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चन्द्रकान्ता - देवकीनन्दन खत्री रचित उपन्यास
#32
बयान - 22

सुबह होते ही कुमार नहा-धो कर जंगी कपड़े पहन हथियारों को बदन पर सजा माँ-बाप से विदा होने के लिए महल में गए। रानी से महाराज ने रात ही सब हाल कह दिया था। वे इनका फौजी ठाठ देख कर दिल में बहुत खुश हुईं। कुमार ने दंडवत कर विदा माँगी, रानी ने आँसू भर कर कुमार को गले से लगाया और पीठ पर हाथ फेर कर कहा - ‘बेटा जाओ, वीर पुरुषों में नाम करो, क्षत्रिय का कुल नाम रख फतह का डंका बजाओ। शूरवीरों का धर्म है कि लड़ाई के वक्त माँ-बाप, ऐश, आराम किसी की मुहब्बत नहीं करते, सो तुम भी जाओ, ईश्वर करे लड़ाई में बैरी तुम्हारी पीठ न देखे।’

माँ-बाप से विदा हो कर कुमार बाहर आए, दीवान हरदयालसिंह को मुस्तैद देखा, आप भी एक घोड़े पर सवार हो रवाना हुए। पीछे-पीछे फौज भी समुद्र की तरह लहर मारती चली। जब विजयगढ़ के करीब पहुँचे तो कुमार घोड़े पर से उतर पड़े और हरदयालसिंह से बोले - ‘मेरी राय है कि इसी जंगल में अपनी फौज को उतारूँ और सब इंतजाम कर लूँ तो शहर में चलूँ।’

हरदयालसिंह ने कहा - ‘आपकी राय बहुत अच्छी है। मैं भी पहले से चल कर आपके के आने की खबर महाराज को देता हूँ फिर लौट कर आपको साथ ले कर चलूँगा।’

कुमार ने कहा - ‘अच्छा जाइए।’

हरदयालसिंह विजयगढ़ पहुँचे, कुमार के आने की खबर देने के लिए महाराज के पास गए और खुलासा हाल बयान करके बोले - ‘कुमार सेना सहित यहाँ से कोस भर पर उतरे हैं।’

यह सुन महाराज बहुत खुश हुए और बोले - ‘फौज के वास्ते वह मुकाम बहुत अच्छा है, मगर वीरेंद्रसिंह को यहाँ ले आना चाहिए। तुम यहाँ के सब दरबारियों को ले जा कर इस्तकबाल करो और कुमार को यहाँ ले आओ।’

बमूजिब हुक्म के हरदयालसिंह बहुत से सरदारों को ले कर रवाना हुए। यह खबर तेजसिंह को भी हुई, सुनते ही वीरेंद्रसिंह के पास पहुँचे और दूर ही से बोले - ‘मुबारक हो।’ तेजसिंह को देख कर कुमार बहुत खुश हुए और हाल-चाल पूछा।

तेजसिंह ने कहा - ‘जो कुछ है सब अच्छा है, जो बाकी है अब बन जाएगा।’ यह कह तेजसिंह लश्कर के इंतजाम में लगे। इतने में दीवान हरदयालसिंह मय दरबारियों के आ पहुँचे और महाराज ने जो हुक्म दिया था, कहा। कुमार ने मंजूर किया और सज-सजा कर घोड़े पर सवार हो एक सौ फौजी सिपाही साथ ले महाराज से मुलाकात को विजयगढ़ चले। शहर भर में मशहूर हो गया कि महाराज की मदद को कुँवर वीरेंद्रसिंह आए हैं, इस वक्त किले में जाएँगे। सवारी देखने के लिए अपने-अपने मकानों पर औरत-मर्द पहले ही से बैठ गए और सड़कों पर भी बड़ी भीड़ इकट्ठी हो गई। सभी की आँखें उत्तर की तरफ सवारों के इंतजार में थीं। यह खबर महाराज को भी पहुँची कि कुमार चले आ रहे हैं। उन्होंनें महल में जा कर महारानी से सब हाल कहा जिसको सुन कर वे प्रसन्न हुईं और बहुत-सी औरतों के साथ जिनमें चंद्रकांता और चपला भी थीं, सवारी का तमाशा देखने के लिए ऊँची अटारी पर जा बैठीं। महाराज भी सवारी का तमाशा देखने के लिए दीवानखाने की छत पर जा बैठे। थोड़ी ही देर बाद उत्तर की तरफ से कुछ धूल उड़त दिखाई दी और नजदीक आने पर देखा कि थोड़ी-सी फौज (सवारों की) चली आ रही है। कुछ अरसा गुजरा तो साफ दिखाई देने लगा।

