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चन्द्रकान्ता - देवकीनन्दन खत्री रचित उपन्यास
#37
बयान - 5

‘चंद्रकांता को ले जा कर कहाँ रखा होगा? अच्छे कमरे में या अँधेरी कोठरी में? उसको खाने को क्या दिया होगा और वह बेचारी सिवाय रोने के क्या करती होगी। खाने-पीने की उसे कब सुध होगी। उसका मुँह दु:ख और भय से सूख गया होगा। उसको राजी करने के लिए तंग करते होंगे। कहीं ऐसा न हो कि उसने तंग होकर जान दे दी हो।’ इन्हीं सब बातों को सोचते और ख्याल करते कुमार को रात-भर नींद न आई। सवेरा होने ही वाला था कि महाराज शिवदत्त के लश्कर से डंके की आवाज आई।

मालूम हुआ कि दुश्मनों की तरफ लड़ाई का सामान हो रहा है। कुमार भी उठ बैठे, हाथ-मुँह धोए। इतने में हरकारे ने आ कर खबर दी कि दुश्मनों की तरफ लड़ाई का सामान हो रहा है। कुमार ने भी कहा - ‘हमारे यहाँ भी जल्दी तैयारी की जाए।’ हुक्म पा कर हरकारा रवाना हुआ। जब तक कुमार ने स्नान-संध्या से छुट्टी पाई तब तक दोनों तरफ की फौजें भी मैदान में जा डटीं। बेलदारों ने जमीन साफ कर दी।

कुमार भी अपने अरबी घोड़े पर सवार हो मैदान में गए और देवीसिंह से कहा - ‘शिवदत्त को कहना चाहिए कि बहुत से आदमियों का खून कराना अच्छा नहीं, जिस-जिस को बहादुरी का घमंड हो एक-एक लड़ के जल्दी मामला तय कर लें। शिवदत्तसिंह अपने को अर्जुन समझते हैं, उनके मुकाबले के लिए मैं मौजूद हूँ, क्यों बेचारे गरीब सिपाहियों की जान जाए।’ देवीसिंह ने कहा - ‘बहुत अच्छा, अभी इस मामले को तय कर डालता हूँ।’ यह कह मैदान में गए और अपनी चादर हवा में दो-तीन दफा उछाली। चादर उछालनी थी कि झट बद्रीनाथ ऐयार महाराज शिवदत्त के लश्कर से निकल के मैदान में देवीसिंह के पास आए और बोले - ‘जय माता की।’

देवीसिंह ने भी जवाब दिया - ‘जय माता की।’

बद्रीनाथ ने पूछा - ‘क्यों क्या बात है जो मैदान में आ कर ऐयारों को बुलाते हो?’

देवीसिंह - ‘तुमसे एक बात कहनी है।’

बद्रीनाथ – ‘कहो।’

देवीसिंह – ‘तुम्हारी फौज में मर्द बहुत हैं कि औरत?’

बद्रीनाथ – ‘औरत की सूरत भी दिखाई नहीं देती।’

देवीसिंह – ‘तुम्हारे यहाँ कोई बहादुर भी है कि सब गरीब सिपाहियों की जान लेने और आप तमाशा देखने वाले ही हैं?’

बद्रीनाथ – ‘हमारे यहाँ बहादुरों कि भरमार है।’

देवीसिंह – ‘तुम्हारे कहने से तो मालूम होता है कि सब खेत की मूली ही हैं।’

बद्रीनाथ – ‘यह तो मुकाबला होने ही से मालूम होगा।’

देवीसिंह – ‘तो क्यों नहीं एक पर एक लड़ के हौसला निकाल लेते? ऐसा करने से मामला भी जल्द तय हो जाएगा और बेचारे सिपाहियों की जानें भी मुफ्त में न जाएँगी। हमारे कुमार तो कहते हैं कि महाराज शिवदत्त को अपनी बहादुरी का बड़ा भरोसा है, आएँ पहले हम से ही भिड़ जाएँ, या वही जीत जाएँ या हम ही चुनारगढ़ की गद्दी के मालिक हों, बात-ही-बात में मामला तय होता है।’

