24-07-2021, 06:45 PM
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" सावधान हर्षपाल !!! तुम्हारी मृत्यु में अभी समय है ! ".
अवंतिका और विजयवर्मन कि गर्दन पर अपनी तलवार से वार करने ही वाले थें हर्षपाल, कि एक अत्यंत आक्रामक आधिकारिक आदेश ने उन्हें ठिठक कर रुकने पर विवश कर दिया. इतने सशक्त स्वर में चेतावनी देने वाले का चेहरा देखने के लिए हर्षपाल ने अपनी गर्दन कक्ष के द्वार कि ओर घुमाई ही थी, कि उन्हें रोकने हेतु किये गये अगले प्रयास के तहत एक तीर तेज़ गति से आकर उनके हाथों में लगा, फलस्वरुप उनके हाथ से उनकी तलवार छिटक कर उनसे दूर नीचे ज़मीन पर जा गिरी.
वाण चलाने वाले ने इतनी निपुणता से वार किया था कि तीर हर्षपाल के दोनों हथेलीयों को भेद कर बीच में ही अटक कर थम गया था, मानो तीरंदाज़ का उद्देश्य ही क्रूर हर्षपाल के दोनों हाथ बांधना हो !
अपने प्राणो कि आहुति देने के लिए बैठे अवंतिका और विजयवर्मन ने अचंभित होकर सिर उठाया और द्वार कि ओर देखने लगें. सामने से किसी अज्ञात स्रोत से छूटते हुये हवा में एक साथ अनगिनत वाण उनकी ओर बढ़ें तो उन्होंने तुरंत अपने सिर नीचे झुका लियें. अपने पीछे खड़े सैनिकों, जिनकी गिरफ्त में वो दोनों अब तक थें, के तलवारों कि खनक और फिर तलवारों के नीचे ज़मीन पर गिरने का स्वर अपने कानों से सुनते ही दोनों समझ गएँ कि वो सारे सैनिक उन तीरों से धराशायी होकर गिर मर चुके हैं !
ऐसा ही कुछ चित्रांगदा को पकड़ रखे सैनिकों के साथ भी हुआ, ज़हरीले तीरों ने पलक झपकते ही उन्हें नर्कलोक में धकेल दिया था. चित्रांगदा अब मुक्त थी !
बंधनमुक्त होते ही चित्रांगदा कक्ष में हो रहे तीरों के बौछार के बीच से भागते हुये अवंतिका और विजयवर्मन के पास पहुँची और उन्हें अपने हाथों का सहारा देकर उठाकर खड़ा किया. तीनों अब तक इतना तो समझ ही चुके थें कि तीरों कि ये बारिश उन्हें नुकसान पहुँचाने के लिए नहीं थी !
बेबस हर्षपाल इधर उधर मुड़कर चारों तरफ अपने आतंकित सैनिकों को उस कक्ष के अंदर ही अपने प्राण बचाने हेतु भागते और फिर विवश होकर मरते हुये देखते रहें !
" कौन है ये दुस्साहसी ??? सामने क्यूँ नहीं आता ??? ". भय मिश्रीत क्रोध से तिलमिलाये हर्षपाल ज़ोर से चिल्लाते हुये बोलें.
कक्ष में ना जाने कहाँ से अज्ञात सैनिकों का एक पूरा गिरोह घुस आया था, किसी के हाथ में तलवार था, तो किसी के हाथ में भाला, और तीर धनुष. हर्षपाल के मरे पड़े सैनिकों के अलावा जितने भी बचे खुचे सैनिक वहाँ मौजूद थें, उस हरेक सैनिक के पीछे करीब दो से तीन ये अज्ञात सैनिक आ धमकें. कक्ष में अभी अभी जो कुछ भी हुआ था, उसके भय और आतंक से ग्रसित हर्षपाल के इन सैनिकों ने मरने से बेहतर अपने हथियार डालने का निर्णय उचित समझा !
" भाग क्यूँ रहे हो मूर्खो ??? शत्रु का सामना करो... ". हर्षपाल फिर से चिल्लाये, और अपने आस पास दौड़ते भागते सैनिकों को जबरन पकड़ पकड़ कर सामने द्वार कि ओर धकेलने लगें जिस ओर से ये अज्ञात मुसीबत आ धमकी थी . परन्तु फिर वो अपने ही ऊपर मानो लज्जित होकर रुक गएँ , क्यूंकि चारों ओर नज़र दौड़ाकर देखने पर उन्हें पता चला कि वहाँ अब उनके ऐसे सैनिक बचे ही नहीं थें जो कि लड़ सकें. उनके सैनिक या तो ज़मीन पर गिरे मरे पड़े थें, या फिर भय से कांपते खड़े हथियार डाले अपने प्राणो कि रक्षा हेतु प्राथना कर रहें थें !
