Thread Rating:
  • 4 Vote(s) - 3 Average
  • 1
  • 2
  • 3
  • 4
  • 5
चन्द्रकान्ता - देवकीनन्दन खत्री रचित उपन्यास
#35
बयान - 2

मामूली वक्त पर आज महाराज ने दरबार किया। कुमार और तेजसिंह भी हाजिर हुए। आज का दरबार बिल्कुल सुस्त और उदास था, मगर कुमार ने लड़ाई पर जाने के लिए महाराज से इजाजत ले ली और वहाँ से चले गए। महाराज भी उदासी की हालत में उठ के महल में चले गए। यह तो निश्चय हो गया कि चंद्रकांता और चपला जीती हैं मगर कहाँ हैं, किस हालत में हैं, सुखी हैं या दु:खी, इन सब बातों का ख्याल करके महल में महारानी से ले कर लौंडी तक सब उदास थीं, सभी की आँखों से आँसू जारी थे, खाने-पीने की किसी को भी फिक्र न थी, एक चंद्रकांता का ध्यान ही सभी का काम था।

महाराज जब महल में गए महारानी ने पूछा कि चंद्रकांता का पता लगाने की कुछ फिक्र की गई?’

महाराज ने कहा - ‘हाँ तेजसिंह उसकी खोज में जाते हैं, उनसे ज्यादा पता लगाने वाला कौन है जिससे मैं कहूँ? वीरेंद्रसिंह भी इस वक्त लड़ाई पर जाने के लिए मुझसे विदा हो गए, अब देखो क्या होता है।’

बयान - 3

कुछ दिन बाकी है, एक मैदान में हरी-हरी दूब पर पंद्रह-बीस कुर्सियाँ रखी हुई हैं और सिर्फ तीन आदमी कुँवर वीरेंद्रसिंह, तेजसिंह और फतहसिंह सेनापति बैठे हैं, बाकी कुर्सियाँ खाली पड़ी हैं। उनके पूरब की तरफ सैकड़ों खेमे अर्धाचंद्राकार खड़े हैं। बीच में वीरेंद्रसिंह के पलटन वाले अपने-अपने हरबों को साफ और दुरुस्त कर रहे हैं। बड़े-बड़े शामियानों के नीचे तोपें रखी हैं जो हर एक तरह से लैस और दुरुस्त मालूम हो रही हैं। दक्षिण की तरफ घोड़ों का अस्तबल है जिसमें अच्छे-अच्छे घोड़े बँधे दिखाई देते हैं। पश्चिम तरफ बाजे वालों, सुरंग खोदने वालों, पहाड़ उखाड़ने वालों और जासूसों का डेरा तथा रसद का भंडार है।

कुमार ने फतहसिंह सिपहसालार से कहा - ‘मैं समझता हूँ कि मेरा डेरा-खेमा सुबह तक ‘लोहरा’ के मैदान में दुश्मनों के मुकाबले में खड़ा हो जाएगा?’

फतहसिंह ने कहा - ‘जी हाँ, जरूर सुबह तक वहाँ सब सामान लैस हो जाएगा, हमारी फौज भी कुछ रात रहते यहाँ से कूच करके पहर दिन चढ़ने के पहले ही वहाँ पहुँच जाएगी। परसों हम लोगों के हौसले दिखाई देंगे, बहुत दिन तक खाली बैठे-बैठे तबीयत घबरा गई थी।’

इसी तरह की बातें हो रही थीं कि सामने देवीसिंह ऐयारी के ठाठ में आते दिखाई दिए। नजदीक आ कर देवीसिंह ने कुमार और तेजसिंह को सलाम किया। देवीसिंह को देख कर कुमार बहुत खुश हुए और उठ कर गले लगा लिया, तेजसिंह ने भी देवीसिंह को गले लगाया और बैठने के लिए कहा। फतहसिंह सिपहसालार ने भी उनको सलाम किया। जब देवीसिंह बैठ गए, तेजसिंह उनकी तारीफ करने लगे।

कुमार ने पूछा - ‘कहो देवीसिंह, तुमने यहाँ आ कर क्या-क्या किया?’

तेजसिंह ने कहा - ‘इनका हाल मुझसे सुनिए, मैं मुख्तसर में आपको समझा देता हूँ।

कुमार ने कहा - ‘कहो।’

तेजसिंह बोले - ‘जब आप चंद्रकांता के बाग में बैठे थे और भूत ने आ कर कहा था कि खबर भई राजा को तुमरी सुनो गुरु जी मेरे।’ जिसको सुन कर मैंने जबर्दस्ती आपको वहाँ से उठाया था, वह भूत यही थे। नौगढ़ में भी इन्होंने जा कर क्रूरसिंह के चुनारगढ़ जाने और ऐयारों को संग लाने की खबर खंजरी बजा कर दी थी। जब चंद्रकांता के मरने का गम महल में छाया हुआ था और आप बेहोश पड़े थे तब भी इन्हीं ने चंद्रकांता और चपला के जीते रहने की खबर मुझको दी थी, तब मैंने उठ कर लाश पहचानी नहीं होती तो पूरे घर का ही नाश हो चुका था। इतना काम इन्होंने किया। इन्हीं को बुलाने के वास्ते मैंने सुबह मुनादी करवाई थी, क्योंकि इनका कोई ठिकाना तो था ही नहीं।’