बद्रीनाथ – ‘तो इसमें हमारे महाराज कभी न हटेंगे, वह बड़े बहादुर हैं। तुम्हारे कुमार को तो चुटकी से मसल डालेंगे।’

देवीसिंह – ‘यह तो हम भी जानते हैं कि उनकी चुटकी बहुत साफ है, फिर आएँ मैदान में।’

इस बातचीत के बाद बद्रीनाथ लौट कर अपनी फौज में गए और जो कुछ देवीसिंह से बातचीत हुई थी जा कर महाराज शिवदत्त से कहा। सुनते ही महाराज शिवदत्त तो लाल हो गए और बोले - ‘यह कल का लड़का मेरे साथ मुकाबला करना चाहता है।’

बद्रीनाथ ने कहा - ‘फिर हियाव ही तो है, हौसला ही तो है, इसमें रंज होने की क्या बात है? मैं जहाँ तक समझता हूँ, उनका कहना ठीक है।’

यह सुनते ही महाराज शिवदत्त झट घोड़ा कुदा कर मैदान में आ गए और भाला उठा कर हिलाया, जिसको देख वीरेंद्रसिंह ने भी अपने घोड़े को एड़ मारी और मैदान में शिवदत्त के मुकाबले में पहुँच कर ललकारा - ‘अपने मुँह अपनी तारीफ करता है और कहता है कि मैं वीर हूँ? क्या बहादुर लोग चोट्टे भी होते हैं? जवाँमर्दी से लड़ कर चंद्रकांता न ली गई? लानत है ऐसी बहादुरी पर।’ वीरेंद्रसिंह की बात तीर की तरह महाराज शिवदत्त के कलेजे में लगी। कुछ जवाब तो न दे सके, गुस्से में भरे हुए बड़े जोर से कुमार पर नेजा चलाया, कुमार ने अपने नेजे से ऐसा झटका दिया कि उनके हाथ से नेजा छटक कर दूर जा गिरा।

यह तमाशा देख दोस्त-दुश्मन दोनों तरफ से ‘वाह-वाह’ की आवाज आने लगी। शिवदत्त बहुत बिगड़ा और तलवार निकाल कर कुमार पर दौड़ा, कुमार ने तलवार का जवाब तलवार से दिया। दोपहर तक दोनों में लड़ाई होती रही, दोपहर बाद कुमार की तलवार से शिवदत्त का घोड़ा जख्मी हो कर गिर पड़ा, बल्कि खुद महाराज शिवदत्त को कई जगह जख्म लगे। घोड़े से कूद कर शिवदत्त ने कुमार के घोड़े को मारना चाहा, मगर मतलब समझ के कुमार भी झट घोड़े पर से कूद पड़े और आगे हो कर एक कोड़ा इस जोर से शिवदत्त की कलाई पर मारा कि हाथ से तलवार छूट कर जमीन पर गिर पड़ी, जिसको दौड़ के देवीसिंह ने उठा लिया। महाराज शिवदत्त को मालूम हो गया कि कुमार हर तरह से जबर्दस्त है, अगर थोड़ी देर और लड़ाई होगी तो हम बेशक मारे जाएँगे या पकड़े जाएँगे। यह सोच कर अपनी फौज को कुमार पर धावा करने का इशारा किया। बस एकदम से कुमार को उन्होंने घेर लिया। यह देख कुमार की फौज ने भी मारना शुरू किया। फतहसिंह सेनापति और देवीसिंह कोशिश करके कुमार के पास पहुँचे और तलवार और खंजर चलाने लगे। दोनों फौजें आपस में खूब गुथ गईं और गहरी लड़ाई होने लगी।

शिवदत्त के बड़े-बड़े पहलवानों ने चाहा कि इसी लड़ाई में कुमार का काम तमाम कर दें मगर कुछ बन न पड़ा। कुमार के हाथ से बहुत दुश्मन मारे गए। शाम को उतारे का डंका बजा और लड़ाई बंद हुई। फौज ने कमर खोली। कुमार अपने खेमे में आए मगर बहुत सुस्त हो रहे थे, फतहसिंह सेनापति भी जख्मी हो गए थे। रात को सभी ने आराम किया।