सैनिकों का कोलाहल और वाणों कि वर्षा जब थोड़ी शांत हुई तो अवंतिका, विजयवर्मन और चित्रांगदा ने देखा कि कक्ष में वो अज्ञात सैनिक अब पूरी तरह से भर चुके थें.
क्रोध से आगबबूला हुये हर्षपाल ने अपने दोनों हाथों को इतने ज़ोर से झटका कि हथेलीयों में चुभा हुआ तीर दो टुकड़े होकर नीचे ज़मीन पर छिटककर गिर पड़ा, और उसके दोनों हाथ आज़ाद हो गएँ. वो ज़ोर से गुर्राते हुए उस अज्ञात सैनिकों कि टुकड़ी कि ओर निहत्था ही अकेले लड़ने के लिए दौड़ पड़ा, परन्तु तभी ना जाने कहाँ से सैनिकों कि भीड़ में से एक वाण तीव्र गति से लहराते हुये आकर उसके दाएं जंघा पर लगा, और वो आधे रास्ते ही लड़खड़ाकर अपने घुटनों के बल ज़मीन पर गिरकर पीड़ा से चिल्लाने लगा !!!
अज्ञात सैनिकों का झुंड तुरंत किनारे किनारे होकर सिर झुकाकर खड़ा हो गया और बीच से किसी के आगमन के लिए रास्ता बना दिया !
अस्त्र शस्त्र से सुसज्जित, हाथ में धनुष थामे, पीठ पर वाणों से लदा तूनीर लटकाये, छाती पर लोहे का कवच और सिर पर राजसी सोने का मुकुट पहने एक वृद्ध, परन्तु ह्रष्ट पुष्ट तथा बलशाली दिखने वाला शख्स सैनिकों के बनाये बीच के मार्ग से अंदर कक्ष में दाखिल हुआ, और अंदर आते ही रुककर सबसे पहले अपनी पैनी नज़र वहाँ मौजूद हरेक व्यक्तिविशेष पर दौड़ाई !!!
उस शख्स को सामने खड़ा देख, अवंतिका, विजयवर्मन और चित्रांगदा ने अविश्वास, मगर प्रसन्न आँखों से एक दूसरे को देखा !
" कौन है तू मूर्ख ??? ". अपनी जंघा में धसे हुये वाण को अपने दोनों घायल हाथों से निकालने का असफल प्रयास करते हुये हर्षपाल ने अपनी गर्दन ऊपर उठाकर उस व्यक्ति को देखते हुये चिल्लाकर पूछा. " क्या तू इस बात से अवगत नहीं कि हमने अभी अभी ये राज्य जीता है ??? हम यहाँ के सम्राट हैं !!! ".
" अशिष्ट हर्षपाल... तनिक संभल कर ! तुम्हारी अभद्रता ही कहीं तुम्हारी मृत्यु का कारण ना बन जाये ! ". एक अन्य व्यक्ति ने कक्ष में प्रवेश करते हुये कहा. " तुम कुम्भिक राज्य के महाराजाधिराज ऋषभनंदन के सामने हो !!! ".
" रहने दो सेनापति कीर्तिमान... जो व्यक्ति आजीवन शिष्टाचार ना सिख पाया हो, उसे उसकी मृत्यु के समय शिक्षित करना मूर्खता है ! ". उस वृद्ध व्यक्ति, राजा ऋषभनंदन ने अपना हाथ उठाकर अपने सेनापति कीर्तिमान को रोकते हुये कहा.
" क्षमा महाराज, मैं तो केवल ये चाहता था कि इस अधम को ज्ञात हो जाये कि इसकी मृत्यु किसके हाथों होने वाली है ! ". सेनापति कीर्तिमान ने सिर झुकाकर कहा.
राजा ऋषभनंदन अपने सेनापति को देखकर मुस्कुरायें, और फिर हर्षपाल कि ओर देखकर बोलें.
" युद्ध में जीत तब तक ही बनी रहती है हर्षपाल, जब तक कि तुम्हें मारने वाला कोई जीवित ना बचा हो !!! ".