कुछ सवार, जो धीरे-धीरे महल की तरफ आ रहे थे, फौलादी जिर्र (कवच) पहने हुए थे जिस पर डूबते हुए सूर्य की किरणें पड़ने से अजब चमक-दमक मालूम होती थी। हाथ में झंडेदार नेजा लिए, ढाल-तलवार लगाए जवानी की उमंग में अकड़े हुए बहुत ही भले मालूम पड़ते थे। उनके आगे-आगे एक खूबसूरत, ताकतवर और जेवरों से सजे हुए घोड़े पर जिस पर जड़ाऊ जीन कसी हुई थी और अठखेलियाँ कर रहा था, पर कुँवर वीरेंद्रसिंह सवार थे। सिर पर फौलादी टोप जिसमें एक हुमा (एक कल्पित पक्षी) के पर की लंबी कलगी लगी थी, बदन में बेशकीमती लिबास के ऊपर फौलादी जेर्र पहने हुए थे। गोरा रंग, बड़ी-बड़ी आँखें, गालों पर सुर्खी छा रही थी। बड़े-बड़े पन्ने के दानों का कंठा और भुजबंद भी पन्ने का था जिसकी चमक चेहरे पर पड़ कर खूबसूरती को दूना कर रही थी। कमर में जड़ाऊ पेटी जिसमें बेशकीमती हीरा जड़ा हुआ था, और पिंडली तक का जूता जिस पर कौदैये मोती का काम था, चमड़ा नजर नहीं आता था, पहने हुए थे। ढाल, तलवार, खंजर, तीर-कमान लगाए एक गुर्ज करबूस में लटकता हुआ, हाथ में नेजा लिए घोड़ा कुदाते चले आ रहे थे। ताकत, जवाँमर्दी, दिलेरी, और रोआब उनके चेहरे से ही झलकता था, दोस्तों के दिलों में मुहब्बत और दुश्मनों के दिलों में खौफ पैदा होता था। सबसे ज्यादा लुत्फ तो यह था कि जो सौ सवार संग में चले आ रहे थे वे सब भी उन्हीं के हमसिन थे। शहर में भीड़ लग गई, जिसकी निगाह कुमार पर पड़ती थी आँखों में चकाचौंध-सी आ जाती थी। महारानी ने, जो वीरेंद्रसिंह को बहुत दिनों पर इस ठाठ और रोआब से आते देखा, सौगुनी मुहब्बत आगे से ज्यादा बढ़ गई। मुँह से निकल पड़ा - ‘अगर चंद्रकांता के लायक वर है तो सिर्फ वीरेंद्र। चाहे जो हो, मैं तो इसी को दामाद बनाऊँगी।’ चंद्रकांता और चपला भी दूसरी खिड़की से देख रही थीं। चपला ने टेढ़ी निगाहों से कुमारी की तरफ देखा। वह शर्मा गई, दिल हाथ से जाता रहा, कुमार की तस्वीर आँखों में समा गई, उम्मीद हुई कि अब पास से देखूँगी। उधर महाराज की टकटकी बँध गई।

इतने में कुमार किले के नीचे आ पहुँचे। महाराज से न रहा गया, खुद उतर आए और जब तक वे किले के अंदर आएँ महाराज भी वहाँ पहुँच गए। वीरेंद्रसिंह ने महाराज को देख कर पैर छुए, उन्होंने उठा कर छाती से लगा लिया और हाथ पकड़े सीधे महल में ले गए। महारानी उन दोनों को आते देख आगे तक बढ़ आईं। कुमार ने चरण छुए, महारानी की आँखों में प्रेम का जल भर आया, बड़ी खुशी से कुमार को बैठने के लिए कहा, महाराज भी बैठ गए। बाएँ तरफ महारानी और दाहिनी तरफ कुमार थे, चारों तरफ लौंडियों की भीड़ थी जो अच्छे-अच्छे गहने और कपड़े पहने खड़ी थीं। कुमार की नीची निगाहें चारों तरफ घूमने लगी मानो किसी को ढूँढ़ रही हों। चंद्रकांता भी किवाड़ की आड़ में खड़ी उनको देख रही थी, मिलने के लिए तबीयत घबरा रही थी मगर क्या करे, लाचार थी। थोड़ी देर तक महाराज और कुमार महल में रहे, इसके बाद उठे और कुमार को साथ लिए हुए दीवानखाने में पहुँचे। अपने खास आरामगाह के पास वाला एक सुंदर कमरा उनके लिए मुकर्रर कर दिया। महाराज से विदा हो कर कुमार अपने कमरे में गए। तेजसिंह भी पहुँचे, कुछ देर चुहल में गुजरी, चंद्रकांता को महल में न देखने से इनकी तबीयत उदास थी, सोचते थे कि कैसे मुलाकात हो। इसी सोच में आँख लग गई।