महाराज शिवदत्त ने अपने दीवान और पहलवानों से राय ली थी कि अब क्या करना चाहिए। फौज तो वीरेंद्रसिंह की हमसे बहुत कम है मगर उनकी दिलावरी से हमारा हौसला टूट जाता है क्योंकि हमने भी उससे लड़ के बहुत जक उठाई। हमारी तो यही राय है कि रात को कुमार के लश्कर पर धावा मारें। इस राय को सभी ने पसंद किया। थोड़ी रात रहे शिवदत्त ने कुमार की फौज पर पाँच सौ सिपाहियों के साथ धावा किया। बड़ा ही गड़बड़ मची। अँधेरी रात में दोस्त-दुश्मनों का पता लगाना मुश्किल था। कुमार की फौज दुश्मन समझ अपने ही लोगों को मारने लगी। यह खबर वीरेंद्रसिंह को भी लगी। झट अपने खेमे से बाहर निकल आए। देवीसिंह ने बहुत से आदमियों को महताब जलाने के लिए बाँटीं। यह महताब तेजसिंह ने अपनी तरकीब से बनाई थीं। इसके जलाते ही उजाला हो गया और दिन की तरह मालूम होने लगा। अब क्या था, कुल पाँच सौ आदमियों को मारना क्या, सुबह होते-होते शिवदत्त के पाँच सौ आदमी मारे गए मगर रोशनी होने के पहले करीब हजार आदमी कुमार की तरफ के नुकसान हो चुके थे, जिसका रंज वीरेंद्रसिंह को बहुत हुआ और सुबह को लड़ाई बंद न होने दी।

दोनों फौजें फिर गुँथ गईं। कुमार ने जल्दी से स्नान किया और संध्या-पूजा करके हरबों को बदन पर सजा दुश्मन की फौज में घुस गए। लड़ाई खूब हो रही थी, किसी को तनोबदन की खबर न थी। एकाएक पूरब और उतर के कोने से कुछ फौजी सवार तेजी से आते हुए दिखाई दिए जिनके आगे-आगे एक सवार बहुत उम्दा पोशाक पहने अरबी घोड़े पर सवार घोड़ा दौड़ाए चला आता था। उसके पीछे और भी सवार जो करीब-करीब पाँच सौ के होंगे। घोड़ा फेंके चले आ रहे थे। अगले सवार की पोशाक और हरबों से मालूम होता था कि यह सभी का सरदार है। सरदार ने मुँह पर नकाब डाल रखा था।

इस फौज ने पीछे से महाराज शिवदत्त की फौज पर धावा किया और खूब मारा। इधर से वीरेंद्रसिंह की फौज ने जब देखा कि दुश्मनों को मारने वाला एक और आ पहुँचा, तबीयत बढ़ गई और हौसले के साथ लड़ने लगे। दो तरफी चोट महाराज शिवदत्त की फौज सँभाल न पाई और भाग चली। फिर तो कुमार की बन पड़ी, दो कोस तक पीछा किया, आखिर फतह का डंका बजाते अपने पड़ाव पर आए, मगर हैरान थे कि ये नकाबपोश सवार कौन थे, जिन्होंने बड़े वक्त पर हमारी मदद की और फिर जिधर से आए थे उधर ही चले गए। कोई किसी की जरा मदद करता है तो अहसान जताने लगता है मगर इन्होंने हमारा सामना भी नहीं किया, यह बड़ी बहादुरी का काम है। बहुत सोचा मगर कुछ समझ न पड़ा।

महाराज शिवदत्त का बिल्कुल माल-खजाना और खेमा वगैरह कुमार के हाथ लगा। जब कुमार निश्चित हुए उन्होंने देवीसिंह से पूछा - ‘क्या तुम कुछ बता सकते हो कि वे नकाबपोश कौन थे जिन्होंने हमारी मदद की?’

देवीसिंह ने कहा - ‘मेरे कुछ भी ख्याल में नहीं आता, मगर वाह। बहादुरी इसको कहते हैं।।’ इतने में एक जासूस ने आ कर खबर दी कि दुश्मन थोड़ी दूर जा कर अटक गए हैं और फिर लड़ाई की तैयारी कर रहे हैं।
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RE: चन्द्रकान्ता - देवकीनन्दन खत्री रचित उपन्यास - by usaiha2 - 25-07-2021, 05:52 PM



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