सेनापति कीर्तिमान ने अपने सैनिकों को संकेत दिया, तो चार सैनिक भीड़ से निकल आएं, और जाकर हर्षपाल को पकड़कर वहीँ ज़मीन पर उसके घुटनों के बल बैठा दिया. कुछ भी समझ पाने में असमर्थ हर्षपाल ने पहले उन सैनिकों को देखा, और फिर राजा ऋषभनंदन और सेनापति कीर्तिमान को, तो सेनापति कीर्तिमान ने उसे बताया.
" हम यहाँ महाराज नंदवर्मन कि सहायता हेतु आएं हैं. हमारी सेना ने तुम्हारी सेना को रणभूमि में पराजित कर दिया है हर्षपाल, और इस राजमहल के अंदर भी अब तुम्हारे सैनिक नहीं बचें रहें. अब तुम हमारे बंदी हो... "
" पिताश्री !!! ". चित्रांगदा दौड़कर आई, और अपने पिता, राजा ऋषभनंदन से लिपट पड़ी और रोने लगी.
" मुझे क्षमा करना पुत्री... हमें आने में विलम्ब हुआ ! ". राजा ऋषभनंदन ने अपनी पुत्री चित्रांगदा को अपने सीने से लगा लिया.
अवंतिका और विजयवर्मन ने आकर राजा ऋषभनंदन के पैर छूकर आशीर्वाद लिया तो उन्होंने चित्रांगदा को छोड़ उन दोनों को अपने दोनों हाथों से पकड़कर उठाया और गले लगा कर बोलें.
" आयुष्मानभव: !!! आप दोनों ने बहुत कष्ट सहें हैं... अब और नहीं ! ".
" परन्तु आप हमारी सहायता हेतु यहाँ पहुँचे कैसे महाराज ??? ". अवंतिका पूछ बैठी.
" गुप्तचर... ". राजा ऋषभनंदन ने एक शब्द में उत्तर दिया.
" हम आपके आभारी हैं राजन. इसमें कोई संदेह नहीं कि आपकी गुप्तचर प्रणाली अत्यंत प्रवीण है, जो इतने कम समय में उन्होंने आप तक ये समाचार पहुँचाया, और आप हमारी सहायता को प्रस्तुत हुये ! ". विजयवर्मन ने विनम्रता से सिर झुकाकर कहा.
" नहीं नहीं राजकुमार... ". राजा ऋषभनंदन ने कहा, और फिर चित्रांगदा कि ओर संकेत करके मुस्कुराते हुये बोलें. " वो तो हमारी पुत्री का कोई घुड़सवार गुप्तचर था जो हमारे पास ये अशुभ समाचार लेकर आया था !!! ".
ये कथन सुनकर अवंतिका और विजयवर्मन कि आँखे बड़ी हो गईं, और उन्होंने घूमकर चित्रांगदा को देखा, तो चित्रांगदा हल्के से मुस्कुराकर बोली.
" मुझे राजनीती कि समझ नहीं... पर इस राजमहल में रहकर कुटिलता अवश्य ही सिख गई हूँ !!! ".
" आपका गुप्तचर ??? ". विजयवर्मन ने आश्चर्यचकित हो कहा. " और कहाँ मैं आपको गुप्तचर प्रणाली के विषय में शिक्षा दे रहा था भाभी !!!
अवंतिका और चित्रांगदा दोनों एक साथ हँस पड़ी.
तभी राजा ऋषभनंदन कि नज़र पास ही पड़े देववर्मन के शव पर गई, तो उनके कुछ पूछने से पहले ही चित्रांगदा उत्तर में बोली.
" घरेलु क्लेश कि वजह से देववर्मन राजद्रोही निकलेंगे ऐसा हममें से किसी ने भी नहीं सोचा था पिताश्री. उन्हें उनके किये कि फलप्राप्ति हो गई... ".
" आपलोग अब इस रक्तरंजीत स्थान से जाइये... ". राजा ऋषभनंदन ने चित्रांगदा के सिर पर हाथ फेरते हुये अवंतिका और विजयवर्मन को देखते हुये कहा.
" पिताश्री और माताश्री तो ठीक हैं ना ? ". अवंतिका ने चिंतित स्वर में पूछा.
" उन्हें हमारी सेना ने सकुशल बंदीगृह से निकाल लिया है राजकुमारी... ". राजा ऋषभनंदन ने आस्वस्त किया.