सुबह जब महाराज दरबार में गए, वीरेंद्रसिंह स्नान-पूजा से छुट्टी पा दरबारी पोशाक पहने, कलंगी सरपेंच समेत सिर पर रख, तेजसिंह को साथ ले दरबार में गए। महाराज ने अपने सिंहासन के बगल में एक जड़ाऊ कुर्सी पर कुमार को बैठाया। हरदयालसिंह ने महाराज की चिट्ठी का जवाब पेश किया जो राजा सुरेंद्रसिंह ने लिखा था। उसको पढ़ कर महाराज बहुत खुश हुए। थोड़ी देर बाद दीवान साहब को हुक्म दिया कि कुमार की फौज में हमारी तरफ से बाजार लगाया जाए और गल्ले वगैरह का पूरा इंतजाम किया जाए, किसी को किसी तरह की तकलीफ न हो। कुमार ने अर्ज किया - ‘महाराज, सामान सब साथ आया है।’

महाराज ने कहा - ‘क्या तुमने इस राज्य को दूसरे का समझा है। सामान आया है तो क्या हुआ, वह भी जब जरूरत होगी काम आएगा। अब हम कुल फौज का इंतजाम तुम्हारे सुपुर्द करते हैं, जैसा मुनासिब समझो बंदोबस्त और इंतजाम करो।’

कुमार ने तेजसिंह की तरफ देख कर कहा - ‘तुम जाओ। मेरी फौज के तीन हिस्से करके दो-दो हजार विजयगढ़ के दोनों तरफ भेजो और हजार फौज के दस टुकड़े करके इधर-उधर पाँच-पाँच कोस तक फैला दो और खेमे वगैरह का पूरा बंदोबस्त कर दो। जासूसों को चारों तरफ रवाना करो। बाकी महाराज की फौज की कल कवायद देख कर जैसा होगा इंतजाम करेंगे।’ हुक्म पाते ही तेजसिंह रवाना हुए।

इस इंतजाम और हमदर्दी को देख कर महाराज को और भी तसल्ली हुई। हरदयालसिंह को हुक्म दिया कि फौज में मुनादी करा दो कि कल कवायद होगी। इतने में महाराज के जासूसों ने आ कर अदब से सलाम कर खबर दी कि शिवदत्तसिंह अपनी तीस हजार फौज ले कर सरकार से मुकाबला करने के लिए रवाना हो चुका है, दो-तीन दिन तक नजदीक आ जाएगा।

कुमार ने कहा - ‘कोई हर्ज नहीं, समझ लेंगे, तुम फिर अपने काम पर जाओ।’

दूसरे दिन महाराज जयसिंह और कुमार एक हाथी पर बैठ कर फौज की कवायद देखने गए। हरदयालसिंह ने *ों को बहुत कम कर दिया था तो भी एक हजार * रह गए थे। कवायद देख कुमार बहुत खुश हुए मगर *ों की सूरत देख त्योरी चढ़ गई। कुमार की सूरत से महाराज समझ गए और धीरे से पूछा - ‘इन लोगों को जवाब दे देना चाहिए?’

कुमार ने कहा - ‘नहीं, निकाल देने से ये लोग दुश्मन के साथ हो जाएँगे। मेरी समझ में बेहतर होगा कि दुश्मन को रोकने के लिए पहले इन्हीं लोगों को भेजा जाए। इनके पीछे तोपखाना और थोड़ी फौज हमारी रहेगी, वे लोग इन लोगों की नीयत खराब देखने या भागने का इरादा मालूम होने पर पीछे से तोप मार कर इन सभी की सफाई कर डालेंगे। ऐसा खौफ रहने से ये लोग एक दफा तो खूब लड़ जाएँगे, मुफ्त मारे जाने से लड़ कर मरना बेहतर समझेंगे।’

इस राय को महाराज ने बहुत पसंद किया और दिल में कुमार की अक्ल की तारीफ करने लगे।

जब महाराज फिरे तो कुमार ने अर्ज किया - ‘मेरा जी शिकार खेलने को चाहता है, अगर इजाजत हो तो जाऊँ?