यह सुन कर कुमार ने देवीसिंह की पीठ ठोंकी और बोले - ‘शाबास। किस मुँह से तारीफ करें, दो घर तुमने बचाए।’ देवीसिंह ने कहा - ‘मैं किस लायक हूँ जो आप इतनी तारीफ करते हैं, तारीफ सब कामों से निश्चिंत होकर कीजिएगा, इस वक्त चंद्रकांता को छुड़ाने की फिक्र करनी चाहिए, अगर देर होगी तो न जाने उनकी जान पर क्या आ बने। सिवाय इसके इस बात का भी ख्याल रखना चाहिए कि अगर हम लोग बिल्कुल चंद्रकांता ही की खोज में लीन हो जाएँगे तो महाराज की लड़ाई का नतीजा बुरा हो जाएगा।’

यह सुन कुमार ने पूछा - ‘देवीसिंह यह तो बताओ चंद्रकांता कहाँ है, उसको कौन ले गया।’

देवीसिंह ने जवाब दिया कि यह तो नहीं मालूम कि चंद्रकांता कहाँ है, हाँ इतना जानता हूँ कि नाजिम और बद्रीनाथ मिल कर कुमारी और चपला को ले गए, पता लगाने से लग ही जाएगा।’

तेजसिंह ने कहा - ‘अब तो दुश्मन के सब ऐयार छूट गए, वे सब मिल कर नौ हैं और हम दो ही आदमी ठहरे। चाहे चंद्रकांता और चपला को खोजें, चाहे फौज में रह कर कुमार की हिफाजत करें, बड़ी मुश्किल है।’

देवीसिंह ने कहा - ‘कोई मुश्किल नहीं है सब काम हो जाएगा, देखिए तो सही। अब पहले हमको शिवदत्त के मुकाबले में चलना चाहिए, उसी जगह से कुमारी के छुड़ाने की फिक्र की जाएगी।’

तेजसिंह ने कहा - ‘हम लोग महाराज से विदा हो आए हैं, कुछ रात रहते यहाँ से पड़ाव उठेगा, पेशखेमा जा चुका है।’

आधी रात तक ये लोग आपस में बातचीत करते रहे, इसके बाद कुमार उठ कर अपने खेमे में चले गए। कुमार के बगल में तेजसिंह का खेमा था, जिसमें देवीसिंह और तेजसिंह दोनों ने आराम किया। चारों तरफ फौज का पहरा फिरने लगा, गश्त की आवाज आने लगी। थोड़ी रात बाकी थी कि एक छोटी तोप की आवाज हुई, कुछ देर बाद बाजा बजने लगा, कूच की तैयारी हुई और धीर-धीर फौज चल पड़ी। जब सब फौज जा चुकी, पीछे एक हाथी पर कुमार सवार हुए जिन्हें चारों तरफ से बहुत-से सवार घेरे हुए थे। तेजसिंह और देवीसिंह अपने ऐयारी के सामान से सजे हुए, कभी आगे, कभी पीछे, कभी साथ, पैदल चले जाते थे। पहर दिन चढ़े कुँवर वीरेंद्रसिंह का लश्कर शिवदत्तसिंह की फौज के मुकाबले में जा पहुँचा, जहाँ पहले से महाराज जयसिंह की फौज डेरा जमाए हुए थी। लड़ाई बंद थी और * सब मारे जा चुके थे, खेमा-डेरा पहले ही से खड़ा था, कायदे के साथ पलटनों का पड़ाव पड़ा।

जब सब इंतजाम हो चुका, कुँवर वीरेंद्रसिंह ने अपने खेमे में कचहरी की और मीर मुंशी को हुक्म दिया - ‘एक खत शिवदत्त को लिखो कि मालूम होता है आजकल तुम्हारे मिजाम में गर्मी आ गई है जो बैठे-बैठाए एक नालायक क्रूर के भड़काने पर महाराज जयसिंह से लड़ाई ठान ली है। यह भी मालूम हो गया कि तुम्हारे ऐयार चंद्रकांता और चपला को चुरा लाए हैं, सो बेहतर है कि चंद्रकांता और चपला को इज्जत के साथ महाराज जयसिंह के पास भेज दो और तुम वापस जाओ नहीं तो पछताओगे, जिस वक्त हमारे बहादुरों की तलवारें मैदान में चमकेंगी, भागते राह न मिलेगी।’ बमूजिम हुक्म के मीर मुंशी ने खत लिख कर तैयार की।

कुमार ने कहा - ‘यह खत कौन ले जाएगा?’

यह सुन देवीसिंह सामने हाथ जोड़ कर बोले - ‘मुझको इजाजत मिले कि इस खत को ले जाऊँ क्योंकि शिवदत्तसिंह से बातचीत करने की मेरे मन में बड़ी लालसा है।’

कुमार ने कहा - ‘इतनी बड़ी फौज में तुम्हारा अकेला जाना अच्छा नहीं है।’

तेजसिंह ने कहा - ‘कोई हर्ज नहीं, जाने दीजिए।’ आखिर कुमार ने अपनी कमर से खंजर निकाल कर दिया जिसे देवीसिंह ने ले कर सलाम किया, खत बटुए में रख ली और तेजसिंह के चरण छू कर रवाना हुए।

महाराज शिवदत्तसिंह के पलटन वालों में कोई भी देवीसिंह को नहीं पहचानता था। दूर से इन्होंने देखा कि बड़ा-सा कारचोबी खेमा खड़ा है। समझ गए कि यही महाराज का खेमा है, सीधे धड़धड़ाते हुए खेमे के दरवाजे पर पहुँचे और पहरे वालों से कहा - ‘अपने राजा को जा कर खबर करो कि कुँवर वीरेंद्रसिंह का एक ऐयार खत ले कर आया है, जाओ जल्दी जाओ।’ ‘सुनते ही प्यादा दौड़ा गया और महाराज शिवदत्त से इस बात की खबर की।

उन्होंने हुक्म दिया - ‘आने दो।’

देवीसिंह खेमे के अंदर गए। देखा कि बीच में महाराज शिवदत्त सोने के जड़ाऊ सिंहासन पर बैठे हैं, बाईं तरफ दीवान साहब और इसके बाद दोनों तरफ बड़े-बड़े बहादुर बेशकीमती पोशाकें पहने उम्दे-उम्दे हरबे लगाए चाँदी की कुर्सियों पर बैठे हैं, जिनके देखने से कमजोरों का कलेजा दहलता है। बाद इसके दोनों तरफ नीम कुर्सियों पर ऐयार लोग विराजमान हैं। इसके बाद दरजे-बे-दरजे अमीर और ओहदेदार लोग बैठे हैं, बहुत से चोबदार हाथ बाँधें सामने खड़े हैं। गरज कि बड़े रोआब का दरबार देखने में आया।

देवीसिंह किसी को सलाम किए बिना ही बीच में जा कर खड़े हो गए और एक दफा चारों तरफ निगाह दौड़ा कर गौर से देखा, फिर बढ़ कर कुमार की खत महाराज के सामने सिंहासन पर रख दी।

देवीसिंह की बेअदबी देख कर महाराज शिवदत्त मारे गुस्से के लाल हो गए और बोले - ‘एक मच्छर को इतना हौसला हो गया कि हाथी का मुकाबला करे। अभी तो वीरेंद्रसिंह के मुँह से दूध की महक भी गई न होगी।’ यह कहते हुए खत हाथ में ले कर फाड़ दिया।

खत का फटना था कि देवीसिंह की आँखें लाल हो गईं। बोले - ‘जिसके सर मौत सवार होती है उसकी बुद्धि पहले ही हवा खाने चली जाती है।’ देवीसिंह की बात तीर की तरह शिवदत्त के कलेजे के पार हो गई।

बोले - ‘पकड़ो इस बेअदब को।’ इतना कहना था कि कई चोबदार देवीसिंह की तरफ झुके। इन्होंने खंजर निकाल दो-तीन चोबदारों की सफाई कर डाली और फुर्ती से अपने ऐयारी के बटुए में से एक गेद निकाल कर जोर से जमीन पर मार, जिससे बड़ी भारी आवाज हुई। दरबार दहल उठा, महाराज एकदम चौंक पड़े जिससे सिर का शमला जिस पर हीरे का सरपेंच था जमीन पर गिर पड़ा। लपक के देवीसिंह ने उसे उठा लिया और कूद कर खेमे के बाहर निकल गए। सब के सब देखते रह गए किसी के किए कुछ बन न पड़ा।

सारा गुस्सा शिवदत्त ने ऐयारों पर निकाला जो कि उस दरबार में बैठे थे। कहा - ‘लानत है तुम लोगों की ऐयारी पर जो तुम लोगों के देखते दुश्मन का एक अदना ऐयार हमारी बेइज्जती कर जाए।’

बद्रीनाथ ने जवाब दिया - ‘महाराज, हम लोग ऐयार हैं, हजार आदमियों में अकेले घुस कर काम करते हैं मगर एक आदमी पर दस ऐयार नहीं टूट पड़ते। यह हम लोगों के कायदे के बाहर है। बड़े-बड़े पहलवान तो बैठे थे, इन लोगों ने क्या कर लिया।’

बद्रीनाथ की बात का जवाब शिवदत्त ने कुछ न दे कर कहा - ‘अच्छा कल हम देख लेंगे।’
Like Reply


Messages In This Thread
RE: चन्द्रकान्ता - देवकीनन्दन खत्री रचित उपन्यास - by usaiha2 - 25-07-2021, 05:44 PM



Users browsing this thread: 7 Guest(s)