" फिर तो केवल एक ही कार्य पूर्ण करना बाकि रह गया है... ". चित्रांगदा ने अपने आप में कुछ सोचते हुये धीरे से कहा, और पीछे मुड़ी.
राजा ऋषभनंदन, अवंतिका, और विजयवर्मन उन्हें प्रश्नवाचक नज़रों से देखते रहें.
पीछे जाकर चित्रांगदा ने ज़मीन पर गिरा हुआ अपना चाकू उठाया, और धीमे कदमो से चलकर हर्षपाल के समीप पहुँची, जिसे अभी भी सैनिकों ने धर दबोच रखा था. अपने पास चित्रांगदा को खड़ा पाकर हर्षपाल ने गर्दन उठाकर उन्हें देखा, और भद्दी हँसी हँसते हुये बोला.
" हम अपनी योजना पर अभी भी अडिग हैं चित्रांगदा ! परन्तु आप जैसी तेजस्वीनी स्त्री का स्थान हमारे नगरवेश्यालय में नहीं, ये बात हम समझ चुके हैं. आप चाहें तो स्वेक्षा से हमारी दासी बनकर रह सकतीं हैं... हमारी पत्नियों को भी इससे प्रसन्नता ही होगी !!! ".
बिना एक शब्द भी कहे चित्रांगदा ने अपने चाकू कि नोक हर्षपाल कि ठुड्डी पर गड़ा कर उसे उठने का संकेत दिया, तो सैनिकों ने उसे खींचकर खड़ा कर दिया.
" स्त्रीयों के लिए तो कई सारे विकल्प हैं ... परन्तु पुरुषों का क्या ??? ". चित्रांगदा अपना चेहरा हर्षपाल के चेहरे के एकदम समीप लेजाकर बोली. " आप पुरुष हैं, अन्यथा हम आपको अपने नगर के वेश्यालय में अवश्य ही स्थान देतें. तुम्हारे पास विकल्प कम हैं हर्षपाल !!! ".
अपनी अटल नियति समीप देख हर्षपाल के कटे हुये चेहरे पर एक तीरछी मुस्कुराहट खेल गई. उसने एक बार भी चित्रांगदा कि आँखों में देखना बंद नहीं किया. हर्षपाल क्रूर और दुराचारी सही, परन्तु इतना तो तय था कि वो डरपोक नहीं था, उसे मृत्यु का भय भी नहीं था !
" और वैसे भी तुम्हारा चेहरा अर्ध विकृत हो चुका है... ". चित्रांगदा ने कहा. " आओ... इसकी विकृति पूर्ण कर देती हूँ !!! ".
चित्रांगदा ने हर्षपाल कि ठुड्डी के नीचले हिस्से में गर्दन में चाकू का नुकीला मुँह अंदर घोप दिया. भयहीन हर्षपाल चित्रांगदा कि आँखों में तब तक देखकर मुस्कुराता रहा, जब तक कि चाकू उसके चेहरे के भीतर भीतर चीरा लगाते हुये उसके सिर को चीरकर सिर से बाहर ना निकल गया. हर्षपाल कि आँखे बंद हो गई, तो चित्रांगदा ने अपना दूसरा हाथ उसकी छाती पर टिकाकर, अपनी पूरी शक्ति लगाकर चाकू को हर्षपाल के चेहरे के अगले हिस्से से खींचकर बाहर निकाल लिया, हर्षपाल का चेहरा बीच से अगल बगल में दो हिस्सों में कट कर लटक गया, और उसकी जीवनलीला वहीँ समाप्त हो गई !!!
सैनिकों ने हर्षपाल के भारी हो चुके शरीर को वहीँ ज़मीन पर नीचे गिर जाने दिया !
वापस राजा ऋषभनंदन, अवंतिका, और विजयवर्मन के पास आकर चित्रांगदा ने रक्त से सना अपना चाकू अपनी कमर से लिपटे घाघरे में खोस लिया और बोली.
" अब हम चलने के लिए प्रस्तुत हैं ... ".
विजयवर्मन ने एक नज़र अपनी भाभी चित्रांगदा कि कमर में खोसी हुई चाकू पर डाली, फिर उनके चेहरे को देखा, मन ही मन कुछ याद करके मुस्कुरायें, और उन्हें और अवंतिका को लेकर राजा ऋषभनंदन कि आज्ञा लेने के उपरांत कक्ष से बाहर निकल गएँ !
