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चन्द्रकान्ता - देवकीनन्दन खत्री रचित उपन्यास
#28
बयान - 18

अब महाराज शिवदत्त की महफिल का हाल सुनिए। महाराज शिवदत्तसिंह महफिल में आ विराजे। रंभा के आने में देर हुई तो एक चोबदार को कहा कि जा कर उसको बुला लाएँ और चेतराम ब्राह्मण को तेजसिंह को लाने के लिए भेजा।

थोड़ी देर बाद चोबदार ने आ कर अर्ज किया कि महाराज, रंभा तो अपने डेरे पर नहीं है, कहीं चली गई।’ महाराज को बड़ा ताज्जुब हुआ क्योंकि उसको जी से चाहने लगे थे। दिल में रंभा के लिए अफसोस करने लगे और हुक्म दिया कि फौरन उसे तलाश करने के लिए आदमी भेजे जाएँ। इतने में चेतराम ने आ कर दूसरी खबर सुनाई कि कैदखाने में तेजसिंह नहीं है। अब तो महाराज के होश उड़ गए। सारी महफिल दंग हो गई कि अच्छी गाने वाली आई जो सभी को बेवकूफ बना कर चली गई।

घसीटासिंह और चुन्नीलाल ऐयार ने अर्ज किया - ‘महाराज बेशक वह कोई ऐयार था जो इस तरह आ कर तेजसिंह को छुड़ा ले गया।’

महाराज ने कहा - ‘ठीक है, मगर काम उसने काबिल इनाम के किया। ऐयारों ने भी तो उसका गाना सुना था, महफिल में मौजूद ही थे, उन लोगों की अक्ल पर क्या पत्थर पड़ गए थे कि उसको न पहचाना। लानत है तुम लोगों के ऐयार कहलाने पर।’ यह कह महाराज गम और गुस्से से भरे हुए उठ कर महल में चले गए।

महफिल में जो लोग बैठे थे उन लोगों ने अपने घर का रास्ता लिया। तमाम शहर में यह बात फैल गई, जिधर देखिए यही चर्चा थी।

दूसरे दिन जब गुस्से में भरे हुए महाराज दरबार में आए तो एक चोबदार ने अर्ज किया - ‘महाराज, वह जो गाने वाली आई थी असल में वह औरत ही थी। वह चेतराम मिश्र की सूरत बना कर तेजसिंह को छुड़ा ले गई। मैंने अभी उन दोनों को उस सलई वाले जंगल में देखा है।’

यह सुन महाराज को और भी ताज्जुब हुआ, हुक्म दिया कि बहुत-से आदमी जाएँ और उनको पकड़ लावें, पर चोबदार ने अर्ज किया - ‘महाराज इस तरह वे गिरफ्तार न होंगे, भाग जाएँगे, हाँ घसीटासिंह और चुन्नीलाल मेरे साथ चलें तो मैं दूर से इन लोगों को दिखला दूँ, ये लोग कोई चालाकी करके उन्हें पकड़ लें।’

महाराज ने इस तरकीब को पसंद करके दोनों ऐयारों को चोबदार के साथ जाने का हुक्म दिया। चोबदार ने उन दोनों को लिए हुए उस जगह पहुँचा जिस जगह उसने तेजसिंह का निशान देखा था, पर देखा कि वहाँ कोई नहीं है।

तब घसीटासिंह ने पूछा - ‘अब किधर देखें?’

उसने कहा - ‘क्या यह जरूरी है कि वे तब से अब तक इसी पेड़ के नीचे बैठे रहें? इधर-उधर देखिए, कहीं होंगे।’

यह सुन घसीटासिंह ने कहा - ‘अच्छा चलो, तुम ही आगे चलो।

वे लोग इधर-उधर ढूँढ़ने लगे, इसी समय एक अहीरिन सिर पर खचिए में दूध लिए आती नजर पड़ी। चोबदार ने उसको अपने पास बुला कर पूछा - ‘कि तूने इस जगह कहीं एक औरत और एक मर्द को देखा है?’

उसने कहा - ‘हाँ-हाँ, उस जंगल में मेरा अडार है, बहुत-सी गाय-भैंसी मेरी वहाँ रहती हैं, अभी मैंने उन दोनों के पास दो पैसे का दूध बेचा है और बाकी दूध ले कर शहर बेचने जा रही हूँ।’ यह सुन कर चोबदार बतौर इनाम के चार पैसे निकाल उसको देने लगा, मगर उसने इनकार किया और कहा कि मैं तो सेंत के पैसे नहीं लेती, हाँ, चार पैसे का दूध आप लोग ले कर पी लें तो मैं शहर जाने से बचूँ और आपका अहसान मानूँ।’

चोबदार ने कहा - ‘क्या हर्ज है, तू दूध ही दे दे।’ बस अहीरन ने खाँचा रख दिया और दूध देने लगी। चोबदार ने उन दोनों ऐयारों से कहा - ‘आइए, आप भी लीजिए।’ उन दोनों ऐयारों ने कहा - ‘हमारा जी नहीं चाहता।’ वह बोली - ‘अच्छा आपकी खुशी।’ चोबदार ने दूध पिया और तब फिर दोनों ऐयारों से कहा - ‘वाह। क्या दूध है। शहर में तो रोज आप पीते ही हैं, भला आज इसको भी तो पी कर मजा देखिए।’ उसके जिद्द करने पर दोनों ऐयारों ने भी दूध पिया और चार पैसे दूध वाली को दिए।

अब वे तीनों तेजसिंह को ढूँढ़ने चले, थोड़ी दूर जा कर चोबदार ने कहा - ‘न जाने क्यों मेरा सिर घूमता है।’ घसीटासिंह बोले - ‘मेरी भी वही दशा है।’ चुन्नीलाल तो कुछ कहना ही चाहते थे कि गिर पड़े। इसके बाद चोबदार और घसीटासिंह भी जमीन पर लेट गए। दूध बेचने वाली बहुत दूर नहीं गई थी, उन तीनों को गिरते देख दौड़ती हुई पास आई और लखलखा सुँघा कर चोबदार को होशियार किया। वह चोबदार तेजसिंह थे, जब होश में आए अपनी असली सूरत बना ली, इसके बाद दोनों की मुश्कें बाँध गठरी कस एक चपला को और दूसरे को तेजसिंह ने पीठ पर लादा और नौगढ़ का रास्ता लिया।
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RE: चन्द्रकान्ता - देवकीनन्दन खत्री रचित उपन्यास - by usaiha2 - 25-07-2021, 05:00 PM



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