजे पर आ एक तरफ किनारे छिप कर बैठ गए।