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" सावधान हर्षपाल !!! तुम्हारी मृत्यु में अभी समय है ! ".
अवंतिका और विजयवर्मन कि गर्दन पर अपनी तलवार से वार करने ही वाले थें हर्षपाल, कि एक अत्यंत आक्रामक आधिकारिक आदेश ने उन्हें ठिठक कर रुकने पर विवश कर दिया. इतने सशक्त स्वर में चेतावनी देने वाले का चेहरा देखने के लिए हर्षपाल ने अपनी गर्दन कक्ष के द्वार कि ओर घुमाई ही थी, कि उन्हें रोकने हेतु किये गये अगले प्रयास के तहत एक तीर तेज़ गति से आकर उनके हाथों में लगा, फलस्वरुप उनके हाथ से उनकी तलवार छिटक कर उनसे दूर नीचे ज़मीन पर जा गिरी.
वाण चलाने वाले ने इतनी निपुणता से वार किया था कि तीर हर्षपाल के दोनों हथेलीयों को भेद कर बीच में ही अटक कर थम गया था, मानो तीरंदाज़ का उद्देश्य ही क्रूर हर्षपाल के दोनों हाथ बांधना हो !
अपने प्राणो कि आहुति देने के लिए बैठे अवंतिका और विजयवर्मन ने अचंभित होकर सिर उठाया और द्वार कि ओर देखने लगें. सामने से किसी अज्ञात स्रोत से छूटते हुये हवा में एक साथ अनगिनत वाण उनकी ओर बढ़ें तो उन्होंने तुरंत अपने सिर नीचे झुका लियें. अपने पीछे खड़े सैनिकों, जिनकी गिरफ्त में वो दोनों अब तक थें, के तलवारों कि खनक और फिर तलवारों के नीचे ज़मीन पर गिरने का स्वर अपने कानों से सुनते ही दोनों समझ गएँ कि वो सारे सैनिक उन तीरों से धराशायी होकर गिर मर चुके हैं !
ऐसा ही कुछ चित्रांगदा को पकड़ रखे सैनिकों के साथ भी हुआ, ज़हरीले तीरों ने पलक झपकते ही उन्हें नर्कलोक में धकेल दिया था. चित्रांगदा अब मुक्त थी !
बंधनमुक्त होते ही चित्रांगदा कक्ष में हो रहे तीरों के बौछार के बीच से भागते हुये अवंतिका और विजयवर्मन के पास पहुँची और उन्हें अपने हाथों का सहारा देकर उठाकर खड़ा किया. तीनों अब तक इतना तो समझ ही चुके थें कि तीरों कि ये बारिश उन्हें नुकसान पहुँचाने के लिए नहीं थी !
बेबस हर्षपाल इधर उधर मुड़कर चारों तरफ अपने आतंकित सैनिकों को उस कक्ष के अंदर ही अपने प्राण बचाने हेतु भागते और फिर विवश होकर मरते हुये देखते रहें !
" कौन है ये दुस्साहसी ??? सामने क्यूँ नहीं आता ??? ". भय मिश्रीत क्रोध से तिलमिलाये हर्षपाल ज़ोर से चिल्लाते हुये बोलें.
कक्ष में ना जाने कहाँ से अज्ञात सैनिकों का एक पूरा गिरोह घुस आया था, किसी के हाथ में तलवार था, तो किसी के हाथ में भाला, और तीर धनुष. हर्षपाल के मरे पड़े सैनिकों के अलावा जितने भी बचे खुचे सैनिक वहाँ मौजूद थें, उस हरेक सैनिक के पीछे करीब दो से तीन ये अज्ञात सैनिक आ धमकें. कक्ष में अभी अभी जो कुछ भी हुआ था, उसके भय और आतंक से ग्रसित हर्षपाल के इन सैनिकों ने मरने से बेहतर अपने हथियार डालने का निर्णय उचित समझा !
" भाग क्यूँ रहे हो मूर्खो ??? शत्रु का सामना करो... ". हर्षपाल फिर से चिल्लाये, और अपने आस पास दौड़ते भागते सैनिकों को जबरन पकड़ पकड़ कर सामने द्वार कि ओर धकेलने लगें जिस ओर से ये अज्ञात मुसीबत आ धमकी थी . परन्तु फिर वो अपने ही ऊपर मानो लज्जित होकर रुक गएँ , क्यूंकि चारों ओर नज़र दौड़ाकर देखने पर उन्हें पता चला कि वहाँ अब उनके ऐसे सैनिक बचे ही नहीं थें जो कि लड़ सकें. उनके सैनिक या तो ज़मीन पर गिरे मरे पड़े थें, या फिर भय से कांपते खड़े हथियार डाले अपने प्राणो कि रक्षा हेतु प्राथना कर रहें थें !