महाराज ने कहा - ‘अच्छा, दूर मत जाना और दिन रहते जल्दी लौट आना।’ यह कह कर हाथी बैठवाया। कुमार उतर पड़े और घोड़े पर सवार हुए। महाराज का इशारा पा दीवान हरदयालसिंह ने सौ सवार साथ कर दिए। कुमार शिकार के लिए रवाना हुए। थोड़ी देर बाद एक घने जंगल में पहुँच कर दो सांभर तीर से मार कर फिर और शिकार ढूँढ़ने लगे। इतने में तेजसिंह भी पहुँचे।

कुमार से पूछा - ‘क्या सब इंतजाम हो चुका जो तुम यहाँ चले आए?’

तेजसिंह ने कहा - ‘क्या आज ही हो जाएगा? कुछ आज हुआ कुछ कल दुरुस्त हो जाएगा। इस वक्त मेरे जी में आया कि चलें जरा उस तहखाने की सैर कर आएँ जिसमें अहमद को कैद किया है, इसलिए आपसे पूछने आया हूँ कि अगर इरादा हो तो आप भी चलिए।’

‘हाँ, मैं भी चलूँगा।’ कह कर कुमार ने उस तरफ घोड़ा फेरा। तेजसिंह भी घोड़े के साथ रवाना हुए। बाकी सभी को हुक्म दिया कि वापस जाएँ और दोनों सांभरों का जो शिकार किए हैं, उठवा ले जाएँ। थोड़ी देर में कुमार और तेजसिंह तहखाने के पास पहुँचे और अंदर घुसे। जब अँधेरा निकल गया और रोशनी आई तो सामने एक दरवाजा दिखाई देने लगा। कुमार घोड़े से उतर पड़े। अब तेजसिंह ने कुमार से पूछा - ‘भला यह कहिए कि आप यह दरवाजा खोल भी सकते हैं कि नहीं?’

कुमार ने कहा - ‘क्यों नहीं, इसमें क्या कारीगरी है?’ यह कह झट आगे बढ़ शेर के मुँह से जुबान बाहर निकाल ली, दरवाजा खुल गया।

तेजसिंह ने कहा - ‘याद तो है।’

कुमार ने कहा - ‘क्या मैं भूलने वाला हूँ।’ दोनों अंदर गए और सैर करते-करते चश्में के किनारे पहुँचे। देखा कि अहमद और भगवानदास एक चट्टान पर बैठे बातें कर रहे हैं, पैर में बेड़ी पड़ी है। कुमार को देख दोनों उठ खड़े हुए, झुक कर सलाम किया और बोले – “अब तो हम लोगों का कसूर माफ होना चाहिए।”

कुमार ने कहा - ‘हाँ थोड़े रोज और सब्र करो।’

कुछ देर तक वीरेंद्रसिंह और तेजसिंह टहलते और मेवों को तोड़ कर खाते रहे। इसके बाद तेजसिंह ने कहा - ‘अब चलना चाहिए। देर हो गई।’

कुमार ने कहा - ‘चलो।’ दोनों बाहर आए।

तेजसिंह ने कहा - ‘इस दरवाजे को आपने खोला है, आप ही बंद कीजिए।’ कुमार ने यह कह कर - अच्छा लो, हम ही बंद कर देते हैं।’ दरवाजा बंद कर दिया और घोड़े पर सवार हुए। जब विजयगढ़ के करीब पहुँचे तो तेजसिंह ने कहा - ‘अब आप जाइए, मैं जरा फौज की खबर लेता हुआ आता हूँ।’

कुमार ने कहा - ‘अच्छा जाओ।’ यह सुन तेजसिंह दूसरी तरफ चले गए और कुमार किले में चले आए, घोड़े से उतर कमरे में गए, आराम किया। थोड़ी रात बीते तेजसिंह कुमार के पास आए।

कुमार ने पूछा - ‘कहो, क्या हाल हैं?’

तेजसिंह ने कहा - ‘सब इंतजाम आपके हुक्म मुताबिक हो गया, आज दिनभर में एक घंटे की छुट्टी न मिली जो आपसे मुलाकात करता।’

यह सुन वीरेंद्रसिंह हँस पड़े और बोले - ‘दोपहर तक तो हमारे साथ रहे इस पर कहते हो कि मुलाकात न हुई।’ यह सुनते ही तेजसिंह चौंक पड़े और बोले - ‘आप क्या कहते हैं।’

कुमार ने कहा - ‘कहते क्या हैं, तुम मेरे साथ उस तहखाने में नहीं गए थे जहाँ अहमद और भगवानदत्त बंद हैं?’