सैनिकों का कोलाहल और वाणों कि वर्षा जब थोड़ी शांत हुई तो अवंतिका, विजयवर्मन और चित्रांगदा ने देखा कि कक्ष में वो अज्ञात सैनिक अब पूरी तरह से भर चुके थें.
क्रोध से आगबबूला हुये हर्षपाल ने अपने दोनों हाथों को इतने ज़ोर से झटका कि हथेलीयों में चुभा हुआ तीर दो टुकड़े होकर नीचे ज़मीन पर छिटककर गिर पड़ा, और उसके दोनों हाथ आज़ाद हो गएँ. वो ज़ोर से गुर्राते हुए उस अज्ञात सैनिकों कि टुकड़ी कि ओर निहत्था ही अकेले लड़ने के लिए दौड़ पड़ा, परन्तु तभी ना जाने कहाँ से सैनिकों कि भीड़ में से एक वाण तीव्र गति से लहराते हुये आकर उसके दाएं जंघा पर लगा, और वो आधे रास्ते ही लड़खड़ाकर अपने घुटनों के बल ज़मीन पर गिरकर पीड़ा से चिल्लाने लगा !!!
अज्ञात सैनिकों का झुंड तुरंत किनारे किनारे होकर सिर झुकाकर खड़ा हो गया और बीच से किसी के आगमन के लिए रास्ता बना दिया !
अस्त्र शस्त्र से सुसज्जित, हाथ में धनुष थामे, पीठ पर वाणों से लदा तूनीर लटकाये, छाती पर लोहे का कवच और सिर पर राजसी सोने का मुकुट पहने एक वृद्ध, परन्तु ह्रष्ट पुष्ट तथा बलशाली दिखने वाला शख्स सैनिकों के बनाये बीच के मार्ग से अंदर कक्ष में दाखिल हुआ, और अंदर आते ही रुककर सबसे पहले अपनी पैनी नज़र वहाँ मौजूद हरेक व्यक्तिविशेष पर दौड़ाई !!!
उस शख्स को सामने खड़ा देख, अवंतिका, विजयवर्मन और चित्रांगदा ने अविश्वास, मगर प्रसन्न आँखों से एक दूसरे को देखा !
" कौन है तू मूर्ख ??? ". अपनी जंघा में धसे हुये वाण को अपने दोनों घायल हाथों से निकालने का असफल प्रयास करते हुये हर्षपाल ने अपनी गर्दन ऊपर उठाकर उस व्यक्ति को देखते हुये चिल्लाकर पूछा. " क्या तू इस बात से अवगत नहीं कि हमने अभी अभी ये राज्य जीता है ??? हम यहाँ के सम्राट हैं !!! ".
" अशिष्ट हर्षपाल... तनिक संभल कर ! तुम्हारी अभद्रता ही कहीं तुम्हारी मृत्यु का कारण ना बन जाये ! ". एक अन्य व्यक्ति ने कक्ष में प्रवेश करते हुये कहा. " तुम कुम्भिक राज्य के महाराजाधिराज ऋषभनंदन के सामने हो !!! ".
" रहने दो सेनापति कीर्तिमान... जो व्यक्ति आजीवन शिष्टाचार ना सिख पाया हो, उसे उसकी मृत्यु के समय शिक्षित करना मूर्खता है ! ". उस वृद्ध व्यक्ति, राजा ऋषभनंदन ने अपना हाथ उठाकर अपने सेनापति कीर्तिमान को रोकते हुये कहा.
" क्षमा महाराज, मैं तो केवल ये चाहता था कि इस अधम को ज्ञात हो जाये कि इसकी मृत्यु किसके हाथों होने वाली है ! ". सेनापति कीर्तिमान ने सिर झुकाकर कहा.
राजा ऋषभनंदन अपने सेनापति को देखकर मुस्कुरायें, और फिर हर्षपाल कि ओर देखकर बोलें.
" युद्ध में जीत तब तक ही बनी रहती है हर्षपाल, जब तक कि तुम्हें मारने वाला कोई जीवित ना बचा हो !!! ".
सेनापति कीर्तिमान ने अपने सैनिकों को संकेत दिया, तो चार सैनिक भीड़ से निकल आएं, और जाकर हर्षपाल को पकड़कर वहीँ ज़मीन पर उसके घुटनों के बल बैठा दिया. कुछ भी समझ पाने में असमर्थ हर्षपाल ने पहले उन सैनिकों को देखा, और फिर राजा ऋषभनंदन और सेनापति कीर्तिमान को, तो सेनापति कीर्तिमान ने उसे बताया.
" हम यहाँ महाराज नंदवर्मन कि सहायता हेतु आएं हैं. हमारी सेना ने तुम्हारी सेना को रणभूमि में पराजित कर दिया है हर्षपाल, और इस राजमहल के अंदर भी अब तुम्हारे सैनिक नहीं बचें रहें. अब तुम हमारे बंदी हो... "
" पिताश्री !!! ". चित्रांगदा दौड़कर आई, और अपने पिता, राजा ऋषभनंदन से लिपट पड़ी और रोने लगी.
" मुझे क्षमा करना पुत्री... हमें आने में विलम्ब हुआ ! ". राजा ऋषभनंदन ने अपनी पुत्री चित्रांगदा को अपने सीने से लगा लिया.
अवंतिका और विजयवर्मन ने आकर राजा ऋषभनंदन के पैर छूकर आशीर्वाद लिया तो उन्होंने चित्रांगदा को छोड़ उन दोनों को अपने दोनों हाथों से पकड़कर उठाया और गले लगा कर बोलें.
" आयुष्मानभव: !!! आप दोनों ने बहुत कष्ट सहें हैं... अब और नहीं ! ".
" परन्तु आप हमारी सहायता हेतु यहाँ पहुँचे कैसे महाराज ??? ". अवंतिका पूछ बैठी.
" गुप्तचर... ". राजा ऋषभनंदन ने एक शब्द में उत्तर दिया.
" हम आपके आभारी हैं राजन. इसमें कोई संदेह नहीं कि आपकी गुप्तचर प्रणाली अत्यंत प्रवीण है, जो इतने कम समय में उन्होंने आप तक ये समाचार पहुँचाया, और आप हमारी सहायता को प्रस्तुत हुये ! ". विजयवर्मन ने विनम्रता से सिर झुकाकर कहा.
" नहीं नहीं राजकुमार... ". राजा ऋषभनंदन ने कहा, और फिर चित्रांगदा कि ओर संकेत करके मुस्कुराते हुये बोलें. " वो तो हमारी पुत्री का कोई घुड़सवार गुप्तचर था जो हमारे पास ये अशुभ समाचार लेकर आया था !!! ".
ये कथन सुनकर अवंतिका और विजयवर्मन कि आँखे बड़ी हो गईं, और उन्होंने घूमकर चित्रांगदा को देखा, तो चित्रांगदा हल्के से मुस्कुराकर बोली.
" मुझे राजनीती कि समझ नहीं... पर इस राजमहल में रहकर कुटिलता अवश्य ही सिख गई हूँ !!! ".
" आपका गुप्तचर ??? ". विजयवर्मन ने आश्चर्यचकित हो कहा. " और कहाँ मैं आपको गुप्तचर प्रणाली के विषय में शिक्षा दे रहा था भाभी !!!
अवंतिका और चित्रांगदा दोनों एक साथ हँस पड़ी.
तभी राजा ऋषभनंदन कि नज़र पास ही पड़े देववर्मन के शव पर गई, तो उनके कुछ पूछने से पहले ही चित्रांगदा उत्तर में बोली.
" घरेलु क्लेश कि वजह से देववर्मन राजद्रोही निकलेंगे ऐसा हममें से किसी ने भी नहीं सोचा था पिताश्री. उन्हें उनके किये कि फलप्राप्ति हो गई... ".
" आपलोग अब इस रक्तरंजीत स्थान से जाइये... ". राजा ऋषभनंदन ने चित्रांगदा के सिर पर हाथ फेरते हुये अवंतिका और विजयवर्मन को देखते हुये कहा.
" पिताश्री और माताश्री तो ठीक हैं ना ? ". अवंतिका ने चिंतित स्वर में पूछा.
" उन्हें हमारी सेना ने सकुशल बंदीगृह से निकाल लिया है राजकुमारी... ". राजा ऋषभनंदन ने आस्वस्त किया.
" फिर तो केवल एक ही कार्य पूर्ण करना बाकि रह गया है... ". चित्रांगदा ने अपने आप में कुछ सोचते हुये धीरे से कहा, और पीछे मुड़ी.
राजा ऋषभनंदन, अवंतिका, और विजयवर्मन उन्हें प्रश्नवाचक नज़रों से देखते रहें.
पीछे जाकर चित्रांगदा ने ज़मीन पर गिरा हुआ अपना चाकू उठाया, और धीमे कदमो से चलकर हर्षपाल के समीप पहुँची, जिसे अभी भी सैनिकों ने धर दबोच रखा था. अपने पास चित्रांगदा को खड़ा पाकर हर्षपाल ने गर्दन उठाकर उन्हें देखा, और भद्दी हँसी हँसते हुये बोला.
" हम अपनी योजना पर अभी भी अडिग हैं चित्रांगदा ! परन्तु आप जैसी तेजस्वीनी स्त्री का स्थान हमारे नगरवेश्यालय में नहीं, ये बात हम समझ चुके हैं. आप चाहें तो स्वेक्षा से हमारी दासी बनकर रह सकतीं हैं... हमारी पत्नियों को भी इससे प्रसन्नता ही होगी !!! ".
बिना एक शब्द भी कहे चित्रांगदा ने अपने चाकू कि नोक हर्षपाल कि ठुड्डी पर गड़ा कर उसे उठने का संकेत दिया, तो सैनिकों ने उसे खींचकर खड़ा कर दिया.
" स्त्रीयों के लिए तो कई सारे विकल्प हैं ... परन्तु पुरुषों का क्या ??? ". चित्रांगदा अपना चेहरा हर्षपाल के चेहरे के एकदम समीप लेजाकर बोली. " आप पुरुष हैं, अन्यथा हम आपको अपने नगर के वेश्यालय में अवश्य ही स्थान देतें. तुम्हारे पास विकल्प कम हैं हर्षपाल !!! ".
अपनी अटल नियति समीप देख हर्षपाल के कटे हुये चेहरे पर एक तीरछी मुस्कुराहट खेल गई. उसने एक बार भी चित्रांगदा कि आँखों में देखना बंद नहीं किया. हर्षपाल क्रूर और दुराचारी सही, परन्तु इतना तो तय था कि वो डरपोक नहीं था, उसे मृत्यु का भय भी नहीं था !
" और वैसे भी तुम्हारा चेहरा अर्ध विकृत हो चुका है... ". चित्रांगदा ने कहा. " आओ... इसकी विकृति पूर्ण कर देती हूँ !!! ".
चित्रांगदा ने हर्षपाल कि ठुड्डी के नीचले हिस्से में गर्दन में चाकू का नुकीला मुँह अंदर घोप दिया. भयहीन हर्षपाल चित्रांगदा कि आँखों में तब तक देखकर मुस्कुराता रहा, जब तक कि चाकू उसके चेहरे के भीतर भीतर चीरा लगाते हुये उसके सिर को चीरकर सिर से बाहर ना निकल गया. हर्षपाल कि आँखे बंद हो गई, तो चित्रांगदा ने अपना दूसरा हाथ उसकी छाती पर टिकाकर, अपनी पूरी शक्ति लगाकर चाकू को हर्षपाल के चेहरे के अगले हिस्से से खींचकर बाहर निकाल लिया, हर्षपाल का चेहरा बीच से अगल बगल में दो हिस्सों में कट कर लटक गया, और उसकी जीवनलीला वहीँ समाप्त हो गई !!!
सैनिकों ने हर्षपाल के भारी हो चुके शरीर को वहीँ ज़मीन पर नीचे गिर जाने दिया !
वापस राजा ऋषभनंदन, अवंतिका, और विजयवर्मन के पास आकर चित्रांगदा ने रक्त से सना अपना चाकू अपनी कमर से लिपटे घाघरे में खोस लिया और बोली.
" अब हम चलने के लिए प्रस्तुत हैं ... ".
विजयवर्मन ने एक नज़र अपनी भाभी चित्रांगदा कि कमर में खोसी हुई चाकू पर डाली, फिर उनके चेहरे को देखा, मन ही मन कुछ याद करके मुस्कुरायें, और उन्हें और अवंतिका को लेकर राजा ऋषभनंदन कि आज्ञा लेने के उपरांत कक्ष से बाहर निकल गएँ !
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