अब तो तेजसिंह के चेहरे का रंग उड़ गया और कुमार का मुँह देखने लगे। तेजसिंह की यह हालत देख कर कुमार को भी ताज्जुब हुआ।

तेजसिंह ने कहा - ‘भला यह तो बताइए कि मैं आपसे कहाँ मिला था, कहाँ तक साथ गया और कब वापस आया?’ कुमार ने सब कुछ कह दिया।

तेजसिंह बोले – ‘बस, आपने चौका फेरा। अहमद और भगवानदत्त के निकल जाने का तो इतना गम नहीं है मगर दरवाजे का हाल दूसरे को मालूम हो गया इसका बड़ा अफसोस है।’

कुमार ने कहा - ‘तुम क्या कहते हो समझ में नहीं आता।’

तेजसिंह ने कहा - ‘ऐसा ही समझते तो धोखा ही क्यों खाते। तब न समझे तो अब समझिए, कि शिवदत्त के ऐयारों ने धोखा दिया और तहखाने का रास्ता देख लिया। जरूर यह काम बद्रीनाथ का है, दूसरे का नहीं, ज्योतिषी उसको रमल के जरिए से पता देता है।’

कुमार यह सुन दंग हो गए और अपनी गलती पर अफसोस करने लगे।

तेजसिंह ने कहा - ‘अब तो जो होना था हो गया, उसका अफसोस कहे का। मैं इस वक्त जाता हूँ, कैदी तो निकल गए होंगे मगर मैं जा कर ताले का बंदोबस्त करूँगा।’

कुमार ने पूछा - ‘ताले का बंदोबस्त क्या करोगे?’

तेजसिंह ने कहा - ‘उस फाटक में और भी दो ताले हैं जो इससे ज्यादा मजबूत हैं। उन्हें लगाने और बंद करने में बड़ी देर लगती है इसलिए उन्हें नहीं लगाता था मगर अब लगाऊँगा।’

कुमार ने कहा - ‘मुझे भी वह ताला दिखाओ।’ तेजसिंह ने कहा - ‘अभी नहीं, जब तक चुनारगढ़ पर फतह न पाएँगे न बताएँगे, नहीं तो फिर धोखा होगा।’

कुमार ने कहा - ‘अच्छा तुम्हारी मर्जी।’

तेजसिंह उसी वक्त तहखाने की तरफ रवाना हुए और सवेरा होने के पहले ही लौट आए। सुबह को जब कुमार सो कर उठे तो तेजसिंह से पूछा - ‘कहो तहखाने का क्या हाल है?’ उन्होंने जवाब दिया - ‘कैदी तो निकल गए मगर ताले का बंदोबस्त कर आया हूँ।’

नहा-धो कर कुछ खा कर कुमार को तेजसिंह दरबार ले गए। महाराज को सलाम करके दोनों आदमी अपनी-अपनी जगह बैठ गए। आज जासूसों ने खबर दी कि शिवदत्त की फौज और पास आ गई है, अब दस कोस पर है।

कुमार ने महाराज से अर्ज किया - ‘अब मौका आ गया है कि *ों की फौज दुश्मनों को रोकने के लिए आगे भेजी जाए।’ महाराज ने कहा - ‘अच्छा भेज दो।’

कुमार ने तेजसिंह से कहा - ‘अपना एक तोपखाना भी इस *ी फौज के पीछे रवाना करो।’ फिर कान में कहा – “अपने तोपखाने वालों को समझा देना कि जब फौज की नीयत खराब देखें तो जिंदा किसी को न जाने दें।”

तेजसिंह इंतजाम करने के लिए चले गए, हरदयालसिंह को भी साथ लेते गए। महाराज ने दरबार बर्खास्त किया और कुमार को साथ ले महल में पधारे। दोनों ने साथ ही भोजन किया, इसके बाद कुमार अपने कमरे में चले गए। छटपटाते रह गए मगर आज भी चंद्रकांता की सूरत न दिखी, लेकिन चंद्रकांता ने आड़ से इनको देख लिया।
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RE: चन्द्रकान्ता - देवकीनन्दन खत्री रचित उपन्यास - by usaiha2 - 25-07-2021, 05:03 